न्यायपालिका व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

आखिर सुप्रीम कोर्ट ने अवमानना के मामले में प्रसिद्ध वकील प्रशांत भूषण को एक रुपए का जुर्माना लगाकर मामला निपटा दिया है। प्रशांत भूषण ने भी जुर्माना भरना स्वीकार कर अदालत के सम्मान को बरकरार रखा है। फैसले को लेकर उनके यह शब्द बड़े अहम हैं, सुप्रीम कोर्ट को जीतना भी चाहिए, सुप्रीम कोर्ट जीतेगी तो हर भारतीय जीतता है। इसी प्रकार भूषण ने अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सुप्रीम कोर्ट के संबंध में सम्मान भरे शब्दों के पुल बांधकर मामले का संतुष्टिजनक अंत किया है। दरअसल केंद्र सरकार के वकील अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल और बुद्धजीवियों का एक वर्ग, इस बात के समर्थन में थे कि भूषण को सजा नहीं मिलनी चाहिए, उन्हें चेतावनी देकर छोड़ दिया जाए। अदालत ने माफी मांगने का विकल्प बताए जाने के बावजूद भूषण माफी न मांगने के लिए डटे रहे।

माफी न मांगने के पीछे उनका यह तर्क चर्चा का विषय बना है, ‘दिल से माफी नहीं मांगना भी अपने आप अवमानना है’। आखिर माननीय जजों ने पूरे विवेक से कोई सख्त सजा देने की बजाय सजा को एक रुपए जुर्माने में तबदील कर दिया। यह घटना एक बड़ा संदेश दे गई है कि न्याय व्यवस्था को लेकर टिप्पणी करने वालों को सख्ती बरतकर दबाया नहीं जा सकता। दूसरी तरफ टिप्पणी करने वाले की भावना और उद्देश्य की महत्वता भी सामने आई है। निर्णय आने के बाद भूषण ने यह स्पष्ट किया है कि वे सुप्रीम कोर्ट को लेकर टिप्पणी किसी दुर्भावना या अड़ियल रवैये के कारण नहीं कर रहे थे। उनका उद्देश्य अदालत का अपमान करना नहीं था। उक्त दोनों बिंदु न्याय व्यवस्था व लोकतंत्र के सिद्धांतों, स्वरूप और सम्बन्ध पर सद्भावना से चर्चा करते रहने का संदेश दे गए हैं।

न्याय व्यवस्था में आई कमी पर सवाल उठाना कोई अपराध नहीं समझा जाना चाहिए। लोकतंत्र के समर्थन में बात करना कोई गुनाह नहीं है, दूसरी तरफ अदालत के मान-सम्मान को कायम रखते हुए सुधार की उम्मीद करना भी आवश्यक है। विगत समय में न्याय व्यवस्था पर सवाल उठते रहे हैं। यहां तक कि खुद सुप्रीम कोर्ट के चार मौजूदा जज ही लोकतंत्र की हत्या की दुहाई देते हुए प्रैस वार्ता तक कर चुके हैं। नि:संदेह भारत में लोकतंत्र तब ही बढ़ेगा-फूलेगा जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भी सहन किया जाएगा। न्याय जैसे क्षेत्र की शुद्धता को कायम रखने के लिए विरोध को भी सम्मान देना होगा।

 

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