विदेश नीति: 2019 के चुनावों से नाता नहीं

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17वीं लोक सभा के लिए चुनाव जारी हैं किंतु दुनिया के शेष देशों के साथ भारत के सबंधों के बारे में चुनाव प्रचार के दौरान बहुत कुछ सुनने को नहीं मिल रहा है। एक आशावादी आंकलन के अनुसार भारत की अर्थव्यवस्था 3 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बन गई है और शीघ्र ही यह विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगी और हो सकता है यह चीन को पीछे छोड़ दे तथा उससे विश्व के मामले में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की अपेक्षा की जाए। इन महत्वाकांक्षाओं के बीच अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में भारत को उचित स्थान दिलाने के बारे में बातें क्यों नहीं हो रही हैं। यह चुनाव पिछले चुनावों से कठिन है और इसमें प्रतिद्वंदी पार्टियां पूरा जोर लगा रहीं हैं।

भारत में चुनावो में विदेश नीति से संबंधित मुद्दों के अभाव के बारे में यह स्पष्टीकरण दिया जाता रहा है कि आम आदमी का विदेश नीति के मुद्दों से सीधा सरोकार नहीं होता है इसलिए चुनावों के संबंध में आम आदमी से विदेश नीति के मुद्दों पर वोट नहीं लिए जा सकते हैं। भारत के मतदाता तब हरकत में आते हैं जब उनका दैनिक जीवन प्रभावित होता है। उदाहरण के लिए पूर्वोत्तर में विशेषकर असम में अप्रवास और नागरिकता का मुद्दा हाल में महत्वपूर्ण बन गया था। साथ ही हमारे नेता राष्ट्रीय राजनीति में इतने उलझे होते हैं कि वे विदेश नीति पर ध्यान नहीं देते हैं और यह सत्तारूढ़ दल मुख्यतया प्रधानमंत्री कार्यालय और विदेश मंत्रालय के अधिकारियों पर छोड़ दिया जाता है। तीसरा, विदेश नीति चुनावों के परिणाम पर निर्णायक प्रभाव नहीं डालती है।

उदाहरण के लिए 1999 में वाजपेयी की सरकार ने कारगिल युद्ध लड़ा और आम चुनावों में जीत दर्ज की। वाजपेयी को एक दृढ़ निश्चयी नेता माना जाता था। वर्ष 2008 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मुंबई में आतंकवादी हमले के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की। उन्हें कमजोर और अनिर्णायक नेता माना जाता था किंतु 2009 के चुनावों में वे अधिक बहुमत से जीते। इसलिए भारत में विदेश नीति चुनावी मुद्दा नहीं बनती है। किंतु अब लगता है स्थिति बदल गयी है नरेन्द्र मोदी सरकार भारतीय राजनीति में राष्ट्रवाद के कार्ड को खेल रही है। यह उनकी चुनावी रणनीति हो सकती है या दृढ़ विश्वास की देश तभी प्रगति के रास्ते पर आगे बढ़ सकता है जब वह मजबूत और दृढ़ निश्चयी हो। भाजपा द्वारा जिस राष्ट्रवाद की बात की जा रही है उस पर बहस की जाती है किंतु इससे चर्चा में अंतर्राष्ट्रीय मुद्दे आ गए हैं।

इस संदर्भ में हम दो मुख्य पार्टियों भाजपा और कांग्रेस के चुनाव घोषणा पत्रों में विदेश नीति के संदर्भ में नजर डालते हैं। वस्तुत: दोनों के चुनाव घोषणा पत्र में इस बारे में बहुत कुछ नहीं लिखा गया है। दोनों पार्टियों ने अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद का सामना करने और व्यापार बढ़ाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मंचों का प्रयोग करने की बात कही है। कांग्रेस का रूख संयुक्त राष्ट्र की ओर रहा है और वह आतंकवाद के प्रति नरम रही है। उसके घोषणा पत्र में कहा गया है कि वह आतंकवाद का समर्थन कर रहे देशों और संगठनों के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मंचों से कठोर कदम उठाने पर महत्व देगा।

कांग्रेस अन्य देशों को कहेगी कि वह पाकिस्तान को आतंकवाद को प्रश्रय देने से रोकने हेतु बाध्य करे। जबकि इस बारे में भाजपा का रूख अग्रलक्षी है और उसके घोषणा पत्र में कहा गया है कि वह आतंकवाद और भ्रष्टाचार जैसी वैश्विक बुराइयों के समाधान के लिए संयुक्त राष्ट्र, जी20, ब्रिक्स, शंघाई कोआॅपरेशन आर्गेनाइजेशन और राष्ट्रमंडल जैसे अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों का उपयोग करेगा। इसमें कहा गया है कि भारत के हित खुले, समावेशी और सुरक्षित हिन्द्र प्रशान्त क्षेत्र सुनिश्चित करने में निहित हंै। दोनों पार्टियां संयुक्त राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद् और परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में भारत की स्थायी सदस्यता की बात करते हैं किंतु इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए उन्होने रणनीति नहीं बतायी है। दोनों पार्टियों की पड़ोसी देशों विशेषकर सार्क के बारे में अलग अलग राय है। कांग्रेस कहती है कि व्यापार, निवेश, पर्यटन और सांस्कृतिक आदान प्रदान के मामले में भौगोलिक निकटता के लाभ अर्जित करने हेतु सार्क को मजबूत किया जाएगा किंतु भाजपा ने सार्क का उल्लेख नहीं किया है। उसका कहना है कि सार्क में पाकिस्तान के रहते हुए यह संगठन आगे नहीं बढ़ सकता है इसलिए भाजपा ने बीआईएमएसटीईसी पर बल दिया है जिसकी स्थापना पाकिस्तान के बिना 1997 में की गयी थी। भाजपा ने आसियान देशों के साथ भी संबंध सुदृढ़ करने पर बल दिया है। सार्क के संबंध में भाजपा का रूख उचित है क्योंकि यह एक समेकित क्षेत्रीय निकाय नहीं है और सार्क देशों के बीच केवल 5 प्रतिशत का अंतरक्षेत्रीय व्यापार होता है और उसमें पाकिस्तान जैसे सदस्य भी हैं।

आसियान के साथ मजबूत संबंधों से इस क्षेत्र में भारत का प्रभाव बढ़ सता है क्योंकि आसियान देश भारत को चीन के विरुद्ध संतुलन स्थापित करने वाला मानते हैं किंतु भारत आसियान के बीच भी व्यापार बहुत कम है। यह आसियान के कुल व्यापार का 2.5 प्रतिशत है जबकि चीन के साथ उसका व्यापार 14.1 प्रतिशत है। वैश्विक स्थित के बारे में भाजपा और कांग्रेस के अलग अलग विचार हैं। कांग्रेस चाहती है कि वह गुटनिरपेक्षता की विरासत को बनाए रखे और विदेश नीति के निर्माण में रणनीतिक स्वायत्तता अपनाए जबकि भाजपा वसुधैव कुटुम्बकम में विश्वास करती है और गुटनिरपेक्षता के बजाए रणनीतिक साझीदारी बनाने में विश्वास करती है जैसा कि वर्तमान में जापान, अमरीका और भारत के बीच त्रिपक्षीय वार्ता चल रही है और चीन और रूस के साथ उसने शंघाई कोआॅपरेशन आगेर्नाइजेशन की वातार्ओं में भाग लिया है। संस्थागत मोर्चे पर कांग्रेस चाहती है कि कूटनयिक कॉडर की संख्या बढ़ायी जाए क्योंकि भारत में एक हजार से भी कम कूटनयिक हैं।

वह राष्ट्रीय विदेश नीति परिषद बनाने के पक्ष में है जिसमें मंत्रिमंडलीय समिति, राष्ट्रीय सुरक्षा विशेषज्ञ और इस क्षेत्र के विशेषज्ञ हों। जबकि अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद के बारे में भाजपा राष्ट्रों की समिति के पक्ष में है जो वैश्विक आतंकवाद का मुकाबला करने के लिए एक वैश्विक संगठन होगा। कांग्रेस शरणार्थियों के बारे में कानून लाना चाहती है जबकि भाजपा नागरिकता विधेयक लाना चाहती है। भारत ने अभी 1951 के संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी संधि पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं।
तथापि दोनों दलों के चुनाव घोषणा पत्र में कुछ भी लिखा हो किंतु भाजपा 14 फरवरी 2019 को पुलवामा में हमारे सीआरपीएफ के काफिले पर हुए हमले के बदले में बालाकोट पर सर्जिकल स्ट्राइक का बढ़ा चढ़ाकर प्रचार कर रही है। बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक से मध्य वर्ग का मतदाता प्रभावित हो सकता है। पाकिस्तान से निपटने के बारे में बार बार उल्लेख किया जा रहा है। दोनों पार्टियां एक दूसरे पर पाक नेतृत्व से सांठगांठ का आरोप लगा रही हैं।

चीन और पाकिस्तान के नेताओं ने मोदी की जीत के बारे में बयान दिए हैं। किंतु यह विचित्र लगता है जबकि पाकिस्तान के प्रति नमो का रूख कड़ा है और चीन के प्रति भी उतना मैत्रीपूर्ण नहीं है फिर भी दोनों देशों ने उनके नेतृत्व का समर्थन किया है। कांग्रेस ने मोदी के नेतृत्व के इस पहलू का लाभ नहीं उठाया है। पड़ोसी देशों और आसियान के अलावा किसी बड़े देश या साझीदार के बारे में दोनों पार्टियों के चुनाव घोषणा पत्र में कोई उल्लेख नहीं है और यह बताता है कि विदेश नीति का भारत के चुनावों से दूर का वास्ता है। भारत के घरेलू मुद्दे अधिक महत्वपूर्ण हैं। जब भारत का विदेशों में प्रभाव बढ़ेगा और व्यापार बढ़ेगा तथा नागरिक समाज के स्तर पर अन्य देशों के साथ संबंध बढ़ेंगे तो विदेश नीति भी एक प्रमुख चुनावी मुद्दा बनेगा। सत्ता में कोई भी पार्टी हो किंतु यह एक क्रमिक और तार्किक विकास है और हमें इस पर नजर रखनी चाहिए।
  डॉ. डीके. गिरी

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