बहस के दायरे में निर्वाचन आयोग

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पिछले दिनों में मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति प्रक्रिया के सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय की टिपण्णी को भले ही समाचार पत्रों में बहुत जगह न मिली हो, लेकिन देश की शीर्ष अदालत ने बिल्कुल सटीक बहस को शुरू किया है।

देश के हालिया मुख्य चुनाव आयुक्त रहे नसीम जैदी का कार्यकाल समाप्ति के पश्चात अचल कुमार जोती को नया मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्त किया गया है। यह बात राजनीतिक व प्रशासनिक विश्लेषकों के विमर्श में गंभीरता से उठनी चाहिए कि आखिर दुनियां के सबसे बड़े लोकतंत्र में चुनाव कराने का जिम्मा जिस संस्था के ऊपर है, उसकी नियुक्ति की कोई संवैधानिक प्रक्रिया क्यों नहीं है?

देश में सभी शीर्ष पदों पर नियुक्ति की एक विशेष प्रक्रिया है, चाहे वह राष्ट्रपति का पद हो, महालेखा परीक्षक हो या ऊपरी अदालतों के न्यायाधीश हों। परन्तु भारत में चुनाव आयुक्त की नियुक्ति प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल की अनुशंसा पर राष्ट्रपति के द्वारा ही की जाती है और तीन चुनाव आयुक्तों में से श्रेणी में वरिष्ठतम आयुक्त ही मुख्य चुनाव आयुक्त बनता है, लेकिन कई अवसरों पर इस परम्परा को तोड़ा भी गया।

दरअसल मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति से सम्बंधित एक विवाद 2009 में उस दौरान भी खड़ा हुआ था, जब लोकसभा चुनाव से ठीक पहले नवीन चावला की मुख्य निर्वाचन आयुक्त के रूप में नियुक्ति की गई थी, जबकि नवीन चावला के चुनाव आयुक्त होने के दौरान तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त एन गोपालस्वामी ने उन्हें पद से हटाने के सम्बन्ध में राष्ट्रपति को अनुशंसाएं की थी,

जिसे यूपीए सरकार के द्वारा नजर अंदाज कर दिया गया था और नवीन चावला को मुख्य निर्वाचन आयुक्त नियुक्त कर दिया गया। दरअसल एन गोपालस्वामी ने नवीन चावला पर आरोप लगाया था कि वे आयोग की बैठकों के दौरान गुप्त सूचनाओं को कांग्रेस को लीक करते हैं, लेकिन विडंबना यह है कि अभी तक नियुक्ति को लेकर किसी कानूनी फ्रेमवर्क को तैयार नहीं किया जा सका है।

जबकि वर्ष 1974 में ही तारकुंडे समिति ने सिफारिश की थी कि चुनाव आयुक्त की नियुक्ति प्रधानमंत्री, नेता विपक्ष लोकसभा तथा भारत के मुख्य न्यायाधीश की समिति द्वारा की जानी चाहिए।

इसी प्रश्न को पुन: जीवित करते हुए पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते समय सरकार से पूछा कि क्यों अभी तक मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति की कोई कानूनी प्रक्रिया निर्धारित नहीं की गई है?

जबकि संविधान में इस बात का उल्लेख है कि चुनाव आयुक्त व मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति कानून के द्वारा की जायेगी। यह प्रश्न इसलिए भी चर्चा में है, क्योंकि नवनियुक्त मुख्य चुनाव आयुक्त अचल कुमार जोती मोदी सरकार के दौरान गुजरात के मुख्य सचिव रह चुके हैं और सरकार पर अपने ही खेमे के लोगों को इस पद पर बैठाने का आरोप लग रहा है।

दरअसल चुनाव आयोग एक ऐसी संस्था है, जिसके ऊपर पूरे लोकतंत्र का विश्वास टिका रहता है। निष्पक्ष चुनाव संपन्न कराने का जिम्मा चुनाव आयोग पर ही होता है। ऐसे में इस संस्था का स्वयं निष्पक्ष एवं पारदर्शी होना बेहद जरूरी हो जाता है।

देश में सीबीआई प्रमुख एवं मुख्य सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति तक के सम्बन्ध में एक समिति होती है, जिसमें प्रधानमंत्री, गृहमंत्री सहित विपक्ष का नेता शामिल होता है और इस समिति की अनुशंसा पर राष्ट्रपति इनकी नियुक्ति करता है।

इसी तरह की समिति का प्रावधान चुनाव आयुक्त और मुख्य चुनाव आयुक्त के सम्बन्ध में भी होना चाहिए। हालांकि इतिहास को खंगाला जाए, तो अभी तक दागदार दामन किसी भी मुख्य चुनाव आयुक्त का नहीं रहा है, लेकिन आगे भी यही सिलसिला बना रहेगा, ऐसा नहीं कहा जा सकता। इसलिए एक स्थापित कानूनी फ्रेमवर्क का होना अत्यंत जरूरी है।

यद्यपि मुख्य चुनाव आयुक्त को पद से हटाये जाने के सम्बन्ध में महाभियोग के समान ही प्रक्रिया है, जोकि उन्हें स्वतंत्र रूप से कार्य करने का अवसर प्रदान करती है, लेकिन कोई भी व्यक्ति निष्ठापूर्वक स्वतंत्र रूप से कार्य तब कर सकेगा, जब वह स्वयं उस प्रवृत्ति का हो। हालांकि चुनाव आयोग के इतिहास में निष्ठावान मुख्य चुनाव आयुक्तों की एक मजबूत परंपरा रही है, जिसमें टी.एन. शेषन को चुनाव सुधार के प्रति अपनी कटिबद्धता को लेकर मील का पत्थर माना जाता है।

पूर्व में चुनाव आयोग को राजनीतिक हस्तक्षेप का शिकार होना पड़ा है। 1993 में तत्कालीन सरकार ने आयोग को बहुसदस्यीय बना दिया और दो अन्य निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति कर दी। निर्वाचन आयोग को बहुसदस्यीय बनाने का निर्णय तत्कालीन सरकार ने इस वजह लिया,

क्योंकि नवम्बर 1993 में कई राज्यों की विधानसभा के चुनाव होने थे और निर्वाचन आयोग ने कहा था कि चुनाव कराने के लिए सशस्त्र बलों की पर्याप्त संख्या न मिलने पर और चुनाव कार्य में लगे कर्मचारियों पर अनुशासनात्मक शक्ति न मिलने पर वह चुनाव को रोक देगा।

तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एन. शेषन के इस कदम ने सरकार और चुनाव आयुक्त के बीच टकराव को बढ़ा दिया और एक व्यक्ति में संकेंद्रित शक्तियों को कम करने के लिए 2 अक्टूबर 1993 को राष्ट्रपति ने एक अध्यादेश जारी कर दो अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति का प्रावधान किया और मुख्य चुनाव आयुक्त की शक्तियों को चुनाव आयुक्त की शक्तियों के समान कर दिया।

यह देश में सशक्त चुनाव आयोग की शक्तियों पर प्रथम कुठाराघात था और सरकार की इस मनोवृत्ति को स्पष्ट कर दिया था कि वह किसी भी संस्था को इतना भी स्वतंत्र नहीं चाहती कि वह सरकार से ज्यादा भी अपने को सशक्त समझने लगे।

हालांकि सर्वोच्च न्यायालय में जब यह मामला गया, तो न्यायालय ने भी बहुमत के आधार पर सरकार के निर्णय को सही माना और टी.एन. शेषन द्वारा दिखाए जा रहे अतिसक्रियता पर कटाक्ष किया। न्यायालय ने तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त शेषन के द्वारा व्यक्तिगत रूप से टीवी मीडिया में इंटरव्यू देने और लोक संवाद स्थापित करने को सही नहीं ठहराया गया। लेकिन यदि इस तर्क को मान भी लिया जाए

कि वर्तमान में चुनाव आयोग की संरचना इस प्रकार है कि वह सशक्त तो है, लेकिन बेलगाम नहीं और सरकार का दो अन्य आयुक्तों की नियुक्ति का कदम उसे अधिक संतुलित बनाने के लिए था, तो ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि सरकार ने 1993 के बाद से लेकर अभी तक चुनाव आयुक्त और मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति की डोर अपने ही हाथ में क्यों रखी?

जबकि ऐसा प्रावधान है कि निर्वाचन सम्बन्धी सभी निर्णय सर्वसम्मति अथवा बहुमत से लिए जायेंगे, तो ऐसे में यदि अन्य निर्वाचन आयुक्त सरकार के प्रभावाधीन होंगे तो आयोग की निष्पक्षता कहां बचेगी और वह कैसे स्वतंत्रता व निष्पक्षता के साथ काम कर पायेगा। सर्वोच्च न्यायालय की चिंता बिल्कुल वाजिब प्रतीत होती है।

मुद्दा यह भी है एक यही चिंता बृहद स्तर पर राजनीतिक विश्लेषकों के बीच भी होनी चाहिए और तत्कालिक रूप से सरकार को एक कानून के द्वारा नियुक्ति समिति का गठन किया जाना चाहिए और इस समिति की संरचना भी वही होनी चाहिए, जिसकी तारकुंडे समिति द्वारा अनुशंसा की गई थी।

दरअसल नियुक्ति समिति में विपक्ष के नेता की जगह सरकार में न होने वाले सबसे बड़े दल के नेता को शामिल किये जाने का प्रावधान होना चाहिए, ताकि वर्तमान स्थिति की तरह सरकार विपक्ष के नेता को नियुक्त ही न करके उस स्थिति से बच न सके।

जैसा सीवीसी की नियुक्ति के संदर्भ में हुआ। चुनाव आयोग एक संविधानिक गरिमा वाली संस्था है, जिसका लोकतंत्र को सुदृढ़ करने में अतुलनीय योगदान है, इसीलिए इस संस्था को स्वतंत्र, निष्पक्ष एवं पारदर्शी बनाए रखना बेहद महत्वपूर्ण है।

-पार्थ उपाध्याय

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