अपने हित-अहित से किसान बेखबर व सरकार बाखबर ?

Farmers Protest

सत्ता द्वारा किसानों की नए कृषि अध्यादेशों को वापस लेने की दो टूक मांग से देश का ध्यान भटकाने के लिए अनेक हथकंडे प्रयोग में लाए जा रहे हैं। सत्ता+गोदी मीडिया+आईटी सेल का अदृश्य संयुक्त नेटवर्क कभी इस आंदोलन को खालिस्तान से जोड़ने की कोशिश करता है तो कभी देश के ‘अन्नदाताओं’ के इस आंदोलन की फंडिंग पर सवाल खड़ा करता है। कभी किसान विरोधियों को इस आंदोलन में शाहीन बाग के लोग सक्रिय दिखाई देते हैं तो कभी यह आंदोलन देश के किसानों का नहीं बल्कि केवल पंजाब के एक समुदाय का आंदोलन दिखाई देता है।

किसान आंदोलन दिन प्रतिदिन और अधिक तेज होता जा रहा है। राजधानी दिल्ली के चारों ओर किसानों का जमावड़ा व उनका दायरा रोज बढ़ता ही जा रहा है। किसान संगठनों के प्रतिनिधियों व केंद्र सरकार के बीच चली 5 दौर बातचीत बिना किसी नतीजे पर पहुंचे हुए,समाप्त होने के बाद जहाँ किसान आंदोलन ने और गति पकड़ ली है वहीं सरकार भी ‘हठ मोड’ में नजर आने लगी है। सरकार द्वारा संसद में बिना बहस के पारित कराए गए किसान अध्यादेश के समर्थन में किसान आंदोलन शुरू होने से पूर्व जिस प्रकार पूरे देश के समाचार पत्रों को करोड़ों रुपए का संपूर्ण पृष्ठ का विज्ञापन देकर देश को विशेषकर किसानों को यह समझाने की कोशिश की गयी थी नए कृषि कानून उनके हित में हैं तथा इनके विरुद्ध ‘दुष्प्रचार’ व झूठ फैलाया जा रहा है।

एक बार फिर से जनता के ही सैकड़ों करोड़ रुपए खर्च कर ठीक वैसा ही विज्ञापन पुन: प्रकाशित कराया गया है। ‘अन्नदाता की समृद्धि के लिए समर्पित सरकार-नए भारत का निर्माण,सबसे पहले किसान’ शीर्षक के इस विज्ञापन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह कथन कि -‘भारत को अपने अन्नदाताओं पर बहुत गर्व है। वे देश का पेट पालने के लिए दिन रात काम करते हैं। हम अपने किसानों को सशक्त करने के लिए सुधारों और दूसरे अन्य उपायों के जरिये कृषि क्षेत्र को मजबूत करने में जुटे हैं’,उद्घृत किया गया है।

किसानों को समझाने बुझाने वाला इसी तरह का खर्चीला विज्ञापन जब आंदोलन जारी होने से पूर्व प्रकाशित हुआ और वह विज्ञापन भी किसानों को आंदोलन की राह अख़्तियार करने से न रोक सका फिर आखिर आंदोलनरत किसानों पर यह विज्ञापन कितना असर डाल पाएगा इस बात का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। इसी तरह सरकार ने किसान आंदोलन शुरू होने से पहले भी अपने मंत्रियों व जन प्रतिनिधियों को किसानों के बीच गांव गांव जाकर नए कृषि कानूनों के बारे में समझाने की योजना बनाई थी। परन्तु कई जगह भाजपा के इन मंत्रियों व जन प्रतिनिधियों को किसानों के भारी रोष का सामना करना पड़ा था। अब एक बार फिर भाजपा किसानों के बीच जाने की योजना बना रही है।

यहां भी यह सवाल उठना जरूरी है कि सरकार द्वारा विज्ञापनों में दी गयी अपनी सफाई और उसके अनुसार उसके विरोधियों द्वारा नए कृषि कानूनों के बारे में फैलाए जा रहे ‘झूठ’ व ‘भ्रम’ के बारे में सरकार किसान नेताओं को अपनी छ: दौर की चली बात चीत में अपनी नीयत,अपने इरादों तथा विज्ञापनों में प्रकाशित होने वाले बिंदुओं को लेकर उनमें विश्वास क्यों नहीं पैदा कर पाई ?

अब तक सरकार व किसान संगठनों के मध्य चली बातचीत व दोनों पक्षों के रवैये से तो साफ नजर आ रहा है कि भले ही सरकार किसान हितों की बातें व दावे क्यों न करे परन्तु किसानों को संदिग्ध लगने वाले इन कृषि अध्यादेशों को वापस न लेने के फैसले की जिद पर अड़े रहकर सरकार पूँजीपतियों के पक्ष में खड़ी नजर आ रही है तो दूसरी ओर किसान संगठन प्रधानमंत्री मंत्री सहित अदानी व अंबानी के बार बार पुतले फूँक कर तथा इनका व्यवसायिक बहिष्कार कर साफ तौर से यह सन्देश दे रहे हैं कि वे इन नए तीनों कृषि अध्यादेशों की बारीकियों,इनके दूरगामी परिणामों यहां तक कि सरकार की ‘नीयत’ व उसके ‘इरादों’ से भी भली भांति वाकिफ हैं। बार बार सरकार के जिम्मेदारों द्वारा यह दोहराया जाना कि किसानों को बहकाया या भ्रमित किया जा रहा है यह दरअसल किसानों की सूझ बूझ को कम कर आंकने जैसा है। खास तौर पर पंजाब,हरियाणा,राजस्थान व पश्चिमी उत्तर प्रदेश के उन किसानों को नासमझ समझना जो अपने घर परिवार से देश का प्रहरी सैनिक पैदा कर ‘जय जवान -जय किसान ‘की भारतीय अवधारणा को भी साकार करते हैं?

सत्ता द्वारा किसानों की नए कृषि अध्यादेशों को वापस लेने की दो टूक मांग से देश का ध्यान भटकाने के लिए अनेक हथकंडे प्रयोग में लाए जा रहे हैं। सत्ता+गोदी मीडिया+ आई टी सेल का अदृश्य संयुक्त नेटवर्क कभी इस आंदोलन को खालिस्तान से जोड़ने की कोशिश करता है तो कभी देश के ‘अन्नदाताओं’ के इस आंदोलन की फंडिंग पर सवाल खड़ा करता है। कभी किसान विरोधियों को इस आंदोलन में शाहीन बाग के लोग सक्रिय दिखाई देते हैं तो कभी यह आंदोलन देश के किसानों का नहीं बल्कि केवल पंजाब के एक समुदाय का आंदोलन दिखाई देता है। कभी इन्हें लगता है कि विपक्षी दल इन्हें भड़का रहे हैं तो कभी यह आंदोलनकारियों की देग में बिरयानी चढ़ी देखने लगते हैं। परन्तु किसानों को अपने लिए अहितकर व निजी क्षेत्रों के लिए हितकारी लगने वाले इन कानूनों को वापस न लेने के पीछे इनकी क्या मजबूरी है यह जाहिर नहीं करना चाह रहे।

आज भी भाजपा के सारे आंदोलन बंगाल, तमिलनाडु, राजस्थान व महाराष्ट्र जैसे राज्यों में ही क्यों होते हैं ? क्या उत्तर प्रदेश व बिहार की कानून व्यवस्था में ‘राम राज्य ‘ के दर्शन होते हैं और बंगाल-महाराष्ट्र अराजकता फैलाने वाले राज्यों में हैं? यदि आज विपक्ष किसानों की आवाज नहीं उठाएगा फिर तो लोकतंत्र का अर्थ व महत्व ही समाप्त हो जाएगा। और सत्ता जन तान्त्रिक नहीं बल्कि तानाशाही के रास्ते पर चल पड़ेगी। इसमें कोई शक नहीं कि इस आंदोलन के गति पकड़ने के साथ साथ दिल्ली व आसपास के आम लोगों की परेशानियां भी बढ़ती जा रही हैं।

यथा शीघ्र इसका समाधान निकालना सरकार का दायित्व व कर्तव्य भी है। सरकार को चाहिए कि वह किसानों की वाजिब मांगों को स्वीकार करे। सरकार को यह स्पष्ट करना चाहिए कि जो नए तीन कृषि अध्यादेशों को वापस लेने की मांग किसान कर रहे हैं उन्हें वापस न लेने के पीछे आखिर सरकार की मजबूरी क्या है ? सरकार को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि देश का किसान केवल अन्नदाता या देश के प्रहरियों को पैदा करने वाला वर्ग ही नहीं बल्कि यह वह वर्ग भी है जो अन्न उत्पादन से लेकर बाजार व्यवस्था तक में देश की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। परन्तु सरकार इसी गलतफहमी में है कि अपने हित-अहित से किसान बेखबर है और सरकार इससे पूरी तरह बाखबर ?

                                                                                                                -तनवीर जाफरी

 

अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook और Twitter पर फॉलो करें।