रूस द्वारा मध्यस्थता की भूमिका

कुछ पर्यवेक्षकों और विशेषज्ञों की भविष्यवाणी को नकारते हुए भारत ने रूस में शंघाई सहयोग संगठन की बैठक में भाग लिया। इस स्तंभ में मैंने पहले भी लिखा था कि भारत को इस बैठक में भाग नहीं लेना चाहिए। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने इस बैठक में भाग लिया। पिछले दो महीने में रक्षा मंत्री की यह रूस की दूसरी यात्रा है। वहां पर उन्होंने चीन के रक्षा मंत्री से मुलाकात की और उसके बाद विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भी चीन के विदेश मंत्री से मुलाकात की। शायद भारत ने दो कारणों से शंघाई सहयोग संगठन की बैठक में भाग लेने का निर्णय किया। पहला, जब तक वास्तविक नियंत्रण रेखा पर सामान्य स्थिति बहाल नहीं होती तब तक चीन के साथ बातचीत जारी रखी जाए और दूसरा रूस को अपने पक्ष में रखा जाए। आज भी भारत अधिकतर हथियार रूस से खरीदता है। किंतु शंघाई सहयोग संगठन की बैठक में भारत द्वारा भाग लेने से मिले-जुले संकेत मिले।

एक ओर यह वास्तविक कूटनीति को ध्यान में रखकर उठाया गया कदम है क्योंकि भारत अभी भी चीन को नियंत्रण रेखा पर वापस खदेडने के लिए सफल सैन्य कार्यवाही करने के लिए तैयार नहीं है। दूसरी ओर लगता है भारत बातचीत की कूटनीति को प्रतिरोधक और बल के प्रयोग के साथ मिलाकर चीन को समझाने का प्रयास कर रहा है और चीन इसी भाषा को समझता है। पाकिस्तान और चीन के प्रति हमारे दृष्टिकोणों में अंतर को समझना आवश्यक है। जहां तक पाकिस्तान का संबंध है भारत ने उसके साथ किसी भी तरह की बातचीत को तब तक शुरू करने से इंकार कर दिया जब तक वह सीमा पार से आतंकवाद को प्रायोजित करना बंद नहीं कर देता है। यही बात चीन पर भी लागू होनी चाहिए थी जिसने हमारे भूभाग पर कब्जा किया है। हम पाकिस्तान की खूब आलोचना करते हैं क्योंकि सैनिक दृष्टि से हम पाकिस्तान से मजबूत हैं और चीन के संबंध में यह स्थिति बिल्कुल उल्टी है। हमारा सैनिक और राजनीतिक नेतृत्व पाकिस्तान में उलझा हुआ है और उसने कभी भी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की सैन्य क्षमताओं पर ध्यान नहीं दिया। नए सिरे से कूटनयिक प्रयासों से इन खामियों को दूर किया जा सकता है।

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चीन के मामले में न केवल हमारी कूटनीति की कमियां रहीं किंतु वर्ष 2020 में लद्दाख संकट ने भारत के नीति-निमार्ताओं की कमियों को भी उजागर किया है। चीन की कूटनीति उसकी शक्ति प्रदर्शन पर निर्भर करती है। वह बातचीत या दिखावा करने में विश्वास नहंी करता है और चीन के इस दृष्टिकोण का भारत के पास कोई प्रत्युत्तर नहंी है। शंघाई सहयोग संगठन चीन की पहल है और इसके माध्यम से उसने रूस और मध्य एशिया में अपने प्रभाव को फैलाने का कार्य किया है। इसकी स्थापना 15 जून 2001 को शंघाई में की गयी और उस समय उसके छह सदस्य देश थे। चीन, कजाखस्तान, तुर्कमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान, किर्गिस्तान, रूस। इसे आर्थिक और सुरक्षा गठबंधन कहा गया। चीन चाहता था कि इसमें पाकिस्तान भी शामिल हो तो रूस ने इस संगठन में चीन के वर्चस्व का मुकाबला करने के लिए भारत का पक्ष लिया और परिणामस्वरूप 9 जून 2017 को भारत और पाकिस्तान शंघाई सहयोग संगठन के सदस्य बने।

किंतु विडंबना देखिए कि शंघाई सहयोग संगठन जैसे सुरक्षा गठबंधन के सदस्य देश जिसका मुखिया चीन है, उन्हें चीन से ही खतरा है। शंघाई सहयोग संगठन की बैठक ऐसे समय पर हो रही है जब चीन और भारत के बीच सैनिक टकराव चल रहा है। पुन: इसकी तुलना पाकिस्तान से करने पर स्पष्ट होता है कि भारत ने 2016 में उरी आतंकवादी हमले के कारण 19वें सार्क शिखर सम्मेलन का बहिष्कार किया था। भारत ने इस आतंकवादी हमले में पाकिस्तान की संलिप्तता के कारण इसमें भाग लेने से इंकार कर दिया था किंतु अपने राष्ट्रीय हित में भारत ने शंघाई सहयोग संगठन की बैठक में भाग लेने का निर्णय किया। क्या हमारा यह दृष्टिकोण प्रमाणिक और व्यावहारिक है? इस बैठक में रक्षा मंत्री की भागीदारी और उसके परिणामों पर गौर करें।

राजनाथ सिंह ने चीन के रक्षा मंत्री से मुलाकात की और इसका आग्रह चीन के रक्षा मंत्री ने किया था। अभी यह बात स्पष्ट नहीं है कि क्या इस मुलाकात के लिए रूस ने मध्यस्थता की थी किंतु उसका परिणाम क्या रहा। इस मुलाकात के दौरान दोनों पक्षों ने सैनिक और कूटनयिक दोनों ही स्तरों पर संपर्क बनाए रखने का वायदा किया। किंतु इस बैठक के बाद जारी बयानों से दोनों पक्षों का अडियल रूख सामने आया। इस बैठक के बाद चीन ने कहा लद्दाख में सीमा पर गतिरोध के लिए भारत पूणर्त: जिम्मेदार है और चीन अपने भूभाग का एक इंच भी नहीं खोएगा। चीन ने भारत से कहा कि वह राष्ट्रपति शी और प्रधानमं.ी मोदी के बीच बनी महत्वपूर्ण सहमति को ईमानदारी से लागू करने का प्रयास करे। उन्होंने उन मुद्दों को बातचीत और परामर्श से हल करने पर बल दिया। भारत ने भी चीनी सेना की कार्यवाही, चीन द्वारा वास्तविक नियंत्रण रेखा पर सैनिकों के जमावडे और चीनी सेना के आक्रामक व्यवहार तथा यथास्थिति को बदलने के एकपक्षीय प्रयासों पर कडे बयान दिए।

भारत ने कहा कि अपनी संप्रभुता और प्रादेशिक अखंडता की रक्षा करने के बारे में हमारे दृढ संकल्प के बारे में कोई संदेह नहीं होना चाहिए। कूटनयिक दृष्टि से सही दृष्टिकोण अपनाते हुए भारत ने इच्छा व्यक्त की कि वह विवाद का शांतिपूर्ण समाधान चाहता है और कहा कि वह वास्तविक नियंत्रण रेखा पर शांति स्थापना के लिए कूटनयिक और सैनिक माध्यमों से बातचीत जारी रखने के लिए दोनों पक्षों को प्रयास करना चाहिए। विदेश मंत्री जयशंकर इस बात पर बल दे रहे हैं और उन्होंने आग्रह किया कि दोनों देशों को अपने मुद्दों का समाधान कूटनयिक ढंग से करना चाहिए और उनका कहना है कि यही इसका सबसे सर्वोत्तम उपाय है। सीमा पर खूनी संघर्ष दोनों पक्षों के लिए उचित नहीं है।

किंतु हम चीनी कूटनीति को समझते हैं। अपने ऐतिहासिक अनुभवों को ध्यान में रखते हुए वे हम यह कह सकते हैं कि हमें या तो चीन ने धोखा दिया या हमें जाल में फंसाए रखा। चीनी कूटनीति पर प्रकाश डालने से पहले हमें इस बात पर गौर करना चाहिए कि हमारी सामरिक रणनीति के लिए क्या चुनौतियां हैं। दोनों देशों के बीच वार्ता का पांचवां दौर चल रहा है। सैनिक सूत्रों के अनुसार टैंकों, तोपों, एयर डिफेंस उपकरणों और अन्य हथियारों सहित सेना की वापसी तभी संभव है जब भारतीय सेना पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के नए रूख को स्वीकार करे जो भारत को स्वीकार्य नहीं है।

पिछले चार महीनो में चीन वास्तविक नियंत्रण रेखा पर अनेक स्थानों पर साढे चार किमी अंदर तक घुसा। कूटनीतिक दृष्टि से चीन अपने महान रणनीतिकार सुन जू की नीति का अनुसरण करता है जिन्होंने आर्ट आफॅ वार पुस्तक लिखी थी। इस पुस्तक में उन्होंने दुश्मन से निपटने के लिए अनेक उपाय सुझाए हैं और भारत के संबंध में उन उपायों में से चीन लगता है इस उपाय को अपना रहा है कि दुश्मन को भ्रम में रखो ताकि वह उनके वास्तविक इरादों को न समझ पाए। हमारे यहां भी चाणक्य हैं। चीन दूसरे देश के भूभाग पर धीरे-धीरे कब्जा करने के लिए कुख्यात है। वह दूसरे देश की भूमि पर कब्जा करता है अ‍ैर फिर बातचीत की पेशकश करता है और उसमें भी दो कदम आगे बढकर एक कदम पीछे जाता है तथा पूर्वी लद्दाख में भी चीन यही रणनीति अपना रहा है। लद्दाख में डेपसांग से लेकर डेमचोक के भाग पर कब्जा कर चीन चाहता है कि भारत पहल करे और पीछे हटे और यह वार्ता उनके लिए एक मुखौटा है। चीन के रक्षा मंत्री हमारे रक्षा मंत्री से मिलने के लिए इसलिए उत्सुुक थे ताकि वे विश्व को यह बता सके कि चीन वार्ता करने का इच्छुक है।

कुल मिलाकर चीन के संबंध में भारतीय कूटनीति द्विपक्षीयता से आगे बढनी चाहिए। सैनिक विकल्प की दृष्टि से भी भारत को अकेले चीन का मुकाबला नहीं करना चाहिए। भारत को विश्व समुदाय का ध्यान इस ओर आकर्षित करना चाहिए और विश्व समुदाय को यह समझाना चाहिए कि चीन विश्व समुदाय के लिए एक खतरा है। अन्य देशों के साथ मिलकर भारत को तिब्बत, ताईवान, हांगकांग आदि के मुद्दे उठाने चाहिए और यहां तक कि चीन द्वारा कब्जा किए गए यूनान और पूर्वी मंगोलिया के मुद्दों को भी उठाना चाहिए। द्वितीय विश्व युद्ध में हिटलर द्वारा पोलैंड को चुनने की तरह भारत को भी स्वयं को चीनी आक्रमण के पीडित के रूप में पेश करना चाहिए। यदि इस संबंध में विश्व समुदाय मोैन रहता है तो फिर इसका परिणाम उसे भी भुगतना पडेगा। यह बात समझ से परे है कि भारत हमारी सीमा पर चीन के आक्रमण को विश्व समुदाय के समक्ष उठाने का इच्छुक क्यों नही हैं।

                                                                                                                -डॉ. डीके गिरी

 

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