अफवाहों व सोशल मीडिया का दुरुपयोग बन रहे तनाव का कारण

अनपढ़ता और अफवाहें जब मिल जाएं तो यह उथल-पुथल मचा देती हैं। सोशल मीडिया ने अफवाहों को पंख लगा दिए हैं। असम में दो युवाओं को बच्चे उठाने वाले समझकर गांववासियों ने पीट-पीट कर मौत के घाट उतार दिया। पिछले कई दिनों से असम में बच्चों को उठाने संबंधी अफवाहें फैल रहीं थी। दूसरी तरफ प्रशासन व पुलिस तंत्र इतना सुस्त है कि ऐसी अफवाहों पर तब ध्यान देता है जब कोई बड़ा हादसा घटित हो जाए। पिछड़ापन इतना ज्यादा है कि जनता और प्रशासन के बीच बड़ी खाई पैदा हो गई है।

खासकर बंगाल, बिहार, उड़ीसा जैसे राज्यों में ग्रामीण क्षेत्र अनपढ़ता व अफवाहों के कारण बदतर परिस्थितियों से गुजर रहा है। पिछले महीनों में चोटी काटने की अफवाहों ने तब कई जानें ले ली जब किसी अज्ञात वृद्ध महिला की तरफ से चोटी काटने की अफवाह फैला दी गई। सोशल मीडिया ने ऐसी अफवाहों का प्रभाव कई गुणा बढ़ा दिया। सोशल मीडिया बुरा नहीं पर इसका दुरुपयोग बुरा है। यह प्रशासन की जिम्मेदारी है कि वह समझाए की मीडिया की आजादी व समाज की सुरक्षा के बीच किस तरह संतुलन रखना है।

नि:सन्देह अफवाहें फैलाने वालों के खिलाफ कानूनन सजा का प्रावधान है लेकिन सोशल मीडिया का दुरुपयोग करने वालों की बड़ी गिनती इन कानूनों से ही अनभिज्ञ है। सोशल मीडिया के दुरुपयोग को रोकने संबंधी ऐसा कोई प्रबंध होना चाहिए कि इंटरनेट का कनैक्शन देने या मोबाइल फोन की खरीदारी के समय कानून संबंधी जानकारी लिखित रूप में दी जाए ताकि लोगों में जागरुकता के साथ-साथ कानून का भय भी पैदा हो।
कई पिछड़े क्षेत्रों में अनपढ़ता के कारण हिंसा इतनी ज्यादा बढ़ रही है कि लोग आरोपी को कानून के हवाले करने की बजाय कबीलाई सोच अपनाकर सजा देने लगे हैं। कई जगहों पर निर्दोष व्यक्तियों को चोर समझकर मार दिया गया। भड़की जनता बेगुनाह लोगों की जान ले लेती है। भीड़ पर कोई कार्रवाई नहीं होती, मामला रफा-दफा हो जाता है। भीड़ की आड़ में असामाजिक तत्व अपराध कर जाते हैं। ऐसी घटनाएं भारतीय सभ्यता, कानून और सरकार के नाम पर कलंक हैं। इस विष य में प्रभावी शिक्षाा व कानून व्यवस्था के प्रबंध किए जाने आवश्यक हैं।

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