संवैधानिक मर्यादाओं में छुपी हैं जनभावनाएं

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लाख अवरोधों के बावजूद एक जुलाई से सारे देश में ‘एक राष्ट्र एक कर’ एक बाजार का सपना पूरा हो ही गया। संसद के सेंट्रल हॉल में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बटन दबाने के साथ ही कश्मीर को छोड़कर पूरे देश में एक कर व्यवस्था लागू होने के साथ ही अब समूचे देश में चार स्लेब में टैक्स रह गए।

केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा करों के साथ ही सेस के रुप में करों पर कर के भार से आम आदमी को भी राहत मिल गई। एक मोटे अनुमान के अनुसार देश में 17 तरह के कर और 23 तरह के सेस लागू थे। सरकार की मानें, तो जीएसटी के लागू होने से आम नागरिकों को 500 तरह के करों से राहत मिली है। जीएसटी के अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले परिणाम भविष्य के गर्भ में हैं, पर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने वित्त मंत्री रहते जीएसटी लागू करने के प्रयास किए थे। उनके फलीभूत होने पर उन्होंने अपार संतोष व्यक्त किया।

जीएसटी को लेकर विरोध के स्वर भी मुखरता से उभरे। जीएसटी की लाख कमियां गिनाई गई। मजे कि बात यह कि जीएसटी के बीजारोपण करने वाली कांग्रेस ने ही इसका विरोध करते-करते आर्थिक उदारीकरण की दिशा में बढ़ते इस ऐतिहासिक क्षण का बहिष्कार तक कर दिया। कारोबारियों के अपने हित होते हैं, उनका विरोध समझ की बात हो सकती है,

पर राजनीतिक दलों ने तो संसद में जीएसटी के बिल को पारित किया है। जीएसटी अब राजनीतिक एजेण्डा नहीं होकर संवैधानिक कदम हो गया, ऐसे में मर्यादा तो यही कहती है कि संसद और संवैधानिक प्रक्रिया के अनुसार राज्यों से पारित होने पर किसी कानून या व्यवस्था का इतना विरोध की राष्ट्रपति की उपस्थिति में ऐतिहासिक क्षण के बहिष्कार का निर्णय संविधान के प्रति राजनीतिक दलों की निष्ठा पर प्रश्न चिन्ह उभारता है।

लगता है कि राजनीतिक दल आज भी भारतीय मानसिकता को नहीं समझ पा रहे हैं। हमारे देश के आम नागरिकों की संवैधानिक व्यवस्था में गहरी आस्था है। वह संवैधानिक निर्णय एक बार लागू होने पर पूरे मनोयोग से उसका पालन करती है। उस पर प्रश्न चिन्ह उभारने वालों को सिरे से नकारने में देरी भी नहीं लगाती।

इतिहास गवाह है कि देश में अब तक जितने बड़े निर्णय हुए हैं, उन्हें आम आदमी ने खुले मन से स्वीकारा है। चाहे वह इन्दिरा गांधी द्वारा राजा महाराजाओं के प्रिविपर्स की समाप्ति हो, बैंकों का राष्ट्रपतिकरण हो, नरसिम्हाराव का आर्थिक उदारीकरण। लालबहादुर शास्त्री के सोमवार को व्रत रखने का संदेश की आज तक पुरानी पीढ़ी पालन कर रही है।

इसी तरह से पिछले दिनों की नोटबंदी या यूं कहें कि विमुद्रीकरण के चलते लाख परेशानियां भुगती, राजनीतिक दलों और कथित बुद्धिजीवियों व प्रतिक्रियावादियों के विरोध के बावजूद आम आदमी ने उसका खुले दिल से समर्थन किया।

विमुद्रीकरण के बाद के चुनाव और उनके परिणाम भारतीय आम आदमी की मानसिकता का परिचायक हैं। विरोध में दस्तावेज के टुकड़े-टुकड़े कर देना आम आदमी कभी नहीं स्वीकारता। मनमोहन सिंह सरकार के समय राहुल गांधी द्वारा नोटिफिकेशन को फाड़कर संवैधानिक मर्यादा की अवहेलना आम आदमी नहीं पचा पाया। इसी तरह से नोटबंदी के दौरान लाख विरोध को आम आदमी ने सिरे से नकारा। इस सबके बावजूद भारतीय मानसिकता से सबक नहीं लेना आखिर किस सोच को दर्शाता है।

देश में कोई भी बदलाव हो रहा है, वह किसके लिए हो रहा है। सोचने और समझने की बात यह है कि कर व्यवस्था किसके लिए है, आम आदमी के लिए। आखिर कर प्रणाली से प्रभावित भी आम आदमी होता है, जीएसटी लागू होने से सबसे अधिक प्रभावित आम आदमी ही होगा। पर मजे की बात यह है कि जीएसटी को लेकर राजनीतिक दलों,

औद्योगिक संगठनों व कारोबारियों के आंदोलन से आम आदमी लगभग दूर ही रहा। जीएसटी के प्रभावों से डराने की तो लाख कोशिश की गई, पर आम आदमी ने कोई मुखर प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। हालांकि सोशल मीडिया पर प्रतिक्रियाओं की कोई कमी नहीं रही।

प्रश्न यह भी उठता है कि सोशल मीडिया का इस तरह का उपयोग कहां तक उचित कहा जा सकता है। जब जीएसटी काउंसिल, जिसमें सभी प्रदेशों का प्रतिनिधित्व होने के साथ ही सभी पक्षों पर गंभीरता से विचार किया जाता रहा। 18 बैठकों में अनवरत बदलाव और सुधार जारी रहे, उसके बावजूद जीएसटी लागू होने के अवसर पर कारोबार बंद का निर्णय किया गया।

लोकतंत्र में सबको अपनी बात रखने और विरोध जताने का अधिकार है। ऐसे में विरोध प्रदर्शन बेमानी होगा, पर सीधे-सीधे आम आदमी से जुड़ी इस कर प्रणाली को लेकर आम आदमी को हाशिए पर रखकर आंदोलन का हस्र यही होना था।

आम आदमी की समझ में यह बात साफ हो चुकी है कि आर्थिक सुधारों की दिशा में कर प्रणाली सुधारात्मक कदम है। यह कोई अंतिम निर्णय नहीं है, यदि जीएसटी का अर्थ व्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ता है, तो उसे सरकार को दूर करना होगा। जनता इस बात को जानती है। आम आदमी अपनी ताकत को पहचानता है, उसके पास मेन्डेट की सबसे बड़ी ताकत है।

वह यह भी जानता है कि एक तरफ राजनीतिक दल संसद में जीएसटी पारित करते हैं, दूसरी तरफ बाहर आकर विरोध करते हैं, यह दोहरा चरित्र आम आदमी समझने लगा है। चुनाव परिणामों के बाद ईवीएम पर दोष मंडना आज भी आम आदमी के गले नहीं उतरा है, बल्कि चुनाव आयोग के कदम से ईवीएम पर प्रश्न उठाने वाले एक्सपोज हो चुके हैं। ऐसे में जनता की नब्ज को समझने की भूल का खामियाजा देर-सबेर भुगतना ही पड़ता है।

आजादी के बाद देश में आर्थिक सुधारों की दिशा में यह चौथा बड़ा कदम माना जा सकता है। पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने 19 जुलाई, 1969 को बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर बड़ा कदम उठाया, इसके बाद नरसिम्हाराव के समय आर्थिक उदारीकरण ने देश में विकास की राह खोल दी। पिछले साल नवंबर में 500 और 1000 के नोटबंदी या यों कहे कि विमुद्रीकरण आर्थिक सुधारों की दिशा में अग्रगामी कदम बताया गया अब ‘वन टेक्स वन नेशन’ का कदम बड़े आर्थिक बदलाव के रुप में देखा जाना चाहिए।

जीएसटी के आम आदमी और आम उपभोक्ता पर पड़ने वाला प्रभाव भविष्य के गर्भ में है पर आम आदमी जानता है कि सरकार किस तरह से पिछले दरवाजे से सेस के नाम पर वसूली कर लेती है, किस तरह से कारोबारी कृत्रिम अभाव बताकर भावों को ऊपर नीचे कर देता है और सरकार देखती रह जाती है।

किस तरह से फसल आने पर जिंसों के भाव कम हो जाते हैं और कुछ समय बाद ही जमाखोरों द्वारा किसानों से सस्ती दर पर खरीदी ंिजसों का भाव बढ़ाकर आम नागरिक की मजबूरी का फायदा उठा लेते हैं। जब आम उपभोक्ता इन सबसे दोचार हो चुका है तो जीएसटी से उसे कोई शिकायत नहीं हो सकती क्योंकि जीएसटी का दुष्परिणाम आता है तो आम नागरिक की ताकत को कमतर नहीं देखा जा सकता। इसलिए केवल विरोध के लिए विरोध के स्थान पर संवैधानिक संस्थाओं व व्यवस्थाओं की अहमियत को समझना होगा।

-डॉ़ राजेन्द्र प्रसाद शर्मा

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