वरी! अज्ज काल दा मुंह काला होया

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यह गांव बड़ा सौभाग्यशाली है, जहां डेरा सच्चा सौदा (Dera Sacha Sauda) की तीनों पातशाहियों ने विराजमान होकर गांव की आबोहवा को रूहानी ताजगी से महकाया है। निरंकारपुर धाम में खुशियां बिखेरते तेरावास के चौबारे में आज भी वह छोटी सी खिड़की कायम है, जो बरामदे के ऊपरी हिस्से में खुलती है। बताते हैं कि पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज के बाद पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज भी इस खिड़की से निकलकर बरामदे पर बाहर आते थे। एक बार जब पूज्य हजूर पिता जी दरबार में पधारे तो एक सेवादार ने वह दिलचस्प किस्सा कह सुनाया।

उसी क्षण पूज्य गुरु जी भी उस खिड़की में से निकलकर बाहर बरामदे पर पहुंचे तो यह देखकर सेवादारों की खुशी का कोई ठिकाना न रहा। ऐसी ही रोचकताओं से परिपूर्ण इस शाही दरबार की महिमा आज दूर-दराज के गांवों में भी अद्ब-सत्कार से सुनाई जाती है। देशभक्ति में भी इस गांव का कोई सानी नहीं है। आजाद हिंद फौज के स्वतंत्रता सेनानी श्री निरंजन सिंह, श्री हरचंद सिंह शेरगिल व श्री गुरदयाल सिंह की कुर्बानी गांव के युवाओं के लिए प्रेरणा बनी हुई है।

‘सारी संगत को यहीं पर रोक दो, कोई हमारे पीछे न आए।’ शहनशाही मुखारबिंद से यह जोशीला संवाद सुनते ही हर किसी के पांव जहां थे वहीं जम गए। संगत से आ रही आवाजें भी एकाएक खामोशी में तबदील हो गई। चारों तरफ सन्नाटा सा पसर गया। मानो एक बारगी सब कुछ थम सा गया हो, लोग बुत की मानिंद एक-दूसरे को डरे-सहमे से निहारने लगे। उधर पूज्य सार्इं जी अपनी डंगोरी से खनखनाहट की आवाजें करते हुए आगे की ओर बढ़ने लगे। यह वाक्या सन् 1956 का है।

सर्द मौसम था, उस दिन सोनीपत में साइकिल कारखाने में अभी सत्संग खत्म ही हुआ था, जिसे सुनने के लिए बड़ी संख्या में संगत पहुंची हुई थी। सत्संग में बेशुमार रूहानी प्यार पाकर भी सत्संगियों का दिल नहीं भर रहा था, इसलिए दर्शनों की और लालसा के वशीभूत होकर वे पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज के पीछे-पीछे चले आ रहे थे। पूज्य सार्इं जी ज्यों ही सत्संग पंडाल से बाहर घूमने के लिए निकले तो संगत भी रैला बनकर पीछे-पीछे दौड़ने लगी। यह देखकर शहनशाह जी ने कड़क अंदाज में वचन फरमाए तो सभी आवाक से रह गए।

उस दिन लक्कड़वाली के पांच सत्संगी भी वहां पहुंचे हुए थे, जो पूज्य सार्इं जी का यह अंदाज देखकर चौंक गए, क्योंकि उनके मन में ख्याल था कि किसी तरह गुरु जी के पास पहुंचकर अपने दिल की बात कहेंगे। पहरेदारों द्वारा रोकने के बावजूद भी सरबन सिंह, पूर्ण सिंह, बोघा सिंह, अर्जन सिंह नेहरु और लेखराज छुपते-छुपाते पूज्य सार्इं जी के पास पहुँच ही गए। पूज्य शहनशाह जी ने उनको पीछे आता देखकर सेवादार दादू पंजाबी को फरमाया, ‘भाई! इनको वापिस भेजो, ये हमारे पीछे क्यों आते हैं?’ यह सुनकर इन पांचों ने जोर-जोर से ‘धन धन सतगुरु तेरा ही आसरा’ के नारे लगाने शुरू कर दिए। पूज्य सार्इं जी के सामने करबद्ध खड़े होकर प्रार्थना करने लगे कि सार्इं जी! हम गाँव लक्कड़वाली से आए हैं।

हे सच्चे पातशाह जी! हमारे गाँव में भी एक डेरा बनाओ जी। शिष्यों की याचना में मार्मिकता इस कदर थी कि पूज्य सार्इं जी को उनकी बात सुननी ही पड़ी। वैसे संत-महात्मा से कुछ भी छुपा नहीं होता, वे इन्सान के भावों को भली-भांति महसूस कर लेते हैं। सत्संगियों की बात का मान रखते हुए पूज्य सार्इं जी ने मजाक के लहजे में फरमाया- ‘असीं निंदकों के गाँव में डेरा बनाकर क्या करना है? शाहपुर बेगू रोड पर डेरा सच्चा सौदा एक ही काफी है।’ शाही मुखारबिंद से ऐसे वचन सुनकर ये पांचों सत्संगी एक-दूसरे की ओर आश्चर्य की दृष्टि से देखने लगे। लेकिन प्रेमियों के मन में पूज्य सार्इं जी का प्यार हिलौरे मार रहा था, वैराग इस कदर उमड़ आया कि उनकी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। रूंधे गले से उन्होंने फिर अनुग्रह किया कि हे सतगुरु! हे शहनशाह जी! हे दिलों के जाननहार! ऐसा न करो जी। हे दातार जी! हमारे गाँव पर भी दया करो जी और एक डेरा बनाओ जी।

पूज्य सार्इं जी का कौतुक हर किसी के समझ में नहीं आता था, यह भी मौज का एक खेल ही था, जो सत्संगी भाई समझ नहीं पा रहे थे। पूज्य सार्इं जी ने उनको वचन किए, ‘पुट्टर! जाओ बनाओ डेरा तुहानंू मन्जूरी दे दित्ती, तुहाडा डेरा मन्जूर है।’ यह वचन सुनकर प्रेमियों की खुशी का ठिकाना न रहा। मानो उजड़े चमन में फिर से बहार आ गई हो। समुंद्र की मानिंद अचानक मिली इस बेअंत खुशी से झूम उठे, नाचते-गाते हुए अपने मुर्शिद का शुक्राना करने लगे। काफी देर तक खुशियों के गागर में नहाने के बाद उन्होंने फिर अर्ज की कि हे सार्इं जी! जब डेरा बनाने का हुक्म हो गया है तो डेरे का नाम भी रख दीजिए। यह बात सुनकर पूज्य सार्इं जी कुछ पल के लिए बिलकुल शान्त हो गए, ध्यानमुद्रा की तरह किसी ख्याल में खो से गए। फिर अचानक पवित्र मुखारबिन्द से वचन फरमाया, ‘भाई!

डेरे का नाम निरंकारपुर धाम रख दिया।’ उधर दोहरी खुशियां पाकर प्रेमियों के पांव जमीन पर नहीं टिक रहे थे। अपने मुर्शिद का जय-जयकार करते हुए एक-दूसरे को बधाई दे रहे थे। उन्होंने वापिस लकड्डांवाली आकर सभी गांववालों को बताया कि पूज्य सार्इं शाह मस्ताना जी महाराज ने गांव मेें डेरा बनाने की मन्जूरी दे दी है। यह बात जैसे-जैसे गांव में पहुंची तो मानो पूरा गांव ही मुर्शिद का शुक्राना अदा करने लगा। गांववासियों के लिए यह सुनहरी अवसर था, जो गांव से 278 किलोमीटर की दूरी पर बैठे पूज्य सार्इं जी ने सबके दिल की पुकार सुनते हुए गांव पर महापरोपकार किया। गांव में जल्द ही डेरा सच्चा सौदा का दरबार बनेगा, इस बात ने सबके दिलों में एक उत्सुकता पैदा कर दी। डेरा बनाने के लिए जगह को लेकर गांव में चर्चा जोरों-शोरों से शुरू हो गई।

जीवन के 65 बसंत देख चुके रामलाल इन्सां

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अपने सचखंडवासी चाचा सरबन सिंह व ताऊ पूर्ण सिंह की यादों को ताजा करते हुए बताते हैं कि उस समय गांव में डेरा बनाने के लिए जगह को लेकर कई दौर की बातचीत हुई। सबसे पहले रेलवे स्टेशन के पास जगह देखी गई, जिस पर सहमति नहीं बनी। गांव के कई लोगों ने अपने ख्याल अनुसार अलग-अलग दिशा में भूमि देने की बात कही लेकिन बात नहीं बन पाई। आखिरकार नम्बरदार सरदार भगवान सिंह ने गांव के दक्षिण दिशा में शामलाट भूमि पर डेरा बनाने का प्रस्ताव रखते हुए कहा कि यह सब की सांझी जमीन है।

गांव के अधिकतर लोग भी ऐसी सांझी जगह पर ही डेरा बनाना चाहते थे, ताकि बाद में कोई विवाद ना हो। प्रेमी इन्द्र सिंह ने उनकी बात का खुलकर समर्थन किया। जिसके बाद सारी संगत ने आपसी सहमति से उस जगह का चयन कर लिया, यह जगह करीब 3 एकड़ के करीब थी। हालांकि इस भूमि का काफी हिस्सा खाली पड़ा था जहां गांववासी हाड़ी-सावणी में अनाज इत्यादि फसलें निकालने के लिए पिड़(खलिहान)इत्यादि बनाते थे। सभी लोगों ने ‘धन धन सतगुरु तेरा ही आसरा’ का नारा लगाकर भूमि चयन की प्रक्रिया पूरी की। जगह चिन्हित होने के बाद सरबन सिंह सहित गांव के कई जिम्मेवार उसी दिन पैदल चलते हुए सरसा दरबार आ पहुंचे और पूज्य सार्इं जी के श्रीचरणों में अर्ज की कि बाबा जी, डेरा बनाने के लिए जगह तो ढूंढ ली है, हमें आगे का मार्गदर्शन करो जी।

पूज्य सार्इं जी अलमस्त फकीर थे, वे रूहानी मस्ती के सरूर में मदमस्त रहते थे। ज्यों ही इन सत्संगी भाईयों ने डेरा बनाने के बारे में बात की तो पूज्य सार्इं जी ने कड़क अंदाज में फरमाया- कोई डेरा-वेरा नहीं बनाना। क्या करना है इतने डेरों का। यह सुनकर सभी प्रेमी हक्का-बक्का रह गए कि बाबा जी तो मुकर गए, अब कैसे करें? तभी सरबन सिंह ने अर्ज की कि सार्इं जी, डेरा बनाओ या ना बनाओ यह तो आपजी की मर्जी है, लेकिन आपजी ने डेरा बनाने के लिए वचन किए हुए हैं। दयालु दातार जी ने प्रेमियों की मनोदशा को पढ़ते हुए फिर फरमाया- अच्छा वरी! अगर वचन हुए हैं तो डेरा जरूर बनेगा, तो बनाओ डेरा। डेरा बनाने की आज्ञा देते हुए यह वचन भी फरमाया कि पहले एक कच्चा कमरा बनाना है। तय समय अनुसार गांव की साध-संगत उसी जगह पर एकत्रित हो गई, जहां डेरा बनाया जाना निश्चित हुआ था। कुछ समय सुमिरन करने के बाद सेवादारों ने धन धन सतगुरु तेरा ही आसरा का नारा लगाकर एक गड्ढा खोदा और इंटें निकालने के लिए मिट्टी की घाणी बनानी शुरू कर दी।

उम्रदराज लोग बताते हैं कि उस दिन गांव में उत्सव सा माहौल था। गांव का नया इतिहास बनने जा रहा था, जिसको लेकर हर गांववासी ही अपनी भागीदारी सुनिश्चित करना चाह रहा था। हर कोई चाव व हौंसले से सेवाकार्य में जुटा हुआ था। काफी संख्या में सेवादार कच्ची र्इंटें बनाने में लगे हुए थे। कोई गारे की घाणी तैयार कर रहा था, तो कोई उसके लिए पानी का प्रबंध करने में जुटा था। मिस्त्री भाइयों ने बड़ी संख्या में कच्ची र्इंटें तैयार कर ली तो निर्माण कार्य भी शुरू करने का वक्त आ गया। शहनशाही वचनों के अनुसार संगत ने दरबार के करीब मध्य एरिया में एक कमरे की नींव रखी और उसकी उसारी का कार्य शुरू कर दिया।

तेरा वास बनाने के लिए रेलगाड़ी से लाई गई थी ईंटें

80 वर्षीय रामलाल बताते हैं कि संगत के लिए यह काम कोई बड़ा नहीं था। कुछ ही दिनों में कच्ची र्इंटें तैयार करते हुए एक कच्चा कमरा व बरामदा तैयार कर दिया। वहीं डेरा की बाहरी परिधि पर कांटेनुमा बाड़ बनाई गई, ताकि खुले में घूमने वाले खुंखार जानवरों से बचाव हो सके। वे बताते हैं कि तब गुफा (तेरा वास) भी बनाई गई जिसकी दीवार भी कच्ची र्इंटों से निकाली गई थी। उसी तेरावास वाले कमरे पर एक चौबारा बनाया गया जिसके अंदर की दीवार में कच्ची र्इंटें तथा बाहर की तरफ पक्की र्इंटें लगाई गई। उन दिनों गांव में पक्की र्इंटों का भट्ठा नहीं था, इसलिए रामांमंडी से पक्की र्इंटें लाई गई। खास बात यह भी रही कि उस समय इन र्इंटों को रेलगाड़ी के द्वारा लक्कड़ांवाली लाया गया। राम लाल बताते हैं कि इन पक्की र्इंटों को बोरों में भरकर रेल में रखा जाता और यहां उन बोरों को उतार लिया जाता। इस प्रकार गुफा बनाने का कार्य बड़े अनूठे ढंग से चल रहा था। इस चौबारे के दो दरवाजे रखे गए, एक दरवाजे को बाहर की तरफ से पक्की पैड़ी चढ़ा दी गई, वहीं बरामदे के ऊपर से अलग पैड़ी बनाई गई।

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ऊपर से सारे मकान की छत एक बना दी गई। सत्संगी बताते हैं कि किसी समय में यह जगह कब्रिस्तान के रूप में उपयोग होती थी, लेकिन समय के अंतराल पर इसको समतल बना दिया गया। खैर साध-संगत के आपसी प्रेम व लगन से डेरे का प्रांगण तेरावास, बरामदे व ऊपर बने चौबारे से खिलखिला उठा। गांव की माताएं-बहनें मंगलगीत गा रही थी, सेवादार भाई गांव के इस नए गौरव को भली-भांति महसूस कर रहे थे, क्योंकि अब गांव के नाम के साथ डेरा सच्चा सौदा का नाम जुड़ गया था। डेरा बनाकर गांववाले सरसा दरबार पहुंचे और पूज्य सार्इं जी से दरबार में सत्संग लगाने और अपने पावन चरण टिकाने की अर्ज की। इस पर सार्इं जी ने फरमाया- आपके सत्संग तो फिर करेंगे, पहले तुम जाकर गुरु-गुरु करो। वापिस आकर सत्संगी भाइयों ने नामचर्चा का आयोजन करने का फैसला लिया।

इसको लेकर बड़ा प्रचार किया गया, जिसके परिणामस्वरूप नामचर्चा में उस समय बड़ी संख्या में संगत पहुंची और सबको खीर, हलवा खिलाया गया। फिर जब गांव के मौजिज लोग दोबारा सरसा दरबार पहुंचे तो पूज्य सार्इं जी ने पूछा- ‘कैसे हुआ वरी गुरु गुरु!!’ सार्इं जी, राम नाम की खूब चर्चा हुई। बाबा जी, सब बल्ले-बल्ले हो गई। ‘वाह भई वाह! ऐसे ही चला करेगा।’ पूज्य सार्इं शाह मस्ताना जी महाराज ने मौज खुशी में आकर अपने नूरानी मुख से वचन फरमाया, ‘बई! काल का मुँह काला हुआ।’ संगत ने अर्ज कि ‘हे सार्इं जी! आपकी अपार दया मेहर से डेरा बन कर तैयार हो चुका है। अपने चरण-कमलों से उसे पवित्र करें। निरंकार पुर धाम में सत्संग मन्जूर करें जी। सत्संगियों की इस अर्ज के साथ ही पूज्य सार्इं जी ने लक्कड़ांवाली का सत्संग भी मंजूर कर दिया।

उस दिन भौर फटते ही गांव में सुगबुगाहट सी शुरू हो गई थी, चारों ओर वातावरण में एक अजीब सी उमंग दिखाई दे रही थी, दरअसल यही वो दिन था, जो पूज्य सार्इं शाह मस्ताना जी महाराज ने गांव में सत्संग के लिए मुकर्र किया था। अप्रैल 1957 की बात है, सारी संगत अपने दयालु दातार जी का बड़ी बेसब्री से इन्तजार कर रही थी। समय की चलती सुई के साथ संगत के दिलों की धड़कन भी तेज होती जा रही थी। तभी दूर से शाही काफिला आता दिखाई दिया तो साध-संगत ने ‘धन धन सतगुरु तेरा ही आसरा’ के नारों से जमीन-आसमान को गूंजा दिया। ढोल की थाप पर प्रेमी नाच रहे थे, बहनें अपने मुर्शिद के स्वागत में मंगलगीत गाए जा रही थी।

Dera-Sacha-Sauda

हर चेहरे पर खुशी की लालिमा उमड़ रही थी। पूज्य सार्इं जी ने जब डेरा निरंकारपुर धाम में अपने चरण कमल टिकाए तोे मानो पूरी कायनात ही खुशी में झूृम उठी हो। संगत की खुशियों का कोई ठिकाना न रहा। हर कोई पूज्य सार्इं जी को साक्षात् पाकर अपने आप को धन्य पा रहा था। जब पूज्य सार्इं जी दरबार में शाही स्टेज पर विराजमान हुए तब संगत थोड़ा शांत हुई। पूज्य सार्इं जी ने दरबार में चले सेवाकार्य पर अपनी दया-दृष्टि घुमाई तो बड़ी प्रसन्नता जताते हुए सेवादारों को भरपूर प्यार दिया। पूज्य सार्इं जी ने फरमाया, ‘प्यारी साध-संगत जी! आपके गाँव से पाँच प्रेमी सोनीपत सत्संग में हमारे पास पहुँचे थे। इन्होंने गाँव में डेरा बनाने की मांग रखी थी जो पूज्य हजूर बाबा सावण शाह जी महाराज की अपार दया-मेहर से डेरा मन्जूर करवाया है।

इस डेरे को दुनिया युगों-युग पूजेगी।’

तदोपरांत सत्संग शुरू हुआ, तो काफी कविराज भाइयों ने शब्दों के द्वारा गुरु महिमा गाई। 90 वर्षीय हुकुम चंद बताते हैं कि उस दिन पूज्य सार्इं जी कालांवाली से रामामंडी होते हुए गदराना पहुंचे थे, उसके बाद यहां आश्रम में पधारे थे। उस दिन करीब डेढ़ घंटा सत्संग चला। पूज्य सार्इं जी ने लोगों को रामनाम से जुड़ने का आह्वान किया और सरल एवं सफल जीवन जीने के लिए प्रेरित किया। बताते हैं कि उस दिन खेल भी करवाए गए थे। 85 वर्षीय शांति देवी बताती हैं कि पूज्य सार्इं जी पहली बार जब आश्रम में पधारे तो 3 दिन यहीं पर विराजमान रहे। इसके उपरांत भी पूज्य सार्इं जी 3-4 बार यहां आए थे और हर बार संगत को बेशुमार खुशियां लुटाई थी।

जब संगत ने थड़े के लगाए 7 फेरे, पूज्य सार्इं जी ने कर दिए वारे न्यारे

एक बार पूज्य सार्इं जी गांव में पधारे हुए थे। उस समय कई दिनों तक यहां रहमतें लुटाते रहे। दिन में संगत सेवा करती और ज्यों ही दिन ढलता तो भजन संध्या शुरू हो जाती। पूज्य सार्इं जी की रहनुमाई में पूरी रात भजन, कव्वालियां चलती रहती और संगत खुशी में झूम-झूम कर नाचती।

रामलाल बताते हैं कि पूज्य सार्इं जी के चोज बड़े निराले थे। बुजुुर्गों के खेल करवाते, कभी कुश्ती तो कभी दौड़ लगवाई जाती। रात को रूहानी मजलिस इस कदर सजती कि सुबह होने का भी पता नहीं चलता था। उस रात एक कविराज ने भजन सुनाया..शाह मस्ताना मेरी रंग दे चुनरिया, ऐसी रंग दे चुनरिया, धोबी धोवे सारी उम्रिया…। ऐसे भजनों पर संगत खूब नाचती थी। डेरा में एक थड़ा भी बनाया हुआ था, जिस पर विराजमान होकर पूज्य सार्इं जी सत्संग लगाते। उस दिन पूज्य सार्इं जी ने रूहानी खजाना लुटाना शुरू किया तो सबको मालामाल कर दिया। पूज्य सार्इं जी ने संगत को वचन फरमाया, ‘डेरे के बीच में जो थड़ा है सारी संगत उसके चारों तरफ चक्कर लगाए।

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’ हुक्म होते ही संगत ने पहला चक्कर लगाया तो दयालु दातार जी ने वचन किए, ‘भाई इस गाँव के कुते भी नरकों में नहीं जाएंगे।’ दूसरे चक्कर पर फरमाया, ‘यहाँ की भैंसें, गायें भी तर गई।’ फिर एक के बाद एक चक्कर लगता रहा और धुरधाम से इलाही हुक्म बजता रहा कि, ‘इनका दूध पीने वाले भी तर गए।’ चौथे चक्कर पर वचन हुआ कि ‘तुम्हारे दादे भी तर गए।’ पांचवां वचन हुआ कि, ‘तुम्हारे परदादे भी तर गए।’ छट्ठे चक्कर में अमृतमई वचन फरमाए कि, ‘तुम्हारे पड़ौसी भी तर गए।’ जब संगत ने सातवां चक्कर लगाया तो बेपरवाह जी ने वचन किए, ‘मस्ताना सेवादारी भी तुम्हारे नाल चले।’ पूज्य सार्इं जी ने संगत पर इतनी रहमतें लुटाने के बाद सेवादार दादू पंजाबी व गोबिन्द माली को डांटते हुए वचन किए, ‘असीं सावणशाह सार्इं जी का अनामी खजाना ऐवें फिजूल में लुटा दित्ता, तुसीं सानूँ रोक्या क्यों ना?’ इस पर सेवादार बोले, ‘हे सार्इं दातार जी, आप खुद-खुदा कुल मालिक होे। आपको रोकने की ताकत किस में है? पूज्य सार्इं जी ने पूरे गांव के कष्टों को पलों में हर लिया। लेकिन पूज्य सार्इं जी को कुछ समय बाद ही 104 डिग्री बुखार हो गया, शायद यह संगत के कष्टों का भुगतान था, जो शहनशाह जी हाथों हाथ ही पूरा कर रहे थे।

‘निकल्या रे भाईया जी, बाहर निकल्या हमें भी दर्शन दवो रे…!

पूज्य सार्इं जी उस दिन लक्कड़ांवाली के निरंकारपुर धाम में ही विराजमान थे। बिलोचिस्तान से लगभग 10 सत्संगी भाई जिनमें मग्घुराम, उत्तमचन्द, बिशुचन्द और रामा चन्द (पूजनीय मस्ताना जी महाराज के भान्जे) भी शामिल थे, ये सब लोग लक्कड़ांवाली गांव पहुंचे। जब ये लोग सुखचैन गांव के रेलवे स्टेशन पर उतरे तो वहां से ही इन्होंने ऊंची-ऊंची आवाज में भजन-कीर्तन शुरू कर दिया और अपने सार्इं जी की उपमा गाते हुए पैदल ही आ रहे थे। यह सुनकर गांव के लोग भी उनको देखने के लिए गली-मोहल्ले के नुक्कड़ों पर आकर जमा हो गए। ये लोग इसी तरह नाचते-गाते हुए आश्रम आ पहुंचे।

सेवादारों ने भी उनका बड़ा आदर-सत्कार किया। उनको लंगर खिलाया गया। उन्होंने सेवादारों से पूजनीय शहनशाह मस्ताना जी महाराज से मिलने की इच्छा प्रकट की। इस पर दादू पंजाबी ने जवाब दिया कि पूज्य सार्इं जी तो इस समय आराम फरमा रहे हैं। अभी आपको दर्शन नहीं हो सकते। यह सुनकर उनके मन में थोड़ी मायुसी छा गई, लेकिन अगले ही पल उन्होंने जोर-शोर से नारा लगाया और अपनी ठेठ बिलोचिस्तानी भाषा में कहने लगे ‘निकल्या रे भाईया जी, बाहर निकल्या हमें भी दर्शन दवो रे भाईया बाहर निकल्या। बिलोचिस्तान तुम्हारे बिना सुन्ना पड़ा है।’ कहते हैं कि सच्चे दिल की पुकार कभी खाली नहीं जाती। ऐसा ही हुआ, उन भाइयों की पुकार सुनकर पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज ने दरवाजा खोला और पैड़ी पर उतर आए।

उनको अपने वचनों व दर्शनों से खूब निहाल किया। शिष्य के लिए मुर्शिद का दीदार ही सब कुछ होता है, उन्होंने नाच-नाच कर अपनी खुशी को प्रकट किया व मौज के सामने बिलोचिस्तानी मुजरा किया। शहनशाह जी यह देखकर बड़े प्रसन्न हुए और बिलोचिस्तानियों की तरफ इशारा करते हुए फरमाया, ‘वरी! ताकत ने चिरकाल से बिछुड़ी हुई रूहों (दादू पंजाबी व पलटू जी) को मौज ने पकड़ा है।’ यह वचन करके शहनशाह जी ने सारे दरबार का चक्कर लगाया और पौड़ी चढ़कर बरामदे की छत पर आ गये। सारी साध-संगत नीचे खड़ी थी, संगत में सेवादार गोबिन्द माली (जिसने बाबा सावण सिंह महाराज से नाम-दान प्राप्त किया हुआ था) दादू पंजाबी व गाँव के नम्बरदार भगवान सिंह भी खड़े थे।

पूज्य सार्इं जी की झिड़क ने दिलाई सरपंच की कुर्सी

सोनीपत में एक दिन बाबा जी सत्संग करने के बाद पंडाल से बाहर आ रहे थे, सर्दी का मौसम था। बाबा जी को आता देखकर ताया पूर्ण सिंह अपने ऊपर ओढ़ी खेस (लोईनुमा) से रास्ते को साफ करने लगा। यह देखकर पूज्य सार्इं जी आवेश में आ गए, और दादू को कहा- हटाओ इसको यहां से, दो डंडे जड़ो इसको, पाखंड करता है। सेवादार ने पूर्ण सिंह को वहां से हटा दिया। इसी दरिमयान पूज्य सार्इं जी ने थोड़ा आगे चलकर फिर वचन फरमाया- अच्छा बेटा, तुझे कुर्सी मिलेगी, यह आशीर्वाद देते हुए पूज्य सार्इं जी आगे निकल गए। रामलाल बताते हैं कि पूर्ण सिंह की डेरा सच्चा सौदा में आस्था बड़ी अटूट थी। पूज्य सार्इं जी के आशीर्वाद से पूर्ण सिंह को गांववालों ने सरपंच बना दिया। उन्होंने दो कार्यकाल तक यह सरपंची का दायित्व निभाया।

पूजनीय परमपिता जी के पावन सान्निध्य में और निखरा निरंकारपुर धाम

पूज्य सार्इं जी के हुक्म से बना डेरा सच्चा सौदा निरंकारपुर धाम को दूसरी पातशाही पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज के समय में नया निखार मिला। आश्रम निर्माण के समय पिछली साइड की दीवार निकाली गई थी, जो कच्ची र्इंटों की बनी थी। बाकि दीवारों की जगह कांटेधार झाड़ियों से बाड़ की गई थी। उस समय तक आश्रम का मुख्य गेट भी नहीं बना था।

बताते हैं कि सन् 1965 में पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज ने डेरा सच्चा सौदा निरंकारपुर धाम में सेवा व डेरे की सम्भाल करने के लिए सेवादार दादू पंजाबी की ड्यूटी लगाई। पूजनीय परमपिता जी ने फरमाया, ‘जा भाई! डेरे की सम्भाल कर उसमें दोनों वक्त झाडू लगाना और आई हुई साध-संगत से प्रेम करना व नाम जपना।’ बताते हैं कि दादू पंजाबी ने काफी समय तक इस दरबार में बड़ी शिद्दत से अपनी ड्यूटी निभाई। पूजनीय परमपिता जी कई बार लक्कड़ंवाली गांव में पधारे। वैसे भी पूजनीय परमपिता जी का इस गांव से गहरा लगाव रहा है। पूजनीय परमपिता जी जब भी निरंकारपुर धाम में पधारते तो गांव की संगत उमड़ी चली आती, बड़ी खुशी मनाती।

एक बार पूजनीय परमपिता जी आश्रम में पधारे हुए थे, सेवादार दादू पंजाबी ने विनती की कि पिताजी डेरे के चार दीवारी नहीं है आप दया मेहर करो जी। इस पर परमपिता जी ने फरमाया, ‘डेरे की चारदीवारी निकलवाएंगे। किसी मिस्त्री से राय लेकर काम करवाएंगे।’ दादू पंजाबी एक मिस्त्री के पास गया और पूछा कि डेरे का मुख्य गेट बनाना है, जिसमें थम्म (पिलरनुमा) निकालने होंगे। बताओ कितना सामान लगेगा? इस पर मिस्त्री ने कहा कि इस गेट को बनाने में 35 गट्टे (बैग) सीमेन्ट, बजरी व सरिया का अनुमान लगाकर बताया। सेवादार दादू भाई वापिस आकर पूजनीय परमपिता जी को बताने लगा कि मिस्त्री ने तो इतना सामान बताया है जी।

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पूजनीय परमपिता जी ने उसकी बात सुनकर मजाकिया लहेजे में फरमाया, ‘आपां तां चार गट्टे सीमेन्ट दे लावांगे।’ पूजनीय परमपिता जी की पावन नजरसानी में मुख्य गेट बनाने का सेवा कार्य शुरू हो गया। शाही वचनानुसार केवल चार गट्टे सीमेन्ट, कुछ बजरी व सरिये द्वारा थम्म निकालकर गेट तैयार करवा दिया गया। इस बात की गवाही आज भी पूरा गांव भरता है। गांववाले बताते हैं कि पूजनीय परमपिता जी द्वारा सेवादारों को विशेष हिदायत देकर यह मुख्य गेट बनवाया गया था। इसके बाद मुख्यगेट के दोनों ओर व गांव की साइड वाली दीवार को भी पक्का करवाया। इस निर्माण कार्य से दरबार की आभा और भी निखर आई। मिट्ठू सिंह बताते हैं कि उस दिन पूजनीय परमपिता जी कमरे की छत पर कुर्सी लगाकर विराजमान थे। खास बात यह भी थी कि उस दिन पूजनीय परमपिता जी ने दस्तार सजाई हुई थी, जिसमें बड़े सुंदर लग रहे थे। छत पर संगत को नामदान भी दिया, जिसमें मैंने भी गुरुमंत्र लिया था।

असीं चाहिए तां हर प्रेमी दा घर हुणे ही सोने दा बना देइये

प्रेमी मिट्ठू सिंह बताते हैं कि एक बार गांव में कथावाचक बलवंत सिंह टांडेयाला आया था, जिसको आंखों से बिलकुल भी दिखाई नहीं देता था। उसकी क्षेत्र में बड़ी मान्यता थी। जब उसको पता चला कि डेरा सच्चा सौदा के पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज की साहिबजादी का यहां ससुराल है तो उसने बहन जगजीत कौर के परिवार को अपने पास बुलाया और अर्ज की कि उसे भी पूजनीय परमपिता जी से मिलना है। बहन जी ने सभी जिम्मेवार सेवादारों से इस बारे में राय-मशवरा किया तो सभी कहने लगे कि इस बारे में तो सरसा दरबार जाकर बात करने पर ही कुछ कहा जा सकता है। सभी लोग सरसा दरबार पहुंचे, बहन जगजीत कौर जी भी साथ ही थे।

उस समय परमपिता जी दरबार में टहल रहे थे। बहन जगजीत कौर ने परमपिता जी से अर्ज की कि दातार जी, बलवंत सिंह टांडेयाल अपने आप को संत कहलाता है, लेकिन वह आपजी से मिलने का इच्छुक है। इस पर परमपिता जी ने फरमाया- यह सब काल के एजेंट हैं। उसने सोने की अंगूठियां पहनी हुई थी क्या? सबने हां में सिर हिला दिया। फिर फरमाया- उसने सोने की जूती पहनी हुई है, सोने के दांत लगे हैं। हां जी। बेटा, इससे तो पहले भी मिले हैं।

परमपिता जी ने एकदम से हाथ उठाकर कड़क आवाज में फरमाया-अगर हम चाहें तो सार्इं मस्ताना जी के हुक्म से, इक-इक सत्संगी का घर सोने का बना दें। इस प्र्रकार पूजनीय परमपिता जी ने उसे लेकर आने की आज्ञा दे दी। बाद में बलवंत सिंह सरसा दरबार आया और पूजनीय परमपिता जी से मुलाकात। परमपिता जी के हुक्म से उसको पूरे दरबार का भ्रमण भी करवाया गया।

 भोलेया, साडा ना लैणा सी

बात उन दिनों की है, जब डेरा सच्चा सौदा निरंकारपुर धाम का मुख्य द्वार बनाने की सेवा चल रही थी, पूजनीय परमपिता जी की पावन हजूरी में यह सेवाकार्य चल रहा था। जब दरबार का गेट बनकर तैयार हो गया तो पूजनीय परमपिता जी ने जिम्मेवार सेवादार को आदेश देते हुए फरमाया कि चिनाई मिस्त्रियों को उनकी दिहाड़ी देकर ओढां तक छोड़ आना। क्योंकि वे मिस्त्री भाई पंजाब साइड से आए हुए थे। सत्वचन कहते हुए सेवादार भाई उन मिस्त्रियों के पास गया और उनकी मजदूरी के पैसे देने लगा, लेकिन उन्होंने वे पैसे लेने से साफ मना कर दिया। सेवादार जब पूजनीय परमपिता जी के पास वापिस आया तो पूछा- ‘भई, उनको दिहाड़ी दे दी ना।’ नहीं पिता जी, उन्होंने पैसे लेने से मना कर दिया। परमपिता जी ने फरमाया- ‘भोलैया साडा ना लेणा सीं।’ सेवादार फिर दौड़ा और उन मिस्त्री भाइयों के पास जाकर कहने लगा कि आपको दिहाड़ी के पैसे लेने ही पड़ेंगे, पूजनीय परमपिता जी ने कहा है। यह सुनकर उन भाइयों ने झट से पैसे पकड़ लिये और अपने सतगुरु का शुक्राना करते हुए अपने गांव की ओर रवाना हो गए।

 तीनों पातशाहियां एक ही रूप हैं!

एक बार पूज्य हजूर पिता संत डॉ. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां गांव में नम्बरदार परिवार के किसी खास कार्यक्रम में पहुंचे हुए थे। संगत भी दर्शनों को लालायित थी। सेवादार भाई भी वहीं एकत्रित थे। पूज्य गुरु जी चौबारे में विराजमान थे, सभी सेवादार एकत्रित होकर सामूहिक रूप से माफी मांगने लगे। पूज्य पिता जी ने पूछा- ‘भई किस चीज दी माफी मंगदे हो?’ कहने लगे कि पिता जी, कुछ लोग कह देते हैं कि जिसने शहनशाह मस्ताना जी से नामदान लिया हुआ है वे उनके स्वरूप को निहारा करें, कोई कहता है कि जिसने पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज से गुरुमंत्र लिया है, सुमिरन करते समय उनका स्वरूप देखना चाहिए। कोई आपजी के बारे में कह देता है। इस पर पूज्य गुरु जी ने वचन फरमाया- ‘बेटा, तीनों एक ही रूप हैं, जो मर्जी तक्को, खुली छुट्टी है।’ इस प्रकार पूज्य गुरु जी ने सेवादारों के मन में पैदा हुई शंका का निवारण किया।

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