बाल कथा : संतोष की महत्ता

Importance of Satisfaction
जीवन में संतोष है तो सब कुछ है। संतोष नहीं तो सब कुछ होने पर भी मनुष्य के पास कुछ नहीं। जीवन को सुखमय बनाने के लिए संतोष आवश्यक है। जीवन का लक्ष्य भौतिकवाद नहीं है जबकि मनुष्य हमेशा भौतिक पदार्थों को इक्ट्ठा करने में ही लगा रहता है। भौतिकवाद तो एक अंधेरी गली की तरह है। एक बार घुसे तो बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है। संतोषी जीव इन भौतिक पदार्थों से दूर ही रहता है। आचार्य चाणक्य की एक रोचक कथा से पता चलता है कि संतोष क्या है? चाणक्य के बारे में तो आप सब जानते हैं।
चाणक्य मगध देश के राजा चन्द्रगुप्त के मंत्री थे। वे बुद्धिमान, तपस्वी और राजनीतिज्ञ थे। चाणक्य मंत्री होते हुए भी बहुत साधारण जीवन व्यतीत करते थे और शहर से बाहर एक झोंपड़ी में रहते थे। एक बार राजा चन्द्रगुप्त ने मंत्री चाणक्य को कुछ कंबल दिए और कहा-इन कम्बलों को शीत ऋतु में जो अभी पूरी तरह शुरू नहीं हुई है, गरीब लोगों के बीच बांट देना। चाणक्य ने वे कम्बल झोंपड़ी में रख दिए और सोचा-सुबह मैं इन कम्बलों को बांट दूंगा और सो गये। कुछ लोगों को इस बात का पता चल गया था कि सारे कम्बल चाणक्य की झोंपड़ी में रखे हैं।
वे चोरी की नीयत से झोंपड़ी में कम्बल चुराने के लिए आए तो देखा कि चाणक्य चटाई पर ठंड में बिना कम्बल के सो रहे थे। चोर ठिठके और चाणक्य को जगा कर कहने लगे कि आपके पास कम्बलों का ढेर है, फिर भी आप बिना कम्बल के सो रहे हैं। चाणक्य ने बड़ी मधुरता से सहज होते हुये जवाब दिया, ये कंबल राजा ने गरीबों में बांटने के लिए मुझे दिए हैं जिनको मैं कल सुबह बांटूंगा। इन कंबलों पर मेरा कोई अधिकार नहीं है।
यह सुनकर चोरों को बहुत शर्म महसूस होने लगी। वे सोचने लगे कि एक यह हैं (चाणक्य) जो दूसरे के धन के प्रयोग को अधर्म समझते हैं और दूसरी ओर हम हैं जो हर रोज दूसरों का सामान चुराते हैं। हम कितने अधर्मी और असंतोषी हैं। यह कितने संतोषी और तृप्त हैं। यह सोचकर उन्होंने चाणक्य से क्षमा मांगी और कभी भी दूसरों की चीज न चुराने का वचन दिया। प्रत्येक इंसान को संतोष जैसे गुण को अपने जीवन में उतारना चाहिए। इससे वह स्वयं भी सुखी होगा और समाज भी।
-नीतू गुप्ता

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