‘मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी’

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18जून 1858 को महारानी लक्ष्मीबाई ने अपने देश को स्वतंत्र कराने हेतु जो आत्मोत्सर्ग किया, वह भारतीय स्वतंत्रता के प्रथम संग्राम के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा गया। महारानी लक्ष्मीबाई के समान अतुलनीय पराक्रम, शौर्य, संगठन भावना और दूरदृष्टि विश्व इतिहास में यदा कदा ही दृष्टिगोचर होते हैं।

यूं तो तात्या टोपे नि:संदेह अपूर्व पराक्रम और शौर्य रखने वाले सेनापति थे परन्तु उनकी भी कुछ कमजोरियां थी, जैसे वे छापामार प्रणाली में विश्वास रखने वाले योद्धा थे परन्तु इस प्रणाली के नकारात्मक और तीव्र आक्रमण के प्रत्युत्तर में और भी तीव्र तथा प्रबल आक्रमण में वे कुछ अधिक ही विश्वास रखते थे। शत्रु के तीव्र आक्रमण के समय युद्ध भूमि से भागना नकारात्मक पक्ष है। कुंवर सिंह अपने शत्रु पर बाज की तरह झपटना चाहते थे जबकि तांत्या टोपे इस तीव्र आक्रमणकारी शत्रु को छकाना चाहते थे।

तांत्या टोपे को रानी का पत्र मिला। तुरंत ही तांत्या सेना लेकर झांसी पहुंचे और अंग्रेजों के पृष्ठभाग पर हमला बोल दिया। अंग्रेज सेना अब दो पाटों के बीच फंस गयी। एक ओर रानी की अनुशासित सेना थी तो दूसरी ओर थी तांत्या की भी़ड।

प्रत्याक्रमण को तांत्या के सैनिक न रोक सके। अंतत: तांत्या को मैदान छोड़ना पड़ा जिसका परिणाम यह निकला कि तांत्या टोपे की तोपें और गोला बारूद अंग्रेजों के हाथ लगा परन्तु इससे भी ब़डा परिणाम यह निकला कि भारतीय सैन्य नेतृत्व की विश्वसनीयता घट गयी और अंग्रेजों की हिम्मत बढ़ी, जिससे भारतीय सेना को ही नुकसान हुआ।

झांसी त्याग कर रानी कालपी पहुंची जहां राव साहब और तांत्या टोपे के साथ ही बांदा, शाहगढ़ और बानापुर के राजा उनके साथ हो लिये परन्तु रानी साहिबा को छोड़कर किसी अन्य में कुशल सैन्य रचना की शक्ति न थी।

उनके सैनिकों में एकात्मकता, एक विचार, एक कार्यक्रम, अनुशासन तो था ही नहीं, साथ ही अपने संयुक्त नेतृत्व के प्रति पूर्ण निष्ठा न होकर अपने वास्तविक राजा के प्रति निष्ठा और वफादारी अधिक थी। अत: यह संयुक्त सेना एक मन, एक प्राण होकर सर ह्यूरोज का सामना नहीं कर पायी और पराजित हो गयी। इतनी विशाल सेना एकजुट होकर अंग्रेज सेना पर आक्रमण करती तो शायद अंग्रेजों को हार से कोई न बचा पाता।

जब ग्वालियर पर इस क्रांतिकारी-संयुक्त सेना ने आक्रमण किया तो बिना किसी प्रतिरोध और बल प्रदर्शन के ही उनका अधिकार ग्वालियर पर हो गया। ग्वालियर महाराज जीयाजी राव आगरा भाग गये और सेना ने आत्म-समर्पण कर दिया। इस विजय से पेशवा सरदार फूले न समाये और विजयोल्लास में डूब गये।

अपनी सेना को सुसज्जित करने और एकता के सूत्र में पिरो कर अनुशासित करने जैसी सीधी सी बात क्रान्ति नेताओं ने नहीं मानी। वस्तुत: भारत उसी दिन पराजित हो गया बाद में तो उसकी घोषणा मात्र होनी थी।

भारतीय क्रान्तिकारी सरदार अमोद मंगल और विलास में आकण्ठ डूब गए। उन्हें होश तब आया जब सर ह्यूरोज ने विशाल सेना लेकर ग्वालियर पर तेजी से आक्रमण कर दिया। जीयाजी राव को ह्यूरोज के साथ देखकर उनके सरदार वापिस अपने महाराज के पास लौट गए। ऐसी खबर सुनकर क्रांतिकारी सरदार ज़डवत हो गये परन्तु लक्ष्मीबाई शांत और गंभीर थी।

उनकी तलवार म्यान में गयी ही कब थी? फिर तो वही हुआ, जो होना था। रानी साहिबा वीरगति को प्राप्त हुई। भारत पुन: अंग्रेजों के हाथ में आ गया। क्रांति की ज्वाला अब हृदय में ही प्रज्ज्वलित होने लगी। 19 नवम्बर 1835 (जन्म) से 18 जून 1858 (मृत्यु) तक अर्थात 22 वर्ष 7 माह की आयु में ही जिसने ब्रिटिश साम्राज्य के अद्वितीय शौर्यवान और पराक्रमी सेनापतियों को युद्धभूमि में घुटने टेकने पर मजबूर किया, भारतीय क्रांतिकारियों की सदैव ही प्रेरणा स्रोत रही, ज्योतिपुंज महारानी लक्ष्मीबाई को शत् शत् नमन।

-राम पंजवानी

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