तालिबान के लिए पंजशीर के बाद भी आसान नहीं राहें।

अफगानिस्तान में राजनीतिक संकट दिन-ब-दिन गहराता जा रहा है, तालिबान के काबुल पर कब्जा करने के बाद शेष बचे पंजशीर इलाके में भी तालिबानी झंडा फहरा कर यह साबित कर दिया है कि अब अफगानिस्तान में तालिबानियों की ही हकूमत चलेगी। पर अभी तक सरकार के गठन का रास्ता नहीं निकला है। पहले तो लग रहा था कि 31 अगस्त को अमेरिका के पूरी तरह से चले जाने के बाद तालिबान अपनी सरकार बना लेगा और भविष्य का रास्ता साफ होगा। परन्तु तालिबान और दूसरे गुटों के सत्ता संघर्ष ने सरकार गठन की कोशिशों को और जटिल बना दिया है। तालिबान ने एक बार फिर पूरे विश्व की नजरों को अपनी ओर खींचा है, क्योंकि मीडिया के अनुसार तालिबान ने नई सरकार का मुखिया मुल्ला अब्दुल गनी बरादर को चुन लिया है। यदि ऐसा है तब इससे इस बात का अंदाजा लगा पाना कोई मुश्किल नहीं होगा कि अफगानिस्तान की सत्ता को लेकर अब गुटीय संघर्ष कितने तेज होते जा रहे हैं! अमेरिका की वापसी में भी बरादर का बड़ा हाथ है। बरादर को अमेरिका ने ही पाकिस्तान की जेल से छुड़ाया था।

अत: हम कह सकते हैं कि जिन तालिबानी नेताओं को अमेरिका ने आगे बढ़ाया, नेतृत्व उन्हीं के पास है। दरअसल अफगानिस्तान पर कब्जे के लिए कई महीनों तक चली लड़ाई अकेले तालिबान ने नहीं लड़ी, बल्कि इसमें आतंकी संगठनों की भी बराबर की भूमिका रही है। इसलिए अब कोई भी सत्ता को हाथ से नहीं जाने देना चाहेगा। सत्ता के लिए मारकाट जैसे हालात भी देखने को मिलने लगें तो हैरानी नहीं होगी। बरादर की भूमिका बाहर से तालिबान को मजबूत करने में ज्यादा रही है। वह लंबे समय से तालिबान के राजनीतिक मामलों को देख रहे हैं और इसी का उन्हें फायदा मिला है। इस बात के संकेत पहले से ही मिल रहे थे कि अबकी बार तालिबान के लिए सरकार बना पाना उतना आसान नहीं होगा, जितना आज से ढाई दशक पहले था। यह तो जगजाहिर है कि अफगानिस्तान की अमेरिका समर्थित निर्वाचित सरकारों और अमेरिकी व गठबंधन सेना के खिलाफ जंग में पाकिस्तान तालिबान को हर तरह से मदद करता रहा। उसने तालिबान को हथियारों से लेकर लड़ाके तक दिए। पाकिस्तान ने तालिबान के पिछले शासन को भी मान्यता दी थी।

इसलिए अब अफगानिस्तान तालिबान की भी मजबूरी है कि वह अब उसी रास्ते पर चलेगा जिस पर पाकिस्तान उसे ले जाएगा। इसका ताजा सबूत दो दिन पहले पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी के प्रमुख की काबुल यात्रा है। इससे पाकिस्तान एक बार फिर बेनकाब हो गया है। पाकिस्तान किसी भी तरह से तालिबान सरकार में हक्कानी नेटवर्क की बड़ी भागीदारी चाह रहा है। इससे पाकिस्तान और हक्कानी नेटवर्क के प्रगाढ़ संबंधों की पुष्टि भी होती है। अफगानिस्तान के पूरब के सूबे हक्कानी नेटवर्क के कब्जे में हैं। जाहिर है, ऐसे में वह बराबर की सत्ता चाहेगा। गौरतलब है कि हक्कानी नेटवर्क को अमेरिका ने प्रतिबंधित आतंकी संगठन घोषित किया हुआ है। इस संगठन पर कार्रवाई के लिए वह पाकिस्तान पर लगातार दबाव भी बना रहा है। परन्तु पाकिस्तान हक्कानी नेटवर्क को लगातार मजबूत बनाते हुए अमेरिका को चिढ़ा रहा है। वहीं तालिबान के नए नेतृत्व के कंधे पर सबसे ज्यादा जिम्मेदारी होगी। दुनिया देखना चाहेगी कि उन्होंने उन अमेरिकियों के साथ बैठकर क्या सीखा है, जो कम से कम अपने देश में सुशासन और लोकतंत्र के लिए पहचाने जाते हैं।

 

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