1947 के विभाजन का दर्द-बुजुर्गों की जुबानी, दंगों के बीच सुरक्षित भारत पहुंचना ही उपलब्धि थी…

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रात को हुआ बस्ती में हमला, पाकिस्तान जिंदाबाद के लग रहे थे नारे

  • ठाकुरदास खुराना के परिवार का चांदी का बिजनेस था

सच कहूँ/संजय मेहरा, गुरुग्राम। भारत-पाकिस्तान बंटवारे के समय ठाकुरदास खुराना मात्र 12 साल के थे। उनके पिता पुन्नू राम खुराना का चांदी का बिजनेस था। घर में सोने-चांदी की कोई कमी नहीं थी। भारत-पाकिस्तान का बंटवारा होते ही ऐसा ग्रहण लगा कि सब कुछ उजड़ गया। सोना-चांदी की सुरक्षा से अधिक खुद की जान बचाने की चिंता थी। किसी तरह यातनाएं झेलते हुए सब भारत पहुंचे तो जीने की एक नई उम्मीद जगी।

ठाकुर दास खुराना का पाकिस्तान के जिला गाजी खान में गांव बुजारे था। पाकिस्तान में उन्होंने चौथी कक्षा तक पढ़ाई की। वहां उर्दू में पढ़ाई होती थी। चांदी का बिजनेस था। साथ ही लकड़ी के संदूक भी बेचते थे। स्कूल से आने के बाद वे पिता के साथ व्यापार में हाथ बंटाते थे। गांव में रेडियो किसी के घर नहीं होता था। जब कभी कुछ सुनना चाहते तो साथ वाले गांव में जाना पड़ता था। अखबार भी कहीं-कहीं मिलता था। 1947 के विभाजन का जिक्र करते हुए ठाकुर दास खुराना बताते हैं कि दिन ढलते-2 यह कई बार सन्देश मिलता कि साथ वाले गांव में हमला हो गया। इससे उनके गांव में भी डर पैदा हो जाता था। एक रात उनकी बस्ती में हमला हो गया। पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे जोर से सुने जाने लगे।

एक ट्रंक, एक बिस्तर व कुछ बर्तन लाए थे

सभी पड़ोसी छत पर इकट्ठे हो गये और सुरक्षित स्थान पर जाने की सोचने लगे। तब वहां के थाना प्रभारी ने ऐलान किया कि सभी हिन्दू परिवार वहोवा पहुंचे। वहां पर उनकी सुरक्षा होगी। घर छोड़ने का दिन निश्चित हो गया और सब पुलिस की निगरानी में वहोवा पहुंच गये। वहोवा में कुछ दिन ठहरने के बाद उन्हें लॉरियों में भरकर डेरा गाजी खान लाया गया। वहां पर सामान की पूरी तलाशी ली गई कि कहीं हथियार न हो। परिवार को एक ट्रंक, एक बिस्तर और एक छोटी बोरी बर्तनों की ले जाने की इजाजत दी गई थी। बाकी वहां पर अपना सोना-चांदी व अन्य सामान सब छोड़कर आने को मजबूर हुए। उस समय सिर्फ जान बचानी थी। मिलिट्री के सिपाही उनकी सुरक्षा में तैनात कर दिए गए।

यही डर था भारत पहुंचेंगे या नहीं

मुजफ्फरगढ़ से रेलगाड़ी में भरकर भारत के लिए रवाना किया गया। वह बहुत दुखदायी व दर्दनाक समय था। भरोसे और विश्वास का इतना अभाव था कि रेलगाड़ी में सभी लोग सोचते थे, हम ठीक भारत में पहुंचेंगे भी या नहीं। सुरक्षित भारत पहुंचना ही सबसे बड़ी उपलब्धि थी। रेलगाड़ी को कई घंटों तक लाईन क्लियर नहीं दिया गया। प्लेटफार्म पर दंगाईयों की भीड़ होने लगी। उनके पास हथियार थे।

अटारी पहुंचे तो हुआ भव्य स्वागत

ठाकुर दास कहते हैं कि सबको अपना अंत नजर आ रहा था। मिलिट्री की टीम के इंचार्ज ने सूझ-बूझ से काम लिया और लाईन क्लियर करवाई। जब गाड़ी अटारी पहुंची तो वहां के लोगों ने खासकर सिख समुदाय ने उनका स्वागत-सत्कार किया। सब सुविधाएं दी। फिर सभी जालंधर पहुंचे। कई परिवार 1-2 साल तक जालन्धर रहे। ठाकुर दास के मुताबिक उसके बाद उनका परिवार गुरुग्राम आ गया। यहां से कुछ दिन रेवाड़ी रहे। इसके बाद आखिर में वर्ष 1950 में महेंद्रगढ़ जिले में पहुंचे। आज तक वहीं पर बसे हैं। वहां अपने काम-धंधे शुरू किये। चाय आदि बनाने के काम से मेहनत शुरू की थी, जिसके चलते आज उनके शोरूम तक हैं।

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