संपादकीय : पर्यावरण संकट अमीर मुल्कों की देन

Environment
पर्यावरण आधारित विकास की पहल हो

खेती से जुड़ी हर गतिविधि को भारत में उत्सव के रूप में मनाने की परंपरा है। ऋतुओं के अनुसार खेती की वैज्ञानिक परंपरा भी है। अन्न से काबोर्हाइड्रेट, दालों से प्रोटीन, फल-सब्जियों से विटामिन सभी भारत की भोजन की थाली में मिलता है। और यह सब मेहनतकश किसानों द्वारा देश को उपलब्ध करवाया जाता है। उत्तम खेती, मध्यम व्यापार और नीच चाकरी (यानी नौकरी) ऐसी कहावत देश में प्रचलित रही है। किसान खेती में नयी-नयी खोजें करते हुए उत्पादन बढ़ाता रहा है। किसान की हालत कैसी भी रही हो, खेती को आज भी एक पवित्र व्यवसाय माना जाता है।

लेकिन, आजकल औद्योगिक कृषि के पैरोकार उसी जीवनदायिनी खाद्य एवं पौष्टिकतापूरक परंपरागत कृषि पर ही प्रश्न उठा रहे हैं। बागपत से लेकर ग्रेटर नोएडा तक के कोई एक सौ साठ गांवों में हर साल सैकड़ों लोग कैंसर से मर रहे हैं। सबसे ज्यादा लोगों को लीवर और आंत का कैंसर हुआ है। बाल गिरना, किडनी खराब होना, भूख कम लगना, जैसे रोग तो यहां हर घर में हैं। सरकार कुछ कर रही है, राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण भी कुछ नोटिस ले रहा है, लेकिन इलाके में खेतों में छिड़के जाने वाले जहर की बिक्री की मात्रा हर दिन बढ़ रही है। दुखद है कि अब नदियों के किनारे विष-मानव पनप रहे हैं, जो कथित विकास की कीमत चुकाते हुए असमय काल के गाल में समा रहे हैं।

वैश्विक कॉरपोरेट बिल गेट्स परंपरागत कृषि को पर्यावरण के लिए अत्यंत घातक बता रहे हैं। वे चाहते हैं कि कृषि के तौर-तरीकों में परिवर्तन किये जायें, ताकि पर्यावरण पर उसके दुष्प्रभाव को न्यूनतम किया जा सके। बिल गेट्स का सुझाव है कि ऐसे बीज, कीटनाशक, खरपतवार नाशक, इस्तेमाल किये जाएं, जिससे छोटे किसान ज्यादा से ज्यादा उपज ले सकें और आमदनी बढ़ा सकें। वे ज्यादा उपज के लिए जीएम फसलों, राउंडअप सरीखे खतरनाक खरपतवार नाशक और कीटनाशकों की वकालत करते हुए दिखाई देते हैं। पर्यावरणीय संकट से पार पाने के लिए जो उनका सुझाव कि छोटे किसान परंपरागत खेती और पशुपालन त्याग कर उनके सुझाये गये उपायों, बीजों, कीटनाशकों और खरपतवार नाशकों को अपनायें, यह किसी भी हालत में कल्याणकारी नहीं है।

लेकिन हमें समझना होगा कि दुनिया में पर्यावरण संकट अमीर मुल्कों द्वारा अत्यधिक ऊर्जा और वस्तुओं की खपत और उससे होनेवाले उत्सर्जन के कारण है। अंतरराष्ट्रीय बाजार गुणवत्ता, उपभोक्ता और प्रशोधन जैसे नारों पर खेती चाहता है, जबकि हमारी परंपरा धरती को माता और खेती की पूजा करने की रही है। हमारे पारंपरिक बीज, गोबर की खाद, नीम, गौमूत्र जैसे प्राकृतिक तत्त्वों के कीटनााशक शायद पहले से कम फसल दें, लेकिन यह तय है कि इनसे जहर नहीं उपजेगा। छोटे किसानों को दोषी मानकर गलत दिशा में कृषि को मोड़ना दुनिया के लिए भारी संकट का कारण बन सकता है।

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