कानून और व्यवस्था का टकराव: तूं कौन, मैं ख्वामख्वाह?

law and order

इस सबकी शुरूआत इस बात से हुई कि किसी विशेष जगह पर पार्किंग करने का अधिकार किसका है और इसके चलते वकीलों द्वारा हिंसा की गयी, पुलिस की वैन पर आग लगायी गयी, पुलिसकर्मियों द्वारा वकीलों के चैम्बर में तोड़फोड़ की गयी और इस तरह कानून और व्यवस्था के बीच टकराव देखने को मिला और यह सब कुछ देश की राजधानी में हुआ। इस घटना में तीन वकीलों को गोली लगी, अनेक पुलिसकर्मी घायल हुए और व्यवस्था के रखवाले 11 घंटे तक सामूहिक विरोध प्रदर्शन करते रहे तो कानून के रखवाले अनिश्चितकालीन हड़ताल पर चले गए। यह अहम के टकराव अर्थात तू कौन, मैं ख्वामख्वाह का एक अच्छा उदाहरण है।

वस्तुत: हमारी दांडिक न्याय प्रणाली के दो स्तंभों के बीच बढ़ता तनाव देश के लिए चिंता का विषय है। यह बताता है कि हम एक असभ्य समाज में रह रहे हैं जहां पर कानून के शासन का कोई सम्मान नहीं है अन्यथा दोनों पक्ष ऐसा कैसे कर सकते हैं, एक दूसरे को कैसे धमकाते, अपनी स्थिति का लाभ कैसे उठाते और व्यवस्था से खिलवाड़ कैसे करते? ऐसा टकराव पंजाब, राजस्थान, हरियाणा और चंडीगढ़ में भी देखने को मिला जो बताता है कि वकीलों और पुलिस के बीच घृणा-प्रेम का संबंध है और इनके बीच टकराव आए दिन देखने को मिले हैं। जबकि इन दोनों से अपेक्षा की जाती है कि अपराधियों को दंड दिलाने में ये दोनों समन्वय से काम करें किंतु इनके संबंध बिगड़ गए हैं।

एक ओर वकील अपने आप में कानून बन गए हैं जो ड्यूटी पर तैनात पुलिस अधिकारी पर हमला करने के लिए बिल्कुल नहीं सोचते और उन्हें न्यायालय परिसर में उपस्थित होने का लाभ मिलता है। दूसरी ओर सुरक्षाकर्मी हैं जिन्हें सरकार की शक्ति का प्रतीक माना जाता है, वकीलों पर हमला करते हैं और वे यह संदेश देना चाहते हैं कि वे शक्तिशाली हैं, वे कुछ भी कर सकते हैं और इसके चलते आम आदमी जो न्याय की प्रतीक्षा कर रहा होता है, वर्षों तक जेल में सड़ जाता है।

प्रश्न उठता है कि क्या समाज का एक वर्ग कानून पर बैठ सकता है? उन लोगों का क्या होगा जो कानून का पालन कर रहे हैं? यदि पुलिसकर्मी पर खुल्लमखुल्ला हमला किया जाता है और वकीलों को दंड नहीं दिया जाता है तो फिर कोई भी कानून का पालन क्यों करेगा? इससे आम आदमी में कानून के प्रति आदर कम होगा और कानून का पालन करने वाला निराश होगा। लोग यह समझेंगे कि पुलिसवाले केवल अपनी नौकरी कर रहे हैं। किंतु पुलिसकर्मी बहादुर हैं। खराबी उनके नेतृत्व में है। इस मुद्दे को वकीलों और पुलिसकर्मियों दोनों की बदनामी ने और उलझा दिया क्योंकि वे आम आदमी को उत्पीड़ित करने के लिए अपनी शक्तियों का उपयोग करते हैं। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहां पर दोनों समाज के गरीब और वंचित वर्गों के साथ दुर्व्यवहार करते हैं और आज उन्हें ऐसा ही झेलने को मिल रहा है।

ऐसी घटनाएं बताती हैं कि हमारी व्यवस्था में गंभीर खामियां हैं क्योंकि पुलिस और वकीलों के बीच हिंसक झड़पें किसी भी आधार पर उचित नहीं ठहरायी जा सकती है। पुलिसकर्मियों का कहना है कि उनकी वर्दी कानून के रखवाले के रूप में देखने के बजाय काले कोट वालों और नागरिकों द्वारा पिटने की प्रतीक बन गयी है। इस झड़प से तीन महतवपूर्ण मुद्दे सामने आए हैं। यह बताती है कि कड़ी मजबूत और कमजोर दोनों हो सकती हैं।

देश में न्यायिक प्रणाली का कुशल कार्यकरण वकीलों और पुलिसकर्मियों दोनों पर निर्भर है। वकील बार बार हड़ताल पर जाते हैं जिसके कारण न्यायालयों में लंबित मामलों की संख्या बढ़ती है। वहीं दूसरी ओर पुलिस द्वारा खराब जांच और भ्रष्टाचार के कारण न्याय के दरवाजे बंद हो जाते हैं। वकीलों और पुलिसकर्मियों दोनों की क्षमताएं अच्छी नहीं हैं। पुलिसकर्मियों को सुसज्जित करने के लिए पर्याप्त धनराशि नहीं दी जाती, उनका वेतन कम है, कार्य के घंटे अधिक हैं, उनके पास पर्याप्त वाहन और हथियार नहीं हैं। वे अपराधिक मामलों को हल करने के लिए बल का प्रयोग करते हैं। देश में प्रति लाख अपराध की दर 2005 की तुलना में 2015 में 28 प्रतिशत बढ़ गयी किंतु केन्द्र और राज्य सरकारों के बजट में पुलिस के लिए केवल 3 प्रतिशत की वृद्धि की गयी।

राज्य पुलिस बलों में 24 प्रतिशत अर्थात 5.5 लाख रिक्तियां हैं तो केन्द्रीय बलों में 7 प्रतिशत रिक्तियां हैं। उनके पास हथियारों और वाहनों की कमी है और राज्यों द्वारा पुलिस बल के आधुनिकीकरण के लिए केवल 14 प्रतिशत राशि का उपयोग किया गया है। हैरानी की बात यह है कि आज भी पुलिस बल पुलिस अधिनियिम 1861 के अंतर्गत कार्य करती है जिसमें उन्हें नकारात्मक भूमिका दी गयी है। धर्मवीर आयोग से लेकर जूलियो रिबेरो समिति, सोली सोराबजी आयोग और पद्मनाभैया समिति सब यही निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि पुलिस बल की सोच बदलनी होगी, जनता से उनके संवाद में सुधार लाना होगा, उनकी छवि सुधारनी होगी, पुलिस बलों का राजनीतिकरण, अपराधीकरण और उनमें व्याप्त भ्रष्टाचार समाप्त करना होगा किंतु परिणाम कुछ नहीं निकला।

वस्तुत: कानून के शान की सर्वोच्चता स्पष्ट की जानी चाहिए और पुलिस कानून द्वारा निर्देशित होनी चाहिए और उसके पास इसके विपरीत निर्देशों को न मानने का कानूनी विकल्प होना चाहिए। साथ ही पुलिसबलों का प्रशासन और पर्यवेक्षण पेशेवर पुलिस पर्यवेक्षकों के अधीन होना चाहिए और यह स्पष्ट किया जाना चाहिए कि पुलिस की वर्दी जनता की सेवा के लिए है। साथ ही सोशल मीडिया द्वारा चलाए गए विरोध प्रदर्शन अभियान से स्पष्ट है कि न्यायिक प्रणाली में गंभीर संकट है जहां पर सुधार की आवश्यता है। न्याय राज्य का एक संप्रभु कार्य है। वकीलों का यह विश्वास रहता है कि उन्हें एक नागरिक के रूप में मिले कानूनी संरक्षण प्राप्त हैं और पुलिस द्वारा बलपूर्वक कार्यवाही के विरुद्ध उन्हें बेहतर न्यायिक संरक्षण प्राप्त है।

तथापि वकीलों को यह समझना होगा कि वे न्याय के रखवाले हैं जो अधिकारों, स्वतंत्रता और संरक्षण तथा कानून के शासन को अव्यवस्था और अराजकता से अलग करता है। इससे वकीलों के विरुद्ध कार्यवाही करने का पुलिस का कार्य और भी कठिन हो जाता है क्योंकि बार और बेंच के बीच घनिष्ठ संबंध होते हैं इसलिए बार संघों और वरिष्ठ अधिकारियों के बीच घनिष्ठ सहयोग होना चाहिए। जनता की नजरों में वकीलों और पुलिस को अधिक इज्जत नहीं दी जाती है किंतु फिर भी दोनों दांडिक न्याय प्रणाली के महत्वपूर्ण केन्द्र हैं। इसलिए दोनों पक्षों को खराब व्यवहार शोभा नहीं देता है। वकील और पुलिस अधिकारियों को महान समझा जाए या न समझा जाए किंतु जनता में उनका व्यवहार अनुकरणीय होना चाहिए जिससे लोगों में विश्वास जागृत हो। हमारे नेताओं और न्यायपालिका को इस पर तत्काल ध्यान देना होगा और स्पष्ट है कि कठिन समय में कठिन कार्यवाही की जानी चाहिए।

वर्तमान संकट चिर प्रतीक्षित पुलिस और न्यायिक सुधारों के बीच एक अवसर भी है। इसलिए आवश्यक है कि हम अपनी प्राथमिकताएं सही निर्धारित करें क्योंकि आज जनता कानून और व्यवस्था के स्तंभों से उत्तरदायित्व और जवाबदेही की मांग कर रही है। हमारा लक्ष्य कानून का शासन लागू करना और राज्य का इकबाल बनाए रखना होना चाहिए। हरमन गोल्ड स्टीन ने कहा है ‘‘लोकतंत्र की शक्ति और नागरिकों द्वारा जीवन की गुणवत्ता इस बात से निर्धारित होती है कि दांडिक न्याय प्रणाली सम्मान जनक ढंग से अपने कर्तव्यों का निवह्रन करे।’’ अत: यह आत्मावलोकन का समय है: किसका खून और किसका डंडा? हमें यह भी याद रखना चाहिए कि ताली एक हाथ से नहीं बजती।
पूनम आई कौशिश

 

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