रोटी या पाप

उगते सूरज की किरणें अभी समंदर की इठलाती लहरों को चूम भी नहीं पाई थीं कि फुटपाथ पर बैठे भिखारियों में आपा-धापी मच उठी। सेठ शांति लाल की मोटर वहां आकर रुक चुकी थी। उसकी आवाज उन्हें उसी तरह उद्वेलित कर देती थी, जैसे भोजन का समय होने पर गली में घुमने वाले जानवरों के मुँह से अपने आप ही लार टपकने लगती है। सदा की तरह सेठ जी के हाथ में एक बड़ा-सा पैकेट था। उसी से निकाल-निकाल कर वे डबल रोटी का एक-एक टुकड़ा एक-एक भिखारी पर फेंकने लगे। एक-दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ में वे भिखारी उन टुकड़ों पर जानवरों की तरह झपटते। कुछ तो उन्हें छिपाकर आगे भी जा बैठते। सेठजी देखते रहते और घृणा से हँसते रहते। कभी-कभी बोल भी उठते-‘लोग कहते हैं कि गरीब बड़े ईमानदार होते हैं।’
लेकिन एक दिन सब कुछ उलट-पुलट गया। उन्होंने देखा कि भीड़ से दूर एक भिखारी चुपचाप इस दृश्य को देख रहा है। उसने रोटी का वह टुकड़ा लेने के लिए हाथ तक नहीं हिलाया। सेठ जी ने उससे पूछा-‘तुझे रोटी मिली?’ उसने उत्तर दिया-‘रोटी है कहां, जो मिलती।’ ‘यह रोटी नहीं तो क्या है?’ सेठ जी बोले। ‘आपका पाप।’ आप रोटी नहीं, अपने पाप  (Sin) बाँट रहे हैं। मुझे पाप नहीं, ‘आप’ चाहिए। दे सकेंगे अपने आपको।’ सेठ जी सकते आ गए। हँसकर बोले-‘तू भूखा नहीं है।’ और वे रोटी (Bread) (पाप) बाँटने के लिए आगे बढ़ गए।
-विष्णु प्रभाकर

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