यहां पर पूर्ण संत-फकीरों की ‘बेला-ठहर’ है…

डेरा सच्चा सौदा साध बेला, नुहियांवाली, सरसा

डेरे का नामकरण करते हुए साईं मस्ताना जी महाराज (Shah Mastana Ji Maharaj) ने पवित्र मुख से फरमाया, ‘‘भाई! इस डेरे का नाम ‘साध बेला’ रखते है, क्योंकि नुहियां वाली साध-संगत का, खासकर प्रेमी नेकी राम जी का अपने सतगुरु मुर्शिद से हार्दिक प्रेम है। उसने अपने मुर्शिद खुद-खुदा का हुक्म सत् वचन कह कर माना है और इस गरीब मस्ताने का साथ निभाया है। इसलिए हमने इनकी जमीन में पूर्ण संत-फकीरों की ‘बेला-ठहर’ ये डेरा बनाया है यहां पर हम फिर भी कभी-कभी जरूर आया करेंगे।’ पूज्य साईं जी के मुखारबिंद से निकले यह वचन आज भी गांव नुहियांवाली की आबोहवा में गूंजते हुए प्रतीत होते हैं। पूजनीय साईं जी ने यहां अपार रहमत लुटाई। इस अंक में आपको डेरा सच्चा सौदा साध बेला दरबार से जुड़े ऐतिहासिक एवं रोचक तथ्यों से रूबरू करवा रहे हैं।

एक अजीब सी मस्ती

मंद-मंद गति में बहती वेग सर्दी का बखूबी अहसास करवा रही थी, वैसे भी अक्तूबर का महीना अपने अंतिम पडाव में था। सर्दी के करवट बदलने की रुत थी। उस दिन दोपहर की थोड़ी गर्माहट के बीच गांव में भी चहल-पहल शुरू हो चुकी थी, जैसे ही दीवारों पर टंगी घड़ी की सुइयां दो बजने का इशारा करने लगी तो टीन ऐज के बच्चों की दो-तीन टोलियां खुद को रोक नहीं पार्इं और दौड़ पड़ी उस ओर, जिधर से गांव में महान शख्शियत के आने की अटकलें चल रही थी। यह वाक्या सन् 1952 का है, 81 वर्षीय मनफूल सिंह भी उस टोली का हिस्सा थे। वे बताते हैं कि तब मेरी उम्र 10-12 साल के करीब थी। मुझे अच्छे से वह सारा वाक्या याद है।

उस दिन गांव में एक ही चर्चा थी कि कोई पहुंचे हुए बाबा जी आ रहे हैं, बड़ा नाम है उनका। दरअसल पूजनीय बाबा मस्ताना जी महाराज उस दिन गांव नुहियांवाली में पधारने वाले थे। बताया गया कि बाबा जी गदराना से चलकर लकड़ांवाली वाया ओढ़ा होते हुए पैदल ही गांव की ओर आ रहे हैं। मैं भी बच्चों की टोली के साथ एक अजीब सी मस्ती में उधर भागा जा रहा था। गांव से करीब दो किलोमीटर पहले ही उस रास्ते पर पहुंच गए, जिधर से पूज्य सार्इं जी आ रहे थे। वह दृश्य आज भी आंखों के सामने आकर बरबस ही ठहर सा जाता है, जब पूज्य साईं जी को पहली बार इन आंखों ने निहारा था। सच ही कह रहे थे गांव वाले कि कोई महान हस्ती आ रही है।

अब वास्तव में बागड़ का तारणहारा आ चुका है…

एक हाथ में डंगोरी, सफेद बाणा, सफेद दाड़ी, बेशक उस दिन सिर पर पगड़ी नहीं पहनी हुई थी, लेकिन जच्च ऐसे रहे थे कि देखने वालों की आंखें पलकें झपकाना ही भूल जाती। ऐसी विस्मरणीय यादों को ताजा करते हुए मनफूल सिंह का गला भर आया। उस दिन एक ढोलक वाला भी साथ चल रहा था, जो ढोल पर इतनी कस-कस के थाप लगा रहा था कि बच्चे खुद को नाचने से नहीं रोक पा रहे थे। जैसे-जैसे बाबा जी गांव के नजदीक आ रहे थे, त्यों-त्यों ग्रामीणों का जमघट बढ़ता जा रहा था। गांव में एक अजीब सी उमंग थी, उत्साह बन उठा था जो आज तक मैंने पहले या बाद में कभी नहीं देखा। जैसे ही पूज्य साईं जी गांव में पधारे तो दोपहर के दो बज चुके थे। मनफूल सिंह इसे गांव की पहली रूहानी दोपहर की संज्ञा देते हुए बताते हैं कि पूज्य साईं जी उस दिन गांव से होते हुए दरबार के लिए निर्धारित जगह, जो बनवाला गांव की ओर निकलते रास्ते पर है, पर पधारे। वहां बालू रेत की भरमार थी, लेकिन मुर्शिद के स्पर्श से वही रेत सितारों की मानिंद चमक उठी।

इस दौरान पूज्य साईं जी नीचे भूमि पर ही विराजमान हो गए और संगत को भी आस-पास में बिठा लिया। संगत के बीच सजे शहनशाह जी ने वचन फरमाए- वरी! यह बागड़ का एरिया है, हम यहां सच की स्थापना करने आए हैं। बेशक उस समय गांव की आबादी कम थी, लेकिन लोगों में अचानक उमड़े प्रेम एवं वैराग्य ने यह दर्शा दिया कि अब वास्तव में बागड़ का तारणहारा आ चुका है।

रूहानी मजलिस

पूज्य साईं जी नुहियांवाली गांव में डेरा बनाने को पहले ही मंजूरी दे चुके थे। इसलिए अब तो दरबार बनाने की सेवा की शुरूआत होनी थी। पूज्य साईं जी के पावन सान्निध्य में सेवादारों ने ‘धन धन सतगुरु तेरा ही आसरा’ का नारा लगाकर सेवा कार्य शुरू कर दिया। बताते हैं कि पूज्य साईं जी ने उसी दिन सेवादारों को पानी का संग्रहण करने के लिए डिग्गी बनाने का भी वचन फरमा दिया था। उस दिन सर्दी बहुत थी। इसलिए कम्बलों इत्यादि गर्म कपड़ों को जोड़ कर पूज्य साईं जी के लिए एक तम्बू खड़ा कर दिया गया। आस-पास के एरिया से सूखी लकड़ियां इकट्ठी करके धूने के रूप में अलाव जला दी गई। सच्चे दातार जी ने वहां पर रूहानी मजलिस लगाकर साथ आई संगत के लिए इलाही कोक तैयार करवा कर प्रसाद के रूप में पेटभर खिलाया, जिसकी व्यवस्था सेठ नेकी राम जी की ओर से की गई थी।

अगले दिन सेवा कार्य जोरों सें शुरू हो गया। सबसे पहले डिग्गी के लिए भूमि की खुदाई होने लगी। उस समय के कर्मठ सेवादार गोरखाराम, हरचंद राम, श्योकरण, बीरबल राम, मलूराम, गुरमुख राम, लेखुराम आदि दिन में खुदाई इत्यादि का कार्य करते और रात्रि को दरबार की जगह में ही र्इंटें निकालते। करीब 15 दिनों में कच्ची र्इंटों के दो कमरे बना दिए गए। उधर डेरे की बाउंड्री के रूप में कंटीली झाड़ियों से बाड़ तैयार की गई ताकि खुले में घूमने वाले जानवर इत्यादि रात्रि के समय किसी सेवादार को कोई नुकसान न पहुंचा सकें।

लोग ईमानदारी के साथ-साथ नेकी के रास्ते पर चलने लगे थे

सेवाकार्य चलता रहा, हालांकि संगत ज्यादा नहीं थी, लेकिन सेवा का अजब नमूना देखने को मिलता। गांव के सत्संगी भाई दिन-रात सेवा में हिस्सा लेते। कोई गारा तैयार करता, कोई पानी का प्रबंध करने की डयूटी देखता और जो र्इंटें बनाने में माहिर थे, वे र्इंट थपाई का जिम्मा संभालते। बताते हैं कि पूज्य साईं जी जब पहली बार यहां पधारे थे, तो काफी दिनों तक यहां विराजमान रहे और डेरे में एक बड़ा सा चबूतरा भी बनाया, जिस पर विराजमान होकर पूज्य साईं जी ने सत्संग भी फरमाए। मनफूल सिंह बताते हैं कि पूज्य सार्इं जी के वचनों को सुनकर यहां के लोगों की जीवन शैली में बड़ा बदलाव आया। लोग ईमानदारी के साथ-साथ नेकी के रास्ते पर चलने लगे थे। वे बताते हैं कि जब पूज्य बाबा जी नेकीराम जी की ओर से दरबार को दी गई जमीन पर पधारे तो उससे पहले सेठ जी की 20 एकड़ भूमि पर बाहरी व्यक्तियों ने कब्जा किया हुआ था। लेकिन जब उन्होंने पूज्य बाबा जी की सत्संग सुनी तो उनकी आत्मा अंदर तक झकझोर उठी।

वे रूहानी वचनों से इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने स्वयं ही बिना किसी विवाद के सारी जमीन को खाली कर दिया। जैसे-जैसे समय बीतता गया, दरबार की सार-संभाल में कई सेवादार आते रहे। एक ऐसा दौर भी आया जब सेठ नेकीराम जी के पुत्र पलटू जी को नुहियांवाली के साध बेला दरबार में ड्यूटी मिली। बता दें कि श्री पलटू जी छोटी उम्र में घर-बार त्यागकर डेरा सच्चा सौदा में ब्रह्चारी सेवादार बन गए थे। जब पलटू जी को अपने ही गांव के अपनी ही भूमि पर बने डेरा सच्चा सौदा के दरबार में सेवा का अवसर मिला तो उसे उन्होंने बखूबी निभाया।

पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज भी गांव में दो बार पधारे

गांव में सेठ नेकी राम की जो हवेली थी, जायदाद के बंटवारे के वक्त वह पलटू जी के हिस्से में आ गई। सेठ नेकी राम जी ने स्वयं परिवार सहित सरसा में अपने नये मकान में रहना शुरू कर दिया था। उधर पलटू जी ने गांव की अपनी हवेली को गिरवा दिया और ईंटें व अन्य सारा सामान नुहियां वाले डेरे में मंगवा लिया। फिर धीरे-धीरे दरबार के सभी कच्चे कमरों को गिरवा कर पक्का करवा दिया। इसके अलावा और भी नई ईंटें मंगवा कर डेरे के अन्दर कुछ नए कमरे, दो मंजिला पक्की गुफा, एक बरामदा (गैरेज), रसोईघर व एक खुला हाल कमरा आदि बनवा दिए। बताते हैं कि इस दरबार की पक्की चारदीवारी ब्लॉक दारेवाला की ओर से बनवाई गई।

ग्रामीणों के बताए अनुसार, गांव के बड़े उच्चे-सुच्चे भाग्य हैं, जो डेरा सच्चा सौदा की तीनों पातशाहियों ने पावन दयादृष्टि से गांव के जर्रे-जर्रे को रोशन किया है। पूज्य साईं शाह मस्ताना जी महाराज गांव में 5 बार पधारे। सन् 1952 में शुरू हुआ यह जीवोद्धार कारवां सन् 1959 तक चलता रहा। पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज भी गांव में दो बार पधारे। सन् 1982 व 88 में पूजनीय परमपिता जी ने गांव में सत्संग लगाए और गुरुमंत्र भी दिया। पूज्य हजूर पिता संत डा. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां भी तीन बार गांव में पधार चुके हैं। मौजूदा वक्त में प्राकृतिक रंगों की छटा में नहाता यह दरबार अपने आप में रूहानियत की सुंदर इबारत पेश कर रहा है। मुख्य मार्ग के सामने से रफ्तार भरती खुली आंखें बरबस ही दरबार को देखकर शीतला महसूस करती हैं और खुद को धन्य पाती हैं।

ऐसे मिली डेरा बनाने की मंजूरी

लाला नेकी राम जी की नुहियांवाली गांव में काफी जमीन-जायदाद थी। उनका लगभग सारा परिवार (उनकी पत्नी, दो लड़के व एक लड़की, बहन बिमला) शुरू से ही पूज्य साईं जी के पवित्र चरण कमलों से जुड़ा हुआ था, बल्कि लाला नेकी राम जी का छोटा लड़का जिसे पूजनीय बेपरवाह जी प्यार से पलटू जी कहा करते थे, उसने छोटी उम्र में ही इन्सानियत की सेवा में खुद को समर्पित करते हुए सच्चा सौदा में ब्रह्मचारी का प्रसाद ले लिया था। सेठ नेकी राम जी ने अपने परिवार-जनों की सलाह से अपनी 20 एकड़ भूमि के एक खेत में से 2 एकड़ (16 कनाल) भूमि पर डेरा सच्चा सौदा का आश्रम बनाने का पहले ही निश्चय कर लिया था। इसके लिए उन्होेंने गांव के सत्संगी प्रेमियों को साथ लिया कि अगर गांव के सब प्रेमी-जन व अन्य भाई-बहन सहमत हैं तो पूज्य बाबा जी की हजूरी में यहां पर डेरा बनाने के लिए प्रार्थना कर देते हैं। गांववासियों को साथ लेकर सेठ नेकी राम जी ने अपने मुर्शिद साईं मस्ताना जी महाराज की पावन हजूरी में पेश होकर प्रार्थना की, ‘साईं जी! आप नुहियां वाली में अपनी रहमत फरमाएं और वहां की साध-संगत को एक डेरा बनाने की आज्ञा प्रदान करें।’ पूज्य साईं जी गांव की साध-संगत के सच्चे प्रेम से बहुत खुश थे। और जब सेवादार नेकीराम जी द्वारा डेरा बनाने के लिए जमीन देने की बात आई तो पूज्य साईं जी और भी प्रसन्न हुए। प्रार्थना मंजूर करते हुए वचन फरमाए, ‘पुटटर! जरूर चलेंगे और डेरा भी जरूर बनाएंगे।’

जब फिर जाग उठा गांव का भाग्य, हुए विचित्र खेल

पूज्य शहनशाह मस्ताना जी महाराज कुछ समय के अंतराल पर फिर से गांव में पधारे। तब तक दरबार में सेवा कार्य भी काफी हद तक पूर्ण हो चुका था। तेरा वास के साथ-साथ नीचे कमरे भी तैयार हो चुके थे, लेकिन सारी उसारी कच्ची इंटों से हुई थी। पूज्य साईं जी के वचनानुसार केवल पानी की डिग्गी ही पक्की इंटोंं से बनाई गई थी। बुजुर्गवार बताते हैं कि पूज्य साईं जी ने दूसरी बार गांव मेंं पधारकर नुहियांवाली ही नहीं, बल्कि आस-पास के गांवों के लोगोें पर बड़ी रहमतें लुटाई। कई दिनों तक रूहानी मस्ती का समंद्र यहां हिलौरे मारता रहा। पूज्य साईं जी जहां भी जाते अपने विचित्र चोज से सबको हैरत में डाल देते। बताते हैं कि दरबार के बीच में बने बड़े चबूतरे पर कई सत्संगें लगाई। इस दौरान कई बार लोगों को समझाने के लिए तरह-तरह से खेल दिखाए, कभी बुजुर्गों की कुश्ती करवाते, जो हार जाता उसे भी ईनाम देकर सम्मानित करते। कभी कुत्ते के गले में नोटों की माला डलवा कर उसे वहां से भगा देते।

फिर लोगों को कहते कि देखो कुत्ता नोट लेकर भाग रहा है, लोग उसके पीछे भागने लगते तो फरमाते- ‘सब माया के यार हैं।’ कई बार एक रुपये का नोट ऊपर उछालते तो नोटों की बारिश होने लगती। यह देखकर कोई उन्हें जादूगर कहता, तो कोई उन्हें भगवान का अवतार कहता। कभी-कभी पूज्य साईं जी अपनी मस्ती में आकर बीरबल राम को पुकारते कि ‘चल तेरे वाली हैली सुना पुट्टर’, और फिर वह अपनी सारंगी पर सुर निकालने लग जाता।

पूज्य साईं जी ने डेरा की सेवा में दिन-रात एक करने वाले सेवादारों पर भी बहुत धन-दौलत लुटाई। बताते हैं कि उस समय एक खुमाना राम नेहरा सेवादार हुआ करते थे। साईं जी उसकी सेवा भावना पर बहुत प्रसन्न हुए। चबूतरे पर विराजमान पूज्य साईं जी ने सेवादारों को हुक्म फरमाया-‘खुमाना राम को ऊपर लेकर आओ।’ उनको चबूतरे पर ले आए। फरमाया- ‘खुमाना राम के चारों ओर खद्दर का सफेद कपड़ा (लट्ठा) लपेट दो।’ सेवादारों ने खुमाना राम के चारों ओर कपड़े के एक के बाद एक करीब 20 चक्कर लगा दिए, उधर खुमानाराम पुकारें कि बाबा जी, बस करो जी, बस करो जी। ‘नहीं वरी, तु अभी रज्जया नहीं। तैनूं रज्जा के छड्डांगे।’

उसी दौरान सेवादार गोरखाराम को पगड़ी पहनाई गई, और वचन फरमाए- ‘लै भई, तैनूं बना ता। बना ता तैनूं।’ व्योवृद्ध मनफूल सिंह बताते हैं कि यह बिलकुल सत्य बात है कि उस दौरान गोरखाराम के परिवार की हालत बहुत ही नाजुक थी। लेकिन साईं जी के वचनों की माया देखिये, देखते ही देखते उसके परिवार के वारै न्यारे हो उठे। उसका बड़ा लड़का बैंक में आलाधिकारी बन गया, दूसरा एसडीएम रिटायर्ड हुआ, तीसरा हैडमास्टर रिटायर्ड, चौथा मास्टर है, पांचवां मास्टर है, छठा नंबरदार है। गोरखाराम ने अपने अंतिम स्वास तक यह बात डंके की चोट पर कही कि जिस घर में डेरा सच्चा सौदा का नाम आ गया ना, वहां सब मालोमाल हो जाता है। यह सब सार्इं जी की कृपा का ही कमाल है।

पुट्टर, हम भी हल चलाते हैं!

पूज्य साईं जी के चोज बड़े निराले रहे हैं। आपजी की रहनी-बहनी भी सादगी की मिसाल थी। गांववासी बताते हैं कि पूज्य साईं जी जिधर भी जाते, लोग दीवाने बनकर उनके पीछे-पीछे घूमते रहते। उन दिनों नुहियांवाली का श्योकरण डेरा के पास ही अपने ऊंट से हल द्वारा खेत की जुताई कर रहा था। पूज्य साईं जी एकाएक दरबार से उठकर उसकी ओर चल दिए। ऊंट के पीछे चल रहे श्योकरण के साथ-साथ चलने लगे। साईं जी ने अपना एक हाथ हल पर रख लिया और फरमाने लगे-‘पुट्टर हम्म भी हल चलाते हैं!’ उस समय श्योकरण की उम्र छोटी ही थी। बताते हैं कि ऐसा वाक्या संगत ने कई बार देखा। पूज्य साईं जी श्योकरण को छोटे बच्चों की तरह लाड करते, कई बार अपने साथ बिस्तर पर भी सुला लेते। पूज्य साईं जी इस तरह सबको बड़ा प्यार बांटते, खूब हंसाते रहते।

‘भाई! सत्संग रूपी गंगा तो खुद आपके गाँव में चलकर आई है!

58 वर्षीय चेतराम इन्सां बताते हैं कि पूजनीय परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज ने सन् 1982 में पहली बार पधारकर रूहानी सत्संग लगाया। गांव में बने डेरे के बगल वाली भूमि पर सत्संग लगाया गया था, जिसमें बड़ी संख्या में संगत पहुंची हुई थी। पूजनीय परमपिता जी ने सत्संग दौरान फरमाया था कि ‘भाई! आपके गाँव में सत्संग रूपी गंगा (कुल मालिक की पवित्र रहमत) खुद चलकर आई है। इसलिए आप सब लोगों का स्रान करने का फर्ज बनता है। हां! अगर आप सर्दी की वजह से स्रान करने से घबराते हैं तो कम से कम अपने हाथ-पैर तो अवश्य डुबो लें।’ सत्संग में साध-संगत का बहुत भारी उत्साह था। उस सत्संग में पूजनीय परमपिता जी ने करीब 500 जीवों को नाम-दान दिया था। वहीं सन् 1988 में प्रेमी लालचन्द जी, प्रेमी हरिराम, प्रेमी नानकराम, प्रेमी फूला राम, प्रेमी दूबी चन्द, प्रेमी मल्लू राम, प्रेमी बगड़ावत जी और साधु प्रेमी हरलाल जी आदि कई प्रेमी-जनों की अर्ज स्वीकार करते हुए पूजनीय परमपिता जी ने फिर से गांव का सत्संग मन्जूर किया।

दिसंबर के महीने में हुए इस सत्संग में भी गाँव की साध-संगत ने पूरे उत्साह के साथ सेवा की। उस दौरान शहनशाह जी ने लगभग 500 अन्य नए जीवों को गुरुमंत्र दिया। पूजनीय परमपिता जी अपने प्रवास के दौरान एक दिन सायं को दरबार के तेरा वास में विराजमान थे। संगत को अपने पास बुलाया और सबको एक-एक लड्डू का प्रसाद भी दिया। गांव के आपसी प्रेम को देखकर शहनशाह जी बहुत प्रसन्न हुए। पूजनीय परमपिता जी ने इस दौरान अपने पवित्र मुखारबिंद से फरमाया, ‘गाँव की साध-संगत अगर हफ्ता भर नाम-चर्चा में एक घण्टा हाजिरी देवे तो आपके सारे स्वास लेखे में लगवा देंगे।’ बताते हैं कि तभी से दरबार में नियमित साप्ताहिक नामचर्चा का आयोजन शुरू कर दिया गया था।

सत्संग दौरान हाथों-हाथ सुनीं एक किसान की पुकार

पूजनीय परमपिता जी ने जब पहली बार डेरा सच्चा सौदा साध बेला के पास वाली भूमि पर सत्संग फरमाया तो उस दौरान एक पड़ोसी किसान हजूरी में पेश हो गया। उसने अर्ज की कि बाबा जी, डेरे (साध बेला) भूमि की दक्षिण दिशा में बड़े-बड़े सफेदे के पेड़ खड़े हैं, जिनसे फसल खराब हो जाती है। बाबा जी, इसका समाधान करवाएं जी। यह सुनकर पूजनीय परमपिता जी ने तुरंत जिम्मेवार सदस्यों को पास बुलाया और हुक्म फरमाया- ‘भई! इन्हां दरखतां दी वजह नाल जे इसनूं वाकई दिक्कत औंदी है तां उन्हां नूं हुणे ही पटवाओ।’ बताते हैं कि उस दौरान सत्संग का कार्यक्रम चल रहा था, जैसे ही सत्संग समाप्त हुआ उधर से उन पेड़ों को भी उखाड़ दिया गया। वह पीड़ित किसान अपनी समस्या का तुरंत समाधान पाकर पूजनीय परमपिता जी का धन्यवाद करता हुआ नहीं थक रहा था।

दूर तलक फैल रही यहां के गुलकंद की मिठास

पूज्य हजूर पिता संत डा. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां के पावन दिशा-निर्देशन में डेरा सच्चा सौदा साध बेला नुहियांवाली भी आत्मनिर्भरता की अनूठी कहानी बयां करता है। यहां के सेवादारों, गांव व ब्लॉक की संगत की अथक मेहनत के बलबूते यहां दरबार में गुलाब के फूलों से गुलकंद तैयार कर उसे घर-घर तक पहुंचाया जा रहा है। यहां के गुलकंद की मिठास और स्वाद का हर कोई दीवाना है। इस बारे में सेवादार जुगतिराम इन्सां बताते हैं कि दरबार में काफी संख्या में गुलाब के पौधे लगाए गए हैं। विगत वर्ष 18 क्विंटल गुलकंद तैयार किया गया था। खास बात यह भी है कि यहां के गुलकंद की आस-पास के गांवों में बहुत मांग रहती है। उन्होंने बताया कि दरबार में फलदार पौधे भी लगाए हैं जिसमें आडू, चीकू, अमरूद, किन्नू, मौसमी व कैली आदि शामिल हैं। वहीं यहां मौसम के अनुरूप सब्जियां भी लगाई जाती है।

साईं जी के वचनों की ढाल बनी यह डिग्गी

गांव में जब आश्रम बनाने की सेवा शुरू हुई तो पूज्य साईं जी ने सबसे सेवादारों को डिग्गी तैयार करने का हुक्म दिया। खास बात यह भी रही कि साईं जी के विशेष हुक्म पर डिग्गी को पक्की ईंटों से बनाया गया, शायद यह अपने आप में एक छुपा हुआ रहस्य था। 85 वर्षीय माता नात्थी देवी इन्सां बताती हैं कि दरबार बनाने की सेवा चल रही थी तो उस दौरान एक व्यक्ति ने पूछा कि- बाबा जी, गांव से इतनी दूर डेरा बना रहे हो, इधर तो रेतीले टिब्बे बी बौत हैं! कच्चे रास्ते हैं, गांव वाले कैसे आया करैंगे? इस पर बाबा जी ने फरमाया- पुट्टर फिक्र ना कर, डेरे के आगे से पक्की सड़क बन जाएगी। गाड़ियां गेट तक छोड़ कर जायां करेंगी। समय ने करवट ली, पूजनीय परमपिता जी संगत से रूबरू हुए।

उधर नुहियांवाली में सेठ नेकी राम जी के परिवार की ओर से उस 20 एकड़ भूमि का सौदा कर दिया गया, जिसमें दरबार भी बना हुआ था। गांव की संगत भी निराशा के भाव में आ गई कि अब क्या होगा? लेकिन होना तो वही होता जो मंजूरे खुदा होता है। उस जमीन के खरीददार ने बाकी सभी शर्तें मंजूर कर ली, सिवाय एक को छोड़ कर कि दरबार में बनी हुई डिग्गी का अलग से पैसा नहीं दूंगा। जबकि नेकीराम जी उस डिग्गी पर खर्च हुए पूरे पैसे (उस समय के हिसाब से 500 रुपये के आस-पास) वसूल करना चाह रहे थे, क्योंकि यह दरबार की अमानत थी।

इसको लेकर कई बार बातचीत हुई, लेकिन कोई फैसला नहीं हुआ। आखिरकार नेकीराम जी ने यह कहकर उस खरीददार की बात काट दी कि यदि आप डिग्गी का अलग से पैसा नहीं दोगे तो हम 18 कनाल भूमि (जिसमें दरबार व डिग्गी बनी हुई थी) को नहीं बेचेंगे। इस प्रकार डिग्गी ने गांव की उम्मीदों को फिर से जिंदा कर दिया। पूज्य साईं जी द्वारा 69 साल पूर्व फरमाए वचनानुसार आज दरबार के मुख्यद्वार के आगे से सड़क पर गुजरते वाहनों से सैकड़ों खुली आंखें रोज डेरा सच्चा सौदा को सजदा करती हैं। आज यह दरबार नुहियांवाली ही नहीं, आस-पास के गांवों की रौनक बना हुआ है।

‘डिग्गी का पानी घी-दूध का काम करेगा’

आप भी आश्चर्यचकित हो रहे होंगे कि भला ऐसा कैसे संभव है एक डिग्गी का पानी अपने आप में घी-दूध के मानिंद शक्तिशाली भी हो सकता है। जी हां, गुरु-शिष्य के रूहानी प्रेम में यह बातें तो आम जैसी हैं। नुहियांवाली गांव में ‘साध-बेला’ दरबार को बने हुए अभी कुछ ही वर्ष बीते थे। ग्रामीण बताते हैं कि उन दिनों डेरा सच्चा सौदा की ओर से एक सेवादार यहां दरबार की सार-संभाल के लिए नियमित सेवा पर आया हुआ था। उन्हीं दिनों गांव में कुश्ती का दंगल होना था। बताते हैं कि उस समय नुहियांवाली गांव की गौर(पाम्परिक त्यौहार), घोल (कुश्ती) और कबड्डी बड़े मशहूर उत्सव थे। गांव के सत्संगियों ने सेवादार की मजबूत कद-काठी को देखते हुए उसे भी कुश्ती के लिए तैयार कर लिया। लेकिन ज्यों-ज्यों आयोजन का समय नजदीक आने लगा तो उसकी मनोस्थिति भी बदलने लगी।

एक दिन वह सेवादार पूज्य साईं जी की हजूरी में जा पहुंचा और अर्ज की कि दाता जी, गांववालों के कहने पर मैंने कुश्ती के लिए हामी तो भर ली, लेकिन मैं उन पहलवानों का कैसे मुकाबला कर पाऊंगा, क्योंकि वे तो रोज दूध-घी खाते हैं, इतने शक्तिशाली हैं! पूज्य साईं जी अपने शिष्य की सादगी पर एक बार तो मंद-मंद मुस्कुराए, फिर फरमाया- ‘वरी! चिंता मत करो, वहां के दरबार की डिग्गी का पानी पिया करो, वह घी-दूध का काम करेगा।’ शिष्य ने अपने मुर्शिद को सजदा किया और हुक्म को सत् वचन माना। ग्रामीण बताते हैं कि उसी सेवादार ने बाद में वह कुश्ती जीत कर दिखाई। साध बेला दरबार में आज भी वह डिग्गी ज्यों की त्यों बनी हुई। बकायदा उसको नया रूप दिया गया, जो हर आंगतुक का ध्यान अपनी ओर खींच लेती है।

पलटू जी ने बदल दिए सतगुरु-भक्ति के मायने

डेरा सच्चा सौदा साध-बेला दरबार की जब भी चर्चा होती है तो एसबीएस पलटू जी का जिक्र करना लाजमी हो जाता है। पलटू जी, नुहियांवाली गांव की मिट्टी में पले-बढ़े ऐसे इन्सान हैं जिन्होंने अपना पूरा जीवन मानवता की भलाई को समर्पित कर दिया। पलटू जी बाल्यावस्था में ही डेरा सच्चा सौदा में ब्रह्मचारी सेवादार बन गए थे। बचपन में ही उन्हें पूज्य बेपरवाह मस्ताना जी महाराज के रूहानी प्यार की ऐसी कशिश लग गई कि उन्होंने पूरा जीवन दूसरों के लिए जीने का दृढ़ निश्चय कर लिया, जिसे आखिरी सांस तक निभाया भी। पलटू जी के पिता का नाम श्री नेकी राम तथा माता का नाम चावेली बाई जी था। पलटू के पिता नेकी राम बेपरवाह मस्ताना जी महाराज के बहुत पुराने सत्संगी सेवादार थे। वे अपने मुर्शिद पर सब कुछ कुर्बान करने को हरदम तैयार रहते। सांसारिक मोह जाल से उनका मन उचाट हो चुका था।

इसलिए वे एक दिन अपने दोनों लड़कों को लेकर बेपरवाह जी की हजूरी में पेश हुए और अरदास की, शहनशाह जी! ‘इन्हें अपने पवित्र चरणोें में सेवा बख्श कर साधु बना लो।’ इस पर बेपरवाह जी ने अपनी रहमत करके पलटू जी को तो अपने पास रख लिया और उसके बड़े भाई के लिए वचन कर दिए कि वह घर गृहस्थी बसा ले। इस प्रकार पलटू जी तब से दरबार में सेवादार बनकर रहने लगा।

पलटू जी, ऊँचे खानदान के एक सम्पन्न परिवार में से थे। बेपरवाह जी ने उन दोनों (बाप-बेटे) की हर तरह से परीक्षा ली। ‘कि अच्छा खानदान है कहीं लोक लाज ही इन्हें न डुबो दे। इसलिए बेपरवाह जी उन्हें दरबार की सब्जी बेचने के लिए शहर के उसी मोहल्ले में भेजा करते जिसमें उनके अन्य सभी रिश्तेदार रहते थे। यह देखकर उनके खानदान के लोग उन्हें ताने देने की कोशिश करते, परन्तु वे उन्हें यह कह कर तुरन्त चुप करा देते कि ‘अगर आपने कोई सब्जी लेनी है तो बात करो वरना कुछ और कहने की जरूरत नहीं है।’ पूजनीय परमपिता जी भी पलटू जी के इस त्याग से बहुत खुश थे। पलटू जी भी अपने प्यारे मुर्शिद की सुख सुविधा का बहुत ख्याल रखता था। जब भी पूजनीय परमपिता जी राजस्थान, यू.पी. और पंजाब के दूर दराज के इलाकों में सत्संग करने के लिए जाते तो वह अपनी कार ले आता और शहनशाह जी को उसी में चलने के लिए आग्रह करता।

पूजनीय परमपिता जी ने पलटू जी की ड्यूटी नुहियांवाली दरबार में लगा दी जो उनकी ही जमीन पर बना हुआ था। पलटू जी ने यहां पर त्याग की नई इबारत लिखते हुए गांव में अपनी पुस्तैनी हवेली को गिराकर उन र्इंटों से साध-बेला दरबार को पक्का बनवाया। उनका सारा समय भजन बंदगी के साथ-साथ डेरे की सार-संभाल में ही गुजरता। पलटू जी के साथ काफी समय बिताने वाले जेतराम इन्सां बताते हैं कि पलटू जी की भक्ति एक रस थी। उनका डेरा सच्चा सौदा के प्रति समर्पण लाजवाब था। साध-बेला दरबार में उम्र के आखिरी पड़ाव में भी हर वस्तु की संभाल रखते। एक बार मैंने उनसे चर्चा करते हुए पूछा कि पलटू जी, आपने भक्ति के मार्ग पर अपना सब कुछ त्याग दिया, घर-बार और यहां तक कि जमीन जायदाद भी। फिर भी आपको कई बार शारीरिक कष्ट (शुगर की बीमारी थी) सहने पड़ते हैं।

इस पर पलटू जी ने कहा कि यह तो मेरे मुर्शिद की बहुत बड़ी कृपा है जो उसने मुझे दरबार से जोड़े रखा है, वरना मेरे ऐसे नसीब कहां थे? बताते हैं कि पलटू जी सबको ‘जी’ से संबोधित करते थे, चाहे वह उम्र में उनसे कितना भी छोटा क्यूं ना रहा हो। यहां तक कि वे अपने पिता नेकी राम को भी नेकीराम जी कहकर पुकारते थे। पलटू जी हर समय सतगुरु जी के पवित्र चरण कमलों में एक ही प्रार्थना करते कि ‘सच्चे पातशाह जी! ज्यादा तो गुजर गई है और थोड़ी ही बाकी है इसे भी यूं ही अपने चरणों में लंघा देना और आखिरी स्वास तक मेरी लाज रखना। बताते हैं कि पलटू का आखिरी समय आने पर पूज्य परमपिता शाह सतनाम सिंह जी महाराज ने अपनी उस रूह की पूरी-पूरी सम्भाल की और उसकी सेवा को प्रभु की भक्ति में स्वीकार कर उसे सच्चे सौदे का सच्चा आशिक कहकर सम्मान प्रदान किया।

अव्वल दर्जे की भक्ति के धनी थे सेठ नेकी राम जी

लाला नेकी राम जी अग्रवाल बिरादरी से जुड़ाव रखते थे। उनका नाम नुहियांवाली गांव के रइसों में शुमार था। शुरूआत दिनों में वे पूज्य बाबा सावण सिंह जी महाराज की पावन हजूरी में ब्यास जाया करते थे। नेकीराम जी का सेवा में इतना दिल लगता कि दो-दो महीने तक वहीं डेरे में रहकर सेवा करते रहते। उनके मन में हमेशा ही साध-संगत की सेवा करने की ललक जगी रहती। सन् 1948 में जब पूज्य सार्इं मस्ताना जी महाराज बागड़ के बादशाह बनकर सरसा की जमीं को पवित्र करने पधारे तो सेठ नेकी रामजी भी पवित्र सोहबत में आ गए। बस! उसी दिन से ही वे पूज्य सार्इं जी की सोहबत में रहने लगे। बताते हैं कि जब पूज्य बाबा सावण सिंह जी महाराज ने पूज्य सार्इं जी को अपनी इलाही रूहानी शक्ति प्रदान कर सरसा में भेजा था तो अपने कुछ अन्य पुराने सत्संगी सेवादारों के साथ सेठ नेकी राम जी को भी पूज्य सार्इं जी की सोहबत में भेज दिया और हुक्म फरमाया, ‘भाई! सबने मस्ताना बिलोचिस्तानी जी की सोहबत को छोड़कर ब्यास नहीं आना। जो हुक्म मान कर वहीं पर रहेगा उसे एक रुपया (पूरा फल) मिलेगा।

जो इन्सान हुक्म नहीं मानेगा और मस्ताना शाह की सोहबत को छोड़ यहां ब्यास में आएगा उसे आधा फल मिलेगा।’ इसलिए तब से ही नेकी राम जी पूज्य सार्इं के पवित्र चरण कमलों (खुदाई पवित्र सोहबत) में रहने लगे और वचन को सत् मानते हुए उसका अक्षरंश पालन किया। बताते हैं कि पूज्य साईं जी हमेशा ही नेकीराम जी की बात को तरजीह देते। उनका विनम्र स्वभाव और समर्पण की भावना हमेशा दूसरों के लिए प्रेरणा का उदाहरण बनती थी।

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आपसी भाईचारा और सौहार्दपूर्ण माहौल है गांव की शान

करीब सवा 200 वर्ष पूर्व गैदर व नेहरा गोत्र द्वारा बसाए गए नुहियांवाली गांव के पास साढ़े 48 सौ एकड़ भूमि है। किसी समय में यह गांव पंजाब प्रांत के हिसार जिले का एक मशहूर गांव था। बताते हैं कि उस समय यहां का पारम्परिक त्यौहार गणगौर और युवाओं की कुश्ती (घोल) बहुत प्रसिद्ध हुआ करती थी। उस दौरान यह गांव आस-पास के 15 गांवों के शिक्षा का भी केंद्र था, क्योंकि उस समय नुहियांवाली गांव में मिडल स्कूल था, जहां बच्चे शिक्षा हासिल करने के लिए पहुंचा करते थे। यहां के लोगों का मुख्य व्यवसाय खेतीबाड़ी है, हालांकि काफी युवा नौकरीपेशा भी हैं। गांव में मुख्यत: तीन पतियां सेवापति, चुड़पति, बिंझापति है, यहां 16 बिरादरी के लोग आपसी प्रेम-प्यार एवं भाईचारे के साथ रहते हैं।

यहां के लोगों की धार्मिक प्रवृति गांव की शान है, मंदिर, गऊशाला के साथ-साथ हर सम्प्रदाय के लोग अपनी आस्था के अनुसार हर पर्व को मनाते हैं। गांववासियों को शहीद पायलट देवीलाल गोदारा के साथ-साथ दूसरे विश्वयुद्ध में भाग लेने वाले मामराज पुत्र पूर्णराम पर आज भी गर्व है। वर्तमान में नुहियांवाली गांव अत्याधुनिक सुविधाओं के चलते प्रगतिशील गांव में शुमार है।

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