‘अनाज की रानी’ करेगी किसानों को मालामाल

Maize Crop

मक्का दूसरे स्तर की फसल है, जो अनाज और चारा दोनों के लिए प्रयोग की जाती है। मक्की को ‘अनाज की रानी’ के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि बाकी फसलों के मुकाबले इसकी पैदावार सब से ज्यादा है। इससे भोजन पदार्थ भी तैयार किए जाते हैं जैसे कि स्टार्च, कॉर्न फ्लैक्स और गुलूकोज आदि। यह पोल्टरी वाले पशुओं की खुराक के तौर पर भी प्रयोग की जाती है। मक्की की फसल हर तरह की मिट्टी में उगाई जा सकती है क्योंकि इसे ज्यादा उपजाऊपन और रसायनों की जरूरत नहीं होती। इसके इलावा यह पकने के लिए 3 महीने का समय लेती है जो कि धान की फसल के मुकाबले बहुत कम है, क्योंकि धान की फसल पकने के लिए 145 दिनों का समय लेती है।

मक्की की फसल उगाने से किसान अपनी खराब मिट्टी वाली जमीन को भी बचा सकते हैं, क्योंकि यह धान के मुकाबले 90 प्रतिशत पानी और 79 प्रतिशत उपजाऊ शक्ति को बरकरार रखती है। यह गेहूं और धान के मुकाबले ज्यादा फायदे वाली फसल है। इस फसल को कच्चे माल के तौर पर उद्योगिक उत्पादों जैसे कि तेल, स्टार्च, शराब आदि में प्रयोग किया जाता है। मक्की की फसल उगाने वाले मुख्य राज्य उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर और पंजाब हैं। दक्षिण में आंध्रा प्रदेश और कर्नाटक मुख्य मक्की उत्पादक राज्य हैं।

जलवायु-

  • तापमान 25-30 डिग्री सेल्सियस
  • वर्षा 50-100 सेमी.

बिजाई के समय तापमान

  • 25-30 डिग्री सेल्सियस
  • कटाई के समय तापमान
  • 30-35 डिग्री सेल्सियस

मिट्टी- मक्की की फसल लगाने के लिए उपजाऊ, अच्छे जल निकास वाली, मैरा और लाल मिट्टी जिसमें नाइट्रोजन की उचित मात्रा हो, जरूरी है। मक्की रेतली से लेकर भारी हर तरह की जमीनों में उगाई जा सकती हैं। समतल जमीनें मक्की के लिए बहुत अनुकूल हैं, पर कईं पहाड़ी इलाकों में भी यह फसल उगाई जाती है। अधिक पैदावार लेने के लिए मिट्टी में जैविक तत्वों की अधिक मात्रा पी एच 5.5-7.5 और अधिक पानी रोककर रखने में सक्षम होनी चाहिए। बहुत ज्यादा भारी जमीनें भी इस फसल के लिए अच्छी नहीं मानी जाती। खुराकी तत्वों की कमी पता करने के लिए मिट्टी की जांच करवाना आवश्यक है।

जमीन की तैयारी-

फसल के लिए प्रयोग किया जाने वाला खेत नदीनों और पिछली फसल से मुक्त होना चाहिए। मिट्टी को नर्म करने के लिए 6 से 7 बार जोताई करें। खेत में 4-6 टन प्रति एकड़ रूड़ी की खाद और 10 पैकेट एजोसपीरीलम के डालें। खेत में 45-50 सैं.मी. के फासले पर खाल और मेंड़ बनाएं।

बिजाई का समय-

खरीफ की ऋतु में यह फसल मई के आखिर से जून में मानसून आने पर बोयी जाती है। बेबी कॉर्न दिसंबर-जनवरी को छोड़कर बाकी सारा साल बोयी जा सकती है। रबी और खरीफ की ऋतु स्वीट कॉर्न के लिए सब से अच्छी होती है।

फासला-

  • अधिक पैदावार लेने के लिए स्त्रोतों का सही प्रयोग और पौधों में सही फासला होना जरूरी है।
  • खरीफ की मक्की के लिए:- 6220 सैं.मी.
  • स्वीट कॉर्न :- 6020 सैं.मी.
  • बेबी कॉर्न :- 6020 सैं.मी. या 6015 सैं.मी.
  • पॉप कॉर्न:- 5015 सैं.मी.
  • चारा:- 3010 सैं.मी.

बीज की गहराई-

बीजों को 3-4 सैं.मी. गहराई में बीजें। स्वीट कॉर्न की बिजाई 2.5 सैं.मी. गहराई में करें।

बिजाई का ढंग-

बिजाई हाथों से गड्ढा खोदकर या आधुनिक तरीके से ट्रैक्टर और सीड डरिल की सहायता से मेंड़ बनाकर की जा सकती है।

बीज की मात्रा-

बीज का मकसद, बीज का आकार, मौसम, पौधे की किस्म, बिजाई का तरीका आदि बीज की दर को प्रभावित करते हैं।

  • खरीफ की मक्की के लिए:- 8-10 किलो प्रति एकड़
  • स्वीट कॉर्न- 8 किलो प्रति एकड़
  • बेबी कॉर्न- 16 किलो प्रति एकड़
  • पॉप कॉर्न- 7 किलो प्रति एकड़
  • चारा- 20 किलो प्रति एकड़

मिश्रित खेती: मटर और मक्की की फसल को मिलाकर खेती की जा सकती है। इसके लिए मक्की के साथ एक पंक्ति मटर लगाएं। पतझड़ के मौसम में मक्की को गन्ने के साथ भी उगाया जा सकता है। गन्ने की दो पंक्तियों के बाद एक पंक्ति मक्की की लगाएं।

खादें (किलोग्राम प्रति एकड़)

(मिट्टी की जांच के मुताबिक ही खाद डालें) सुपर फासफेट 75-150 किलो, यूरिया 75-110 किलो और पोटाश 15-20 किलो (यदि मिट्टी में कमी दिखे) प्रति एकड़ डालें। एस एसपी और एमओपी की पूरी मात्रा और यूरिया का तीसरा हिस्सा बिजाई के समय डालें। बाकी बची नाइट्रोजन पौधों के घुटनों तक होने और गुच्छे बनने से पहले डालें। मक्की की फसल में जिंक और मैग्नीश्यिम की कमी आम देखने को मिलती है और इस कमी को पूरा करने के लिए जिंक सलफेट 8 किलो प्रति एकड़ बुनियादी खुराक के तौर पर डालें। जिंक और मैग्नीशियम के साथ साथ लोहे की कमी भी देखने को मिलती है जिससे सारा पौधा पीला पड़ जाता है। इस कमी को पूरा करने के लिए 25 किलो प्रति एकड़ सूक्ष्म तत्वों को 25 किलो रेत में मिलाकर बिजाई के बाद डालें।

खरपतवार नियंत्रण-

खरीफ ऋतु की मक्की में नदीन बड़ी समस्या होते हैं, जो कि खुराकी तत्व लेने में फसल से मुकाबला करते हैं और 35 प्रतिशत तक पैदावार कम कर देते हैं इसलिए अधिक पैदावार लेने के लिए नदीनों का हल करना जरूरी है। मक्की की कम से कम दो गोडाई करें। पहली गोडाई बिजाई से 20-25 दिन बाद और दूसरी गोडाई 40-45 दिनों के बाद, पर ज्यादा होने की सूरत में एट्राजिन 500 ग्राम प्रति 200 लीटर पानी से स्प्रे करें। गोडाई करने के बाद मिट्टी के ऊपर खाद की पतली परत बिछा दें और जड़ों में मिट्टी लगाएं।

सिंचाई-

बिजाई के तुरंत बाद सिंचाई करें। मिट्टी की किस्म के आधार पर तीसरे या चौथे दिन दोबारा पानी लगाएं। यदि बारिश पड़ जाये तो सिंचाई ना करें। छोटी फसल में पानी ना खड़ने दें और अच्छे जल निकास का प्रबंध करें। फसल को बीजने से 20-30 दिन तक कम पानी दें और बाद में सप्ताह में एक बार सिंचाई करें। जब पौधे घुटने के कद के हो जायें तो फूल निकलने के समय और दाने बनने के समय सिंचाई महत्तवपूर्ण होती है। यदि इस समय पानी की कमी हो तो पैदावार बहुत कम हो जाती है। यदि पानी की कमी हो तो एक मेंड़ छोड़कर पानी दें। इससे पानी भी बचता है।

बीमारियां और रोकथाम-

तने का गलना : इससे तना जमीन के साथ फूल कर भूरे रंग का जल्दी टूटने वाला और गंदी बास मारने वाला लगता है।
इसे रोकने के लिए पानी खड़ा ना होने दें और जल निकास की तरफ ध्यान दें। इसके इलावा फसल के फूल निकलने से पहले ब्लीचिंग पाउडर 33 प्रतिशत कलोरीन 2-3 किलो प्रति एकड़ मिट्टी में डालें।

टी एल बी: यह बीमारी उत्तरी भारत, उत्तर पूर्वी पहाड़ियों और प्रायद्विपीय क्षेत्र में ज्यादा आती है और एक्सरोहाइलम टरसीकम द्वारा फैलती है। यदि यह बीमारी सूत कातने के समय आ जाए तो आर्थिक नुकसान भी हो सकता है। शुरू में पत्तों के ऊपर छोटे फूले हुए धब्बे दिखाई देते हैं और नीचे के पत्तों को पहले नुकसान होता है और बाद में सारा बूटा जला हुआ दिखाई देता है। यदि इसे सही समय पर ना रोका जाये तो यह 70 प्रतिशत तक पैदावार कम कर सकता है। इसे रोकने के लिए बीमारी के शुरूआती समय में मैनकोजेब या जिनेब 2-4 ग्राम को प्रति लीटर पानी में मिलाकर 10 दिनों के अंतराल पर स्प्रे करें।

पत्ता झुलस रोग: यह बीमारी गर्म ऊष्ण, उप ऊष्ण से लेकर ठंडे शीतवण वातावरण में आती है और बाइपोलैरिस मैडिस द्वारा की जाती है। शुरू में जख्म छोटे और हीरे के आकार के होते हैं और बाद में लंबे हो जाते हैं। जख्म आपस में मिलकर पूरे पत्ते को जला सकते हैं। डाइथेन एम-45 या जिÞनेब 2.0-2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर 7-10 दिन के फासले पर 2-4 स्प्रे करने से इस बीमारी को शुरूआती समय में ही रोका जा सकता है।

पत्तों के नीचे भूरे रंग के धब्बे : इस बीमारी की धारियां नीचे के पत्तों से शुरू होती हैं। यह पीले रंग की और 3-7 मि.मी. चौड़ी होती हैं। जो पत्तों की नाड़ियों तक पहुंच जाती हैं। यह बाद में लाल और जामुनी रंग की हो जाती हैं। धारियों के और बढ़ने से पत्तों के ऊपर धब्बे पड़ जाते हैं। इसे रोकने के लिए रोधक किस्मों का प्रयोग करें। बीज को मैटालैक्सिल 6 ग्राम से प्रति किलो बीज का उपचार करें। प्रभावित पौधों को उखाड़कर नष्ट कर दें और मैटालैक्सिल 1 ग्राम या मैटालैक्सिल+मैनकोजेब 2.5 ग्राम को प्रति लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें।

फूलों के बाद टांडों का गलना: यह एक बहुत ही नुकसानदायक बीमारी है जो कि बहुत सारे रोगाणुओं के द्वारा इकट्ठे मिलकर की जाती है। यह जड़ों, शिखरों और तनों के उस हिस्से पर जहां दो गांठे मिलती हैं, पर नुकसान करती है। इस बीमारी के ज्यादा आने की सूरत में पोटाशियम खाद का प्रयोग कम करें। फसलों को बदल बदल कर लगाएं और फूलों के खिलने के समय पानी की कमी ना होने दें। खालियों में टराइकोडरमा 10 ग्राम प्रति किलो रूड़ी की खाद में बिजाई के 10 दिन पहले डालें।

पाइथीयम तना गलन : इससे पौधे की निचली गांठें नर्म और भूरी हो जाती हैं और पौधा गिर जाता है। प्रभावित हुई गांठे मुड़ जाती हैं। बिजाई से पहले पिछली फसल के बचे कुचे को नष्ट करके खेत को साफ करें। पौधों की सही संख्या रखें और मिट्टी में कप्तान 1 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर गांठों के साथ डालें।

 

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