जरूरी था गठबंधन का विखंडन

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विष्णुगुप्त

भाजपा और पीडीपी गठबंधन का विखंडन कोई अस्वाभाविक राजनीति घटना नहीं है। भाजपा और पीडीपी के गठबंधन का टूटना तो निश्चित था। निश्चित तौर पर पीडीपी के साथ गठबंधन की राजनीति भाजपा के लिए दुस्वप्न की तरह साबित हुई है और खासकर महबूबा सईद की भारत विरोधी बयानों के प्रबंधन में भाजपा पूरी तरह से विफल साबित हुई थी।

भाजपा की यह सोच पूरी तरह से कमजोर साबित हुई कि पीडीपी के साथ गटजोड कर एक मजबूत और टिकाउ सरकार देकर कश्मीर में पार्टी का जनाधार विकसित किया जाये और खासकर पाकिस्तान को एक करारा जवाब दिया जाये। दुनिया मे यह स्थापित किया जाये कि कश्मीर में मजबूत लोकतंत्र कायम है, हमारा लोकतंत्र जन उम्मीदो को आधार देने के लिए कामयाब है।

यह सही है कि दुनिया को यह अहसास दिलाया गया कि पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद और आतंकवाद की हिंसा के बावजूद हम मानवाधिकार को सर्वश्रेष्ठ प्राथमिकता में शामिल कर रखे है पर आतंरिक तौर पर यह गठबंधन उम्मीदों पर खरा नहीं उतर रहा था, पीडीपी और महबूबा मुफ्ती तो अपनी छवि चमकाने में लगी हुई थी, समय-समय पर उसके विधायाकों और पार्टी नेताओं के राष्ट्र विरोधी बोल सनसनी पैदा करते थे और भाजपा के जनाधार को ललकार कर उसे कमजोर भी करते थे।

महबूबा मुफ्ती की प्राथमिकता आतंकवाद को रोकने में कतई नही थी, कश्मीर में आतंकवाद पर नियंत्रण लगाने का काम करने का अर्थ, अपने जनाधार में आग लगाने जैसा है, कश्मीर में जो दल जितना देश को गाली देगा और जितना पाकिस्तान के पक्ष में दंडवत होगा वह उतना ही जनाधार विकसित करता है। इसीलिए कभी पीडीपी तो कभी नेशनल कांन्फ्रेंस भारत की एकता और अखंडता विरोधी बयान देकर सनसनी फैलाते हैं।

अब यहां प्रश्न उठता है कि अचानक गठबंधन तोडने के लिए भाजपा तैयार क्यों हुई? क्या मुफ्ती महबूबा सईद मनमानी पर उतर आयी थी? क्या मुफ्ती मोहम्मद सईद भाजपा की सभी बातें और भाजपा की सभी नीतियों को अनसुनी करती थी? क्या मुफ्ती महबूबा आतंकवाद को बढावा दे रही थी? रमजान के दौरान एक तरफा युद्ध विराम के लिए मुफ्ती मोहम्मद सईद ने विशेष दबाव बनाया?

कांग्रेस अपने आप को इस संकट की कसौटी पर किस तरह से नियंत्रित करेगी? राष्ट्रपति शासन के दौरान भाजपा अपने जमीदोंज हुए विचार और जनाधार को किस र्प्रकार से वापस लायेगी? आतंकवादी संगठन इस राजनीतिक परिस्थिति में किस प्रकार से हिंसक राजनीति को अंजाम देंगे, क्या आतंकवादी हिंसा कमजोर होगी? सबसे बडी बात पाकिस्तान की है, पाकिस्तान अपनी आतंकवादी मानसिकता का किस प्रकार से विस्फोट करता है? पाकिस्तान दुष्प्रचार की कूटनीतिक खेल-खेल सकता है, जिसका मुकाबला भारत सरकार को करना पडेगा।
यह सीधे तौर पर भाजपा की विफलता है, भाजपा की राजनीतिक सोच की विफलता है।

गठबंधन की कोई सुखद परिणाम की उम्मीद थी नही। उम्मीद क्यों नहीं थी? उम्मीद इसलिए नही थी कि दोनो के विचार और चरित्र में कोई दूर-दूर तक समानता नहीं था। पीडीपी की सोच जहां अलगववादी के प्रति नरम थी वहीं आतंकवाद विरोध की है, धारा 370 विरोधी की है, समान नागरिक संहिता की पक्षधर है। ऐसे दो ध्रुव पर केन्द्रित पार्टियों के बीच गठबधन कोई मधुर कैसे हो सकता है?

सबसे बडी बात यह है कि भाजपा ने गलत सोच विकसित कर ली थी। भाजपा को स्वर्णिम सफलता जो मिली थी वह स्वर्णिम सफलता पीडीपी के साथ गठबंधन करने के लिए नहीं मिली थी, भाजपा को स्वर्णिम सफलता पीडीपी के आतंकवादी समर्थक नीति को जमींदोज करने के लिए मिली थी, नेशनल कांन्फ्रेंस की बिगडैल बोल को जमींदोज करने के लिए मिली थी, आतंकवादियों का उसके मांद में जाकर सबक सिखाने के लिए मिली थी, पाकिस्तान को जैसे को तैसे स्थिति में जवाब देने के मिली थी। रमजान के अवसर पर एक तरफा युद्ध विराम का नाटक भाजपा के लिए भारी पड़ गया, आतंकवादियों ने अपनी शक्ति बढाई।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की छवि और उनके पराक्रम पर भी प्रश्न चिन्ह खडा हुआ था। नरेन्द्र मोदी जब प्रधानमंत्री नहीं थे और प्रधानमंत्री पद के लिए उन्हें उनकी पाटी ने प्रस्तावित किया था तब उनकी अवधारणा क्या थी, उनके तेवर क्या थे, वे पाकिस्तान और आतंकवादियों के खिलाफ किस प्रकार से दहाडते थे। वे कहते थे कि आतंकवादियों और पाकिस्तान को जवाब देने के लिए देश को 56 इंच का सीना चाहिए, मनमोहन सिंह के पास 56 इंच का सीना नहीं है। नरेन्द्र मोदी यह भी कहते थे कि जब वे सत्ता मे आयेंगे तब आतंकवादियों और पाकिस्तान को सबक सिखायेंगे और पाकिस्तान भारत की ओर मुंह करने के पीछे सौ बार सोचेगा।

नरेन्द्र मोदी सत्ता में आये, प्रधानमंत्री की कुर्सी उन्हें मिल गयी। पर उनका 56 इंच का सीना कभी दिखा नहीं। आतंवादियों को जवाब देने में उनकी वीरता कहीं झलकी नहीं। पाकिस्तान पहले से भी अराजक और बेखौफ गया। पाकिस्तान आतंकवादियों को नियंत्रित करने, आईएसआई को नियंत्रित करने की जिम्मेदारी नहीं दिखायी। सबसे बडी बात यह है कि नरेन्द्र मोदी बिन बुलाये पाकिस्तान चले गये। नवाज शरीफ के दावत खाने से उनकी छवि खराब हुई। जनता के बीच संदेश गया कि नरेन्द्र मोदी भी कांग्रेस की भूमिका में कैद हो गये हैं, कश्मीर और पाकिस्तान की समस्या को नियंत्रित करने के लिए मोदी के पास भी कोई वीरतापूर्ण आत्म बल नही है। इतिहास भी यही कहता है कि जब-जब भारत ने पाकिस्तान के साथ उदारता दिखायी है, तब-तब भारत की पीठ में पाकिस्तान ने छूरा भोका है। पाकिस्तान कोई वार्ता नहीं बल्कि शक्ति और हिंसा की भाषा ही समझता है।

भाजपा गठबंधन नहीं तोडती तो फिर भाजपा को कितना नुकसान होता? भाजपा अगर गठबंधन नहीं तोडती तो फिर भाजपा को अतुलनीय नुकसान होता, जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद की दिन-प्रतिदिन बढती धटना से देशभर में गुस्सा और आक्रोश था। विरोधी विचार धारा वाले लोग मोदी पर तो आतंकवाद के सामने घुटने टेकने और पाकिस्तान के सामने सर्मपण करने के आरोप तो लगाते ही थे पर राष्ट्रवादी खेमा जो नरेन्द्र मोदी और भाजपा की शक्ति के केन्द्र में है, भी कम आक्रोशित नहीं था। राष्ट्रवादी खेमे का आक्रोश ही भाजपा के लिए चिंता की बात थी। सबसे बडी भूमिका जम्मू संभाग ने निभायी है।

जम्मू संभाग ही भाजपा की शक्ति के केन्द्र मे है। भाजपा को स्वर्णिम सफलता जम्मू संभाग की ही देन है। भाजपा की सभी सीटें जम्मू संभाग से मिली हुई है। लोकसभा की छह में से जो तीन सीटें भाजपा को मिली थी वह तीनों सीटे जम्मू संभाग की हैं। अगर भाजपा ने पीडीपी का गठबंधन समाप्त नहीं होता तो फिर जम्मू संभाग की राजनीति शक्ति भाजपा से दूर हो जाती। राष्ट्रपति शासन के दौरान आतंकवाद और पाकिस्तान परस्त राजनीति के पंख को मरोडना होगा, पाकिस्तान की आतंकवादी मानसिकता का भी सैनिक हल ढुढना होगा, अगर ऐसा नहीं हुआ तो फिर भाजपा और मोदी को और भी नुकसान होगा।

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