वचन मानने से संवर जाते हैं दोनों जहान

Anmol Vachan, True Saint

सरसा। पूज्य हजूर पिता संत डॉ. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां फरमाते हैं कि साईं मस्ताना जी का बख्शा पाक-पवित्र नाम आज करोड़ों घरों के अंधकार को दूर कर रहा है, करोड़ों घरों को नर्क से निकाल कर स्वर्ग से बढ़कर बना चुका है। ऐसे मुर्शिदे-कामिल, ऐसे सतगुरु-मौला का जितना शुक्राना किया जाए, उतना ही कम है। मुर्शिदे-कामिल ने जो तरीका बताया, बड़ा ही आसान तरीका, चलते, बैठते-लेटते, खाते-पीते, काम-धंधा करते हुए आप जिह्वा ख्यालों से मालिक का नाम जपो, वो दरगाह में मंजूर होगा जोकि बेमिसाल है। पुराने समय में लोग परमात्मा की खोज के लिए जंगलों में चले जाते। सालों-साल बैठे रहते। कई सालों के बाद एक-आध झलक नजर आती। और साईं जी ने ऐसा कमाल किया कि परिवार में रहो, काम-धंधा करते रहो और बस, सुमिरन से, मालिक से जुड़े रहो, तो ऐसे रहते हुए भी आप मालिक की कृपा-दृष्टि के रहमो-कर्म से मालामाल हो।

जो इस घोर कलियुग में चाहे वो गृहस्थी है या त्यागी, मुर्शिदे-कामिल के वचनों को मानता है, यकीनन उसके दोनों जहान संवर जाते हैं। मालिक उन्हें अंदर-बाहर किसी भी तरह की कमी नहीं आने देता। वो खुशियों से लबरेज होते हैं, दिलो-दिमाग से अंधकार दूर हो जाता है और वो परमात्मा की उन तमाम खुशियों के हकदार बनते हैं, जिसकी कल्पना भी कभी नहीं की होती। पूज्य गुरु जी फरमाते हैं कि सुमिरन करना चाहिए और साईं अपने मुर्शिदे-कामिल का गुणगान गाते और शुक्राना करते रहना चाहिए, तभी मालिक का रहमो-कर्म होता है और तभी मालिक की तमाम खुशियां मिला करती हैं। आप जी फरमाते हैं कि आदमी को दीनता-नम्रता अपनानी चाहिए और जिस दर को सजदा करता है, जिस मुर्शिदे-कामिल से प्यार-मोहब्बत करता है, उसके लिए जितनी कोई सेवा करे, उतना ही कम होता है।

पूज्य गुरु जी फरमाते हैं कि लोभ-लालच बुरी बला है। साईं मस्ताना जी महाराज के एक वृत्तांत का जिक्र करते हुए आप जी फरमाते हैं कि एक बार बहुत सारे सत्संगी खड़े थे और वहां बकरियां घूम रही थी। साईं मस्ताना जी महाराज ने ताजे-ताजे नोट बकरियों के गले में बांध दिए और उनको आप ही दौड़ा दिया, ‘अरे, पकड़ो-पकड़ो भाई! सभी ले के भाग गई। अरे…रे…रे इतने नोट!’ चलो, एक-दो भागते, लेकिन सारे के सारे ही भाग गए। ये तो कहा ही नहीं था कि नोट ले लो, सिर्फ पकड़ो ही कहा था, लेकिन सारे झपटे कि मैं ले लूं, मैं ले लूं। साईं जी मुस्कुरा कर कहने लगे, ‘सतगुरु दा यार तां कोई-कोई निकल्या, सारे माया दे यार ने।’ आप जी फरमाते हैं कि माया कई तरह की होती है। रुपया-पैसा, हीरे-मोती सब-कुछ ये माया है जो दिखता है। और जो नहीं दिखता आंखों पर माया का पर्दा वो है- नर-नारी। चाहे वो पशु हैं, चाहे आदमी हैं, ये माया से ही एक-दूसरे के प्रति पगलाये हुए हैं। तो ये माया का रूप बड़ा जबरदस्त है। लोग सारा प्यार, सारी सेवा भूल जाते हैं जब माया की बात आती है। कई भाई मंझ जैसे भी होते हैं, जो सब कुछ लुटा के दोनों जहानों को पा जाते हैं। ये तो अपनी-अपनी सोच, अपना-अपना दिमाग है।

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