बेनजीता रही मेड्रिड जलवायु वार्ता

climate talks

ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट की रिपोर्ट पर गौर करें तो अमेरिका और चीन ने कोयले पर अपनी निर्भरता काफी कम कर दी है। इसके स्थान पर वह तेल और गैस का इस्तेमाल कर रहे हैं। लेकिन भारत की बात करें तो उसकी कुल आबादी का एक बड़ा हिस्सा आज भी कोयले पर निर्भर है। अच्छी बात यह है कि भारत ने गत वर्ष पहले पेरिस जलवायु समझौते को अंगीकार करने के बाद क्योटो प्रोटाकाल के दूसरे लक्ष्य को अंगीकार करने की मंजूरी दे दी है। इसके तहत देशों को 1990 की तुलना में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को 18 फीसद तक घटाना होगा।

मेड्रिड में जलवायु के मुद्दे पर चली मैराथन वार्ता आखिरकार बेनतीजा रही। कार्बन बाजार पर कोई समझौता हुए बिना ही वार्ता समाप्त हो गयी। दो सप्ताह तक 200 देशों के प्रतिनिधियों ने हरसंभव प्रयास किया कि 2015 के पेरिस समझौते की शर्तों को मूर्त रुप देकर कार्बन उत्सर्जन में कटौती के महत्वकांक्षी लक्ष्य को साधा जाए, लेकिन वे इसमें नाकाम साबित हुए। जब करार की उम्मीद में बातचीत की मियाद को रविवार तक बढ़ाया गया तो उम्मीद बंधी की शायद सहमति बन सकती है। लेकिन कोई सार्थक परिणाम नहीं निकला। जबकि वैज्ञानिकों ने पूरे वर्ष कार्बन उत्सर्जन के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंचने और जलवायु पर असर को लेकर चेताते रहे।

आश्चर्यजनक रुप से पर्यवेक्षकों ने बैठक बेनतीजा होने के लिए जी-20 देशों को जिम्मेदार ठहराते हुए आरोप लगाया कि बड़ी अर्थव्यवस्थाएं अपनी प्रतिबद्धता पूरी करने और सबसे बुरी तरह से प्रभावित देशों की मदद करने में नाकाम रही जबकि पेरिस समझौते के तहत यह बाध्यकारी है। गौर करें तो संयुक्त राष्ट्र व पर्यवेक्षकों की बढ़ते प्रदूषण को लेकर गहराती चिंता और दुनिया के देशों से यह आग्रह कि कार्बन के उत्सर्जन में कमी के साथ खनिज ईधन का प्रयोग बंद हो, यह यों ही नहीं है। गत जलवायु सम्मेलन में भी कार्बन के उत्सर्जन में कमी लाने की अपील की गयी थी लेकिन दुनिया के देशों पर उसका तनिक भी असर नहीं हुआ। उल्टे कार्बन के उत्सर्जन में वृद्धि ही पायी गयी।

पर्यवेक्षकों की मानेंं तो इस वर्ष कार्बन डाईआॅक्साइड के उत्सर्जन में और अधिक तेजी आने की उम्मीद है। ऐसा इसलिए कि ब्रिटेन में मौसम विभाग के कार्यालय और एक्जेटर विश्वविद्यालय के अनुसंधानकतार्ओं ने अपने शोध में पाया है कि हवाई स्थित मौना लोआ वेधशाला में वायुमंडल में कार्बन डाईआॅक्साइड की सघनता में 1958 से करीब 30 प्रतिशत बढ़ोत्तरी हुई है। इसके लिए मुख्य रुप से जीवाश्म ईंधनों, वनों की कटाई और सीमेंट उत्पादन को जिम्मेदार ठहराया गया है। मौसम विज्ञान कार्यालय ने आशंका जाहिर की है कि अगले वर्ष कार्बन डाईआॅक्साइड का उत्सर्जन पूर्व की तुलना में 2.75 भाग प्रति दस लाख अधिक होगा।

नासा के गोडार्ड इंस्टीट्यूट आॅफ स्पेस स्टडीज के मुताबिक 2018 में वैश्विक तापमान 1951 से 1980 के औसत तापमान से 0.83 डिग्री सेल्सियस ज्यादा था। गौर करें तो इस स्थिति के लिए काफी हद तक कार्बन डाईआॅक्साइड का उत्सर्जन ही जिम्मेदार है। एक आंकड़ें के मुताबिक अब तक वायुमण्डल में 36 लाख टन कार्बन डाइआॅक्साइड की वृद्धि हो चुकी है और वायुमण्डल से 24 लाख टन आॅक्सीजन समाप्त हो चुकी है। अगर यही स्थिति रही तो 2050 तक पृथ्वी के तापक्रम में लगभग 4 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि तय है। वैज्ञानिकों की मानें तो बढ़ते तापमान के लिए मुख्यत: ग्लोबल वार्मिंग है और इससे निपटने की त्वरित कोशिश नहीं हुई तो आने वाले वर्षों में धरती का खौलते कुंड में परिवर्तित होना तय है। अमेरिकी वैज्ञानिकों की मानें तो वैश्विक औसत तापमान पिछले सवा सौ सालों में अपने उच्चतम स्तर पर है।

औद्योगिकरण की शुरूआत से लेकर अब तक तापमान में 1.25 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो चुकी है। आंकड़ों के मुताबिक 45 वर्षों से हर दशक में तापमान में 0.18 डिग्री सेल्सियस का इजाफा हुआ है। आइपीसीसी के आंकलन के मुताबिक 21 सवीं सदी में पृथ्वी की सतह के औसत तापमान में 1.1 से 2.9 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोत्तरी होने की आशंका है। अमेरिकी वैज्ञानिकों ने वायु में मौजूद आॅक्सीजन और कार्बन डाईआॅक्साइड के अनुपात पर एक शोध में पाया है कि बढ़ते तापमान के कारण वातावरण से आॅक्सीजन की मात्रा तेजी से कम हो रही है। पिछले आठ सालों में वातारवरण से आॅक्सीजन काफी रफ्तार से घटी है। वैज्ञानिकों का कहना है कि पृथ्वी का तापमान जिस तेजी से बढ़ रहा है उस पर काबू नहीं पाया गया तो अगली सदी में तापमान 60 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच सकता है।

वैज्ञानिकों के मुताबिक अगर पृथ्वी के तापमान में मात्र 3.6 डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि होती है तो आर्कटिक के साथ-साथ अण्टाकर्टिका के विशाल हिमखण्ड पिघल जाएंगे। देखा भी जा रहा है कि बढ़ते तापमान के कारण उत्तरी व दक्षिणी ध्रुव की बर्फ चिंताजनक रुप से पिघल रही है। अगर बर्फ का पिघलना थमा नहीं तो आने वाले वर्षों में न्यूयॉर्क, लॉस एंजिल्स, पेरिस और लंदन, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, पणजी, विशाखापट्टनम कोचीन और त्रिवेंद्रम नगर समुद्र में होंगे। वर्ष 2007 की इंटरगवर्नमेंटल पैनल की रिपोर्ट के मुताबिक बढ़ते तापमान के कारण दुनिया भर के करीब 30 पर्वतीय ग्लेशियरों की मोटाई अब आधे मीटर से कम रह गयी है।

हिमालय क्षेत्र में पिछले पांच दशकों में माउंट एवरेस्ट के ग्लेशियर 2 से 5 किलोमीटर सिकुड़ गए हैं। 76 फीसद ग्लेशियर चिंताजनक गति से सिकुड़ रहे हैं। कश्मीर और नेपाल के बीच गंगोत्री ग्लेशियर भी तेजी से सिकुड़ रहा है। कई जातियां धीरे-धीरे ध्रुवीय दिशा या उच्च पर्वतों की ओर विस्थापित हो जाएंगी। जातियों के वितरण में इन परिवर्तनों का जाति विविधता तथा पारिस्थितिकी अभिक्रियाओं इत्यादि पर गहरा असर पड़ेगा। यहां ध्यान रखना होगा कि पृथ्वी पर करीब 12 करोड़ वर्षों तक राज करने वाले डायनासोर नामक दैत्याकार जीवों के समाप्त होने का कारण भूमंडलीय तापन ही था। बढ़ते तापमान पर नियंत्रण के लिए भारत एवं वैश्विक समुदाय को कमर कसना होगा। पर्यावरणविदों की मानें तो बढ़ते तापमान के लिए मुख्यत: ग्रीन हाउस गैस, वनों की कटाई और जीवाश्म ईंधन का दहन है। तापमान में कमी तभी आएगी जब वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में कमी होगी।

संयुक्त राष्ट्र की ग्लोबल फॉरेस्ट रिसोर्स एसेसमेंट (जीएफआरए) की रिपोर्ट में कहा गया है कि 1990 से 2015 के बीच कुल वन क्षेत्र तीन फीसद घटा है और 102,000 लाख एकड़ से अधिक का क्षेत्र 98,810 लाख एकड़ तक सिमट गया है। यानी 3,190 लाख एकड़ वनक्षेत्र में कमी आयी है। गौर करें तो यह क्षेत्र दक्षिण अफ्रीका के आकार के बराबर है। रिपोर्ट में कहा गया है कि प्राकृतिक वन क्षेत्र में कुल वैश्विक क्षेत्र की दोगुनी अर्थात छ: फीसद की कमी आयी है। उष्णकटिबंधीय वन क्षेत्रों की स्थिति और भी दयनीय है।

यहां सबसे अधिक 10 फीसद की दर से वन क्षेत्र का नुकसान हुआ है। वनों के विनाश से वातावरण जहरीला हुआ है और प्रतिवर्ष 2 अरब टन अतिरिक्त कार्बन-डाइआॅक्साइड वायुमण्डल में घुल-मिल रहा है। इससे जीवन का सुरक्षा कवच मानी जाने वाली ओजोन परत को नुकसान पहुंच रहा है। ओजोन को पृथ्वी का सुरक्षा कवच कहा जाता है क्योंकि यह जीवों की सूर्य की पराबैगनी किरणों से रक्षा करता है। बेहतर होगा कि वैश्विक समुदाय बढ़ते तापमान से निपटने के लिए कार्बन डाईआॅक्साइड के उत्सर्जन पर नियंत्रण का कोई ठोस प्रभावी उपाय ढ़ुढ़ें।
अरविंद जयतिलक

 

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