विरोध प्रदर्शन की संस्कृति

Protest
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श्रम सुधारों की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए आयोजित बंद में करदाताओं को 18 हजार करोड रूपए का नुकसान हुआ तो जाट आंदोलन के कारण 34 हजार करोड रूपए, और कर्नाटक में कावेरी जल विवाद पर विरोध प्रदर्शन के कारण 22-25 हजार करोड का नुकसान हुआ। जैसे-जैसे भारत प्रगति कर रहा है क्या उसमें ये विरोध प्रदर्शन उचित हैं? यह सच है कि संविधान ने विरोध प्रदर्शन के अधिकार की गारंटी दी गयी है किंतु संविधान में दूसरे व्यक्ति के अधिकारों के अतिक्रमण की गारंटी नहीं दी गयी है और ये विरोध प्रदर्शनकारी भूल जाते हैं कि विरोध प्रदर्शन लोकतंत्र की बुनियादी अवधारणा को ही नकार देते हैं। ये विरोध प्रदर्शन अकर्मण्यता, अपने गुणगान, बाहुबल का प्रदर्शन, सहानुभूति प्राप्त करने या कठिन परिश्रम से बचने का छद्म आवरण बन गए हैं। लोकतत्र न तो भीडतंत्र है और न ही अयवस्था पैदा करने का लाइसेंस है। यह अधिकरों और कर्तव्यों, स्वतंत्रता और उत्तरदायित्व के बीच संतुलन है।

 

पूनम आई कौशिश

आज के राजनीतिक वातावरण में चारों ओर विरोध प्रदर्शन (Protest) देखने को मिल रहे हैं। इन विरोध प्रदर्शनों का कारण महत्वपूर्ण नहीं है। इनका उद्देश्य केवल अपना विरोध जताना है और यह विरोध जितना जोर-शोर से हो उतना अच्छा है। इन विरोध प्रदर्शनों की सफलता का पैमाना जनजीवन को अस्त-व्यस्त करना और लोगों को परेशानी पैदा करना है। आप कुछ भी भला-बुरा कहें किंतु आपको यह बात ध्यान में रखनी होगी कि आपकी स्वतंत्रता वहां समाप्त होती है जहां से अन्य लोगों की नाक शुरू होती है।
इस सप्ताह भारत अपना 70वां गणतंत्र दिवस मनाएगा और इसमें विविधता में एकता की झलक देखने को मिलेगी किंतु साथ ही हमें हिंसक प्रदर्शन, बसों को जलाए जाना, पत्थरबाजी और जन-धन की हानि भी देखने को मिलेगी और इसका कारण नागरिकता संशोधन कानून का विरोध है। सामान्य चर्चा भी उग्र और सारहीन होती जा रही है। इसमें अपशब्दों का प्रयोग भी देखने को मिल रहा है। देश की राजधानी दिल्ली इसका विशिष्ट उदाहरण है जहां पर नागरिकता संशोधन कानून को लेकर पिछले एक माह से विरोध प्रदर्शन चल रहा है और अभी इसके समाप्त होने के आसार नहीं हैं।
दिल्ली के शाहीन बाग इलाके में सड़क पर धरने से लोगों को असुविधा हो रही है, यातायात ठप्प हो गया है और स्थानीय बाजार में दुकानें बंद हैं और सरकार का आरोप है कि इस विरोध के पीछे कांग्रेस का हाथ है जिससे वह अपने संकीर्ण राजनीतिक हित साधना चाहती है। देश में उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम कहीं भी जाओ सर्वत्र विरोध प्रदर्शन देखने को मिल रहे हैं। कोई भी दिना बिना हड़ताल के नहीं गुजरता है। मोहल्ला, जिला या राज्य कहीं न कहीं धरने प्रदर्शन और बंद देखने को मिलते हैं और अब लोग इसे अपनी मानसिकता का हिस्सा मानने लग गए हैं और इसे एक छुट्टी के रूप में लेते हैं। हालांकि विभिन्न न्यायालयों ने इस पर प्रतिबंध लगाने के आदेश दिए हैं।
भारत में विरोध प्रदर्शन दैनिक जीवन का हिस्सा बन गए हैं। इससे प्रश्न उठता है कि हमारे प्रतिनिधिक लोकतंत्र के कार्यकरण में उनकी क्या भूमिका है। क्या वे अभियक्ति की स्वतंत्रता है। या वास्तव में मौलिक अधिकारों का दमन है। विरोध प्रदर्शनकारी इस सीमा तक क्यों बढ़ जाते हैं। क्या इनके कारण वैध होते हैं? क्या राज्य अन्याय या अतार्किक है? क्या सड़क पर धरना देना नए भारत में विरोध प्रदर्शन करने का नया व्याकरण बनेगा, क्या यह विरोध प्रदर्शन का नया तरीका है या अपने संगठन को एकजुट रखने और उसे अप्रसांगिक बनने से रोकने का प्रयास है? या ये विशुद्ध राजनीति है?
एक समय था कि जब विरोध प्रदर्शन के लिए कई दिनों और महीनों की तैयारी करनी पड़ती थी किंतु आज के डिजिटल मीडिया मे विरोध प्रद्रर्शन तुरंत आयोजित हो जाते हैं। आपको ध्यान होगा कि निर्भया मामले में लोग एसएमएस के द्वारा एकजुट हो गए थे या संप्रग -2 के दौरन भ्रष्टाचार के दौरान लोग सोशल मीडिया के माध्यम से तुरंत एकजुट हो गए थे। परंपरागत विरोध प्रदर्शन की पहचान करना आसान था क्योंकि इसके पीछे कोई उद्देश्य होता था। किंतु आज इसमें ऐसे लोग भी शामिल हो जाते हैं जिसका विरोध प्रदर्शन से कोई लेना-देना नहीं होता है और विरोध प्रदर्शन फैशनेबल बन गया है। कुछ लोग इन विरोध प्रदर्शनों को सब चलता है कहकर नकार देते हैं और कुछ लोग कहते हैं कि ‘की फरक पैंदा’ है। लोकमान्य तिलक के स्वराज्य मेरा जन्म सिद्ध अधिकार से लेकर विरोध प्रदर्शन मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है तक भारत ने एक लंबी यात्रा तय कर है और आज समाज का हर दूसरा वर्ग विरोध प्रदर्शन के लिए तत्पर रहता है। 2009 से 2014 के बीच में विरोध प्रदर्शनों में 55 प्रतिशत की वृद्धि हुई। देश में प्रतिदिन लगभग 200 विरोध प्रदर्शन होते हैं और अधिक साक्षर राज्यों में इनकी संख्या अधिक है। इन पांच वर्षों में 42 हजार विरोध प्रदर्शन हुए। सबसे अधिक विरोध प्रदर्शन छात्र संगठनों ने किए हैं जिनकी संख्या मे 148 प्रतिशत, सांप्रदायिक विरोध प्रदर्शनों में 92 प्रतिशत, सरकारी कर्मचारियों के विरोध प्रर्दशनों में 71 प्रतिशत, राजनीतिक विरोध प्रदर्शनों में 42 प्रतिशत और मजदूरों के विरोध प्रदर्शनों में 38 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। राजनीतिक दल और उनके सहयोगी संगठनों द्वारा विरोध प्रदर्शन का हिस्सा 32 प्रतिशत है और यदि इसमें उनके छात्र निकायों और श्रम संगठनों को भी जोड़ दिया जाए तो वह 50 प्रतिशत तक पहुंच जाता है। कर्नाटक में सर्वाधिक 12 प्रतिशत विरोध प्रदर्शन हुए और तमिलनाडू, पंजाब, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में मिलाकर 50 प्रतिशत विरोध प्रदर्शन हुए। अल्प विकसित उत्तर प्रदेश और बिहार में वर्ष 2009-2014 के दौरान 1 प्रतिशत से भी कम विरोध प्रदर्शन हुए जबकि इन दोनों राज्यों की जनसंख्या भारत की जनसंख्या का 25 प्रतिशत है। पूर्वोत्तर में असम में सर्वाधिक 17357 विरोध प्रदर्शन हुए।
जब तक विरोध प्रदर्शनकारियों के पास उचित विकल्प न हो तब तक विरोध प्रदर्शन से अव्यवस्था और भीड़ द्वारा हिंसा ही पैदा होती है। फलत: मानव जीवन, अर्थव्यवस्था और कारोबार को नुकसान पहुंचता है। राज्य व्यवस्था पंगु होती है, कारपोरेट और उद्योगों को ब्लैकमेल किया जाता है और लोगों को असुविधाएं पैदा होती हैं। धन का प्रवाह रूकता है और निवेशक भागते हैं और खुद विरोध प्रदर्शनकारी की रोजी-रोटी खतरे में आती है। इस संबंध मे हमें अमरीकी कानून से सबक लेना चाहिए जहां पर राजमार्ग या उसके निकट सार्वजनिक भाषण देने का कोई संवैधानिक अधिकार नहीं है ताकि भीड़ के एकत्र होने से राजमार्ग बाधित न हो। एकत्र होने के अधिकार का प्रयोग इस तरह करना होता है जिससे अन्य कानूनी अधिकारों, हितों और लोगों तथा लोक व्यवस्था के लिए असुविधा पैदा न हो। ब्रिटेन में लोक व्यवस्था अधिनियम 1935 के अंतर्गत किसी व्यक्ति द्वारा वर्दी में विरोध प्रदर्शन एक अपराध है। अपराध निवारण अधिनियम 1953 में बिना कानूनी स्वीकृति के सार्वजनिक स्थान पर हथियार ले जाना एक अपराध है। इसी तरह संसद के सत्र के दौरान वेस्टमिंस्टर हाल के एक किमी के दायरे में 50 से अधिक व्यक्तियों की बैठक नहीं की जा सकती है।
शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन पर कोई आपत्ति नहीं है किंतु बिना किसी विश्वसनीय राजनीतिक लक्ष्य के अनंतकाल तक विरोध प्रदर्शन से भारतीय लोकतंत्र की वैधता को ही नजरंदाज किया जाता है क्योंकि ऐसे विरोध प्रदर्शनों में कोई उचित विकल्प नहीं सुझाया जाता है। केवल अव्यवस्था और विरोध प्रदर्शनकारियों का दमन देखने को मिलता है। यह संदेश दिया जाना चाहिए कि कोई भी व्यक्ति या समूह हिंसा की धमकी नहीं दे सकता है और यदि वह ऐसा करता है तो उसकी सुनवाई का लोकतांत्रिक अधिकार समाप्त हो जाएग। भविष्य के लिए स्पष्ट है कि विरोध प्रदर्शन में दादागिरी बंद की जानी चाहिए और विरोध प्रदर्शन के समीकरण बदले जाने चाहिए और उसके स्थान पर एक नया सामाजिक करार होना चाहिए। नागरिकों के अधिकार सर्वोपरि हैं। हमें इस प्रश्न पर ध्यान देना चाहिए: क्या हम विरोध प्रदर्शन वहन कर सकते हैं? इसका कारण और उद्देश्य दूर की बातें हैं। कभी न कभी हमे आगे आकर यह कहना पडेगा: बंद करो ये नाटक।

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