लैंगिक भेदभाव को मिटाने की चुनौती

gender discrimination

-अगर समाज में लैंगिक भेदभाव खत्म नहीं किया गया तो संयुक्त राष्ट्र के 2030 के सतत विकास लक्ष्यों के मूल में निहित महिला सशक्तीकरण और लैंगिक समानता के लक्ष्य की प्राप्ति में हम पिछड़ जाएंगे। हालांकि विश्व आर्थिक मंच ने कहा है कि दुनिया में लैंगिक भेदभाव खत्म करने के लिए जिस गति से प्रयास किए जा रहे हैं, उस हिसाब से इस लक्ष्य को पाने में 99.5 साल लग जाएंगे!गौरतलब है कि दुनिया के 40 से भी अधिक देश अपने यहां लैंगिक समानता कानून लागू करके स्त्री-पुरुष समानता स्थापित कर चुके हैं। हालांकि कई देशों में यह एक बड़ी चुनौती के रूप में अभी भी विद्यमान है। ऐसे में भारत में लैंगिक भेदभाव की खाई घटने के बजाय बढ़ते जाना चिंता का सबब बन गया है।

हाल ही में विश्व आर्थिक मंच द्वारा 14वीं ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स रिपोर्ट-2020 जारी की गई है। दुनिया के 153 देशों में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की आर्थिक सहभागिता, शिक्षा एवं स्वास्थ्य तक उनकी पहुंच और राजनीतिक सशक्तीकरण जैसे 4 मुख्य संकेतकों तथा लैंगिक भेदभाव के न्यूनीकरण की दिशा में किए जा रहे विभिन्न प्रयासों के अध्ययन के पश्चात तैयार किए गये इस सूचकांक में आइसलैंड, नार्वे, फिनलैंड और स्वीडन शीर्ष देशों में शामिल है, जबकि यमन, इराक और पाकिस्तान लैंगिक समानता के मामले में क्रमश: तीन सबसे फिसड्डी देश साबित हुए हैं। हालांकि यह रिपोर्ट भारत के संदर्भ में भी लैंगिक भेदभाव की धुंधली तस्वीर पेश करती है।

दरअसल इस सूचकांक में भारत 2018 के मुकाबले 4 पायदान फिसलकर 112वें स्थान पर पहुंच गया है। 14 साल पहले जब यह रिपोर्ट पहली बार जारी की गई थी तब भारत की स्थिति इससे बेहतर थी। उस समय हम 98वें स्थान पर थे। पिछले डेढ़ दशक में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी के मामले में भारत की स्थिति सुधरी तो है, लेकिन महिला स्वास्थ्य और आर्थिक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी के मामले में भारत सबसे नीचे स्थान पाने वाले पांच देशों में शामिल है। राजनीतिक क्षेत्र में भारत का स्थान जहां 18 वां है, वहीं आर्थिक हिस्सेदारी में वह 149वें तथा स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में 150वें स्थान पर पहुंच गया है!

यहां एक सवाल का जवाब जानना समीचीन होगा कि लैंगिक समानता के मामले में आइसलैंड, फिनलैंड और नार्वे जैसे राष्ट्र ही प्रत्येक वर्ष शीर्ष पर क्यों रहते हैं?गौरतलब है कि इन राष्ट्रों की गिनती दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों में भले ही नहीं होती हो, लेकिन बात जब खुशहाल और लैंगिक भेदभाव से मुक्त राष्ट्र की होती है, तो ये चुनिंदा देश संपूर्ण विश्व का नेतृत्व करते दिखाई देते हैं। क्यों न दुनिया के अन्य देश इनके अथक प्रयासों और अभिनव प्रयोगों से कुछ सीखे?आइसलैंड एक छोटा-सा यूरोपीय देश है, जिसकी जनसंख्या केवल साढ़े तीन लाख है।

लेकिन लैंगिक समानता के मोर्चे पर आज वह विश्व का पथ-प्रदर्शक बन गया है। इस देश में लैंगिक भेदभाव को 88 फीसद तक खत्म किया जा चुका है, जो पूरी दुनिया में सर्वाधिक है। आश्चर्य की बात है कि आइसलैंड में शिक्षा तथा स्वास्थ्य सुविधाओं तक स्त्री-पुरुष की समान पहुंच है। यह अपने आप में एक अनुपम उपलब्धि है। यही वजह है कि लगातार सातवें वर्ष आइसलैंड ने इस सूचकांक में शीर्ष स्थान हासिल किया है। अनोखी बात यह है कि आइसलैंड की सरकार ने पिछले साल ही कानून बनाकर एक ही काम के लिए किसी महिला को कम और पुरुष को ज्यादा वेतन देने की प्रथा को अवैध घोषित कर दिया है। भारत सहित अन्य देशों को आइसलैंड से सीखना चाहिए कि जब निश्चित समय में महिला और पुरुष से समान श्रम करवाया जाता है, तो लिंग के आधार पर उनके पगार में असमानता क्यों ?

अफ्रीकी देश रवांडा अर्थव्यवस्था भले ही छोटी है, लेकिन महिला सशक्तीकरण की मिसाल के तौर उसे जाना जाता है। वह दुनिया का पहला देश है, जिसकी संसद में 64 फीसदी महिलाएं हैं!हालांकि ऐसा नहीं है कि यह परिवर्तन वहां एकाएक आ गया। 1994 के नरसंहार में लाखों महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार हुआ था। लेकिन उसके बाद महिलाओं ने खुद को संभाला और इस तरह वहां महिलाओं की राजनीतिक हिस्सेदारी भी बढ़ती चली गई। इसके बरक्स भारतीय संसद में महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी देखें तो वह केवल 14.4 फीसद है। गौरतलब है कि 17वीं लोकसभा में 78 महिला सांसद है, जो अब तक का सर्वाधिक है। वहीं संसद में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण का बिल अभी भी अधर में लटका हुआ है!जाहिर है, इस दिशा में भारत को अभी लंबा सफर तय करना होगा।1906 में महिलाओं को राजनीतिक अधिकार देकर विश्व का पहला देश बना फिनलैंड के बारे में यह जानना रोचक है कि वहां कामकाजी महिलाओं की स्थिति बहुत ही अच्छी है।

वहां बच्चों के साथ उनके पिता ज्यादा समय व्यतीत करते हैं, जिससे महिलाएं अपने कामकाज पर अधिक ध्यान दे पाती हैं। फिनलैंड में स्त्री-पुरुष असमानता के अंतराल को 84.2 फीसद तक कम किया जा चुका है। बता दें कि फिनलैंड विश्व का सबसे खुशहाल राष्ट्र है। इसी महीने वहां सना मरीन को दुनिया की सबसे कम उम्र की प्रधानमंत्री बनने का गौरव प्राप्त हुआ है। क्या यह आश्चर्य की बात नहीं कि नॉर्वे के परिवहन मंत्री केतिल सोलविक ओल्सन ने गत वर्ष अपने मंत्री पद से सिर्फ इसलिए त्यागपत्र दे दिया था, क्योंकि उनकी पत्नी को अमेरिका में नौकरी मिल गई थी और वे उनके करियर को आगे बढ़ाना चाहते थे। आमतौर पर परिवार और बच्चों की परवरिश के लिए महिलाएं अक्सर ही नौकरी छोड़ती हैं, लेकिन ओल्सन ने एक मिसाल कायम की। ये उदाहरण ही इन देशों को विशिष्ट बनाते हैं। इनसे काफी कुछ सीखा जा सकता है। इस तरह के प्रयासों से लैंगिक भेदभाव खत्म करने में सफलता हासिल की जा सकती है।

किसी भी राष्ट्र की सतत प्रगति के लिए लैंगिक समानता एक जरूरी तत्व है। विभिन्न क्षेत्रों में पुरुषों और महिलाओं की समान भागीदारी सुनिश्चित करके ही राष्ट्र के सर्वांगीण विकास का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। विश्व आर्थिक मंच के मुताबिक भारत में जेंडर गैप अभी 67 फीसद ही भरे हैं, जो चिंता की बात है। लैंगिक असमानता न केवल महिलाओं के विकास में बाधा पहुंचाती है, बल्कि किसी राष्ट्र के आर्थिक एवं सामाजिक विकास को भी गहरे तौर पर प्रभावित करती है। दरअसल किसी देश के पिछड़ेपन का एक अहम कारण स्त्रियों का समाज में उचित स्थान न मिल पाना भी रहा है।

लैंगिग समानता आज भी वैश्विक समाज के लिए एक चुनौती बनी हुई है। लैंगिक समानता को सुनिश्चित करना, महिला सशक्तीकरण को बढ़ाना और महिलाओं के खिलाफ हिंसा व भेदभाव को रोकना तथा सामाजिक पूर्वाग्रहों और रूढ़ियों से निपटना आधुनिक समाज की बुनियादी जरूरत है। असंतुलित लिंगानुपात, पुरुषों के मुकाबले साक्षरता और स्वास्थ्य सुविधाओं का निम्न स्तर, पारिश्रमिक में लैंगिक विषमता जैसे कारक समाज में स्त्रियों की कमतर स्थिति को दशार्ते हैं।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् देश में नारी की दशा में बहुत सुधार आया है। स्त्रियों के अधिकार के प्रति हमारा समाज अब उतना रूढ़ नहीं रहा, जितना कछेक दशक पूर्व था। कुछ समस्याओं को छोड़ दें तो आज महिलाओं को आगे बढ़ने के पर्याप्त अवसर मिल रहे हैं। स्त्री-शिक्षा के व्यापक प्रसार ने स्त्रियों को अपने व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के समुचित अवसर प्रदान किया है और उन्हें रूढ़िवादी विचारों से काफी सीमा तक मुक्त भी किया है। बहरहाल समाज में लैंगिक समानता मानसिकता में बदलाव लाकर ही स्थापित किया जा सकता है।

समझना होगा कि स्त्री-पुरुष एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सामाजिक उत्थान में जितना योगदान पुरुषों का है, उतना ही महिलाओं का भी है। इस संबंध में हम मिजोरम और मेघालय से सीख सकते हैं, जहां बिना किसी भेदभाव के महिलाओं को समान रूप से काम दिया जाता है। महिलाओं का सम्मान तथा समूचित अवसर देकर ही लैंगिक भेदभाव से मुक्त प्रगतिशील समाज की स्थापना संभव है।

-सुधीर कुमार

 

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