पर्यावरण संरक्षण से ही जीवन की सुरक्षा

Environment
पर्यावरण आधारित विकास की पहल हो

पिछले करीब तीन दशकों से ऐसा महसूस किया जा रहा है कि वैश्विक स्तर पर वर्तमान में सबसे बड़ी समस्या पर्यावरण से जुड़ी हुई है। इस सन्दर्भ में ध्यान देने वाली बात है की करीब दस वैश्विक पर्यावरण संधियाँ और करीब सौ के आस-पास क्षेत्रीय और द्विपक्षीय वातार्एं एवं समझौते संपन्न किये गये हैं। मानवीय क्रियाकलापों की वजह से पृथ्वी पर बहुत सारे प्राकृतिक संसाधनों का विनाश हुआ है। जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता, मरुस्थलीकरण, वायु, जल, जंगल, जमीन, ध्वनि, कृषि प्रदूषण जैसी समस्याएं जहां पर्यावरण के लिये गंभीर खतरा बनी हुई है वहीं यदि शुद्ध पानी, शुद्ध हवा, उपजाऊ भूमि, शुद्ध वातावरण एवं शुद्ध वनस्पतियाँ नहीं मिल सकेंगी तो इन सबके बिना हमारा जीवन जीना मुश्किल हो जायेगा। आज आवश्यकता है कि प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की ओर विशेष ध्यान दिया जाए, जिसमें मुख्यत: धूप, खनिज, वनस्पति, हवा, पानी, वातावरण, भूमि तथा जानवर आदि शामिल हैं।

इन संसाधनों का अंधाधुंध दुरुपयोग किया जा रहा है, जिसके कारण ये संसाधन धीरे-धीरे समाप्त होने की कगार पर हैं। इस जटिल होती समस्या की ओर चिन्तीत होना एवं कुछ सार्थक कदम उठाने के लिये पहल करना जीवन की नयी संभावनाओं को उजागर करता है। इंसान की आने वाली पीढ़ियों के लिए धरती भविष्य में भी सुरक्षित बनी रहे इसके लिये भारत इसमें अग्रणी भूमिका निभा सकता है। क्योंकि भारत के पास समृद्ध विरासत एवं आध्यात्मिक ग्रंथ ऋग्वेद आदि है जो पर्यावरण का आधार रहे हैं। पिछले 200 साल में हमने पर्यावरण को जो नुकसान पहुंचाया है, उसे ठीक करना है। पौधों एवं कीट-पतंगों के लगातार कम होती किस्मों ने भी पर्यावरण के सम्मुख गंभीर संकट खड़ा किया है। पर्यावरण के सम्मुख प्लास्टिक प्रदूषण भी एक गंभीर खतरा है। सरकार ने ठान लिया है कि भारत में सिंगल यूज प्लास्टिक के लिए कोई जगह नहीं होगी।

संयुक्त राष्ट्र की जलवायु परिवर्तन संबंधी अंतर-सरकारी समिति (आईपीसीसी) ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि विश्व में 23 फीसदी कृषियोग्य भूमि का क्षरण हो चुका है, जबकि भारत में यह हाल 30 फीसदी भूमि का हुआ है। इस आपदा से निपटने के लिए कार्बन उत्सर्जन को रोकना ही काफी नहीं है। इसके लिए खेती में बदलाव करने होंगे, शाकाहार को बढ़ावा देना होगा और जमीन का इस्तेमाल सोच-समझकर करना होगा। आधुनिकीकरण के इस दौर में जब इन संसाधनों का अंधाधुन्ध दोहन हो रहा है तो ये तत्व भी खतरे में पड़ गए हैं एवं भूमि की उत्पादकता कम होती जा रही है, पानी की कमी हो रही है। ऊपजाऊ भूमि भी रेगिस्तान में तब्दील हो रही है। जब तक व्यक्ति अपने अस्तित्व की तरह दूसरे के अस्तित्व को अपनी सहमति नहीं देगा, तब तक वह उसके प्रति संवेदनशील नहीं बन पाएगा। प्रकृति एवं पर्यावरण के प्रति भी संवेदनशीलता जागना जरूरी है।

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