सरकारी चुप्पी ले रही बेरोजगार युवाओं की जान!

Unemployed youth

आज का युवा सड़कों पर उतर आया है। तो उसके पीछे ठोस कारण है। हालिया नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आँकड़े यह दर्शाते हैं, कि देश के युवाओं का दुर्दिन चल रहा है। तभी तो बेरोजगार युवा अवसाद में आकर मौत को गले लगा रहा। लेकिन दुर्भाग्य देखिए लोकतांत्रिक परिपाटी का। सबसे बड़े संवैधानिक देश में युवा एक अदद नौकरी न मिलने के कारण अवसादग्रस्त हो रहे और सियासी व्यवस्था उन्हें सियासत की कठपुतली बना सर्कस में नचा रही है। इतना ही नहीं हमारे देश की युवा जमात भी सियासतदानों के बनाए मौत के कुएं में चक्कर भी तो काट रही। अगर ऐसा न होता तो वह एनआरसी और सीएए के पक्ष या विपक्ष में ही नारे बुलंद न कर रहा होता। अब तो लगता कुछ यूं है, युवाओं को भी अपने मुद्दों का भान नहीं रहा। तभी तो वे राजनीति के भंवर में कठपुतली बन नाच रहे और सियासी दल उनका लाभ उठा रहे।

आज युवाओं की सबसे बड़ी जरूरत क्या है। उन्हें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिले। बेहतर रोजगार के अवसर उपलब्ध हों। ताकि उन्हें मौत को गले न लगाना पड़े, लेकिन लगता ऐसा कि हमारे देश के युवा भी गुमराह हो गए हैं। तभी तो वे कश्मीर की आजादी, एनआरसी और सीएए जैसे मुद्दों की सिर्फ बात कर रहे हैं। आज का युवा हर मायने में राजनीतिक दल का काम करने लगा है और राजनीतिक दल उनके कंधे पर सवार होकर चैन की बंशी बजा रहे। जो कतई उचित नहीं। अरे भई! युवाओं की पहली प्राथमिकता शिक्षा और नौकरी है। फिर आप उस मुद्दे को लेकर आंदोलित न होकर राजनीतिक दलों का काम आसान कर रहे। लोकतंत्र गवाह है, कोई भी दल हो वह सिर्फ युवाओं की बात करता है।

एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2018 में औसतन प्रतिदिन 36 बेरोजगार युवाओं ने खुदकुशी की। जो किसान आत्महत्या से भी ज्यादा है। यह उस दौर में हुआ। जब देश के प्रधानसेवक भारत को न्यू इंडिया बनाने का दिवास्वप्न दिखा रहे थे। विश्वगुरु बनने की दिशा में बातों ही बातों में गोता लगाया जा रहा था। देश की अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन बनाने का संकल्प रोजाना दोहराया जा रहा था। छप्पन इंच की छाती पर गुमां यह कहकर किया जा रहा था, कि भारत एक महाशक्ति बनने जा रहा। ऐसे में जब इक्कीसवीं सदी के भारत में डिजिटल इंडिया, स्टार्टअप इंडिया और स्किल इंडिया जैसे ढेरों सरकारी कार्यक्रम चल रहे। उस दौर में अगर मुंबई की 40 वर्षीय डिंपल वाडीलाल ने बेरोजगारी से तंग आकर 3 जनवरी को इमारत से कूदकर जान दे दी। फिर सरकारी नीतियों और उनकी नीयत पर सवालिया निशान खड़े होना वाजिब भी है।

वैसे यहां एक बात स्पष्ट हो बेरोजगारी से तंग आकर जान देने में सिर्फ डिंपल वाडीलाल का नाम ही नहीं शामिल। एनसीआरबी के आँकड़े के मुताबिक वर्ष 2018 में ऐसे मौत को गले लगाने वाले बेरोजगार हताश युवाओं की संख्या 12,936 रही। यानी औसतन हर 2 घंटों में 3 लोगों की जान बेरोजगारी ने ली। ऐसे में यह कहीं न कहीं संविधान के अनुच्छेद- 21 में मिले जीवन जीने की स्वतंत्रता का हनन करना है और इसके लिए दोषी कोई एक दल या सरकार नहीं पूरा का पूरा राजनीतिक परिवेश है। ऐसा इस कारण से, क्योंकि बेरोजगारी देश में कोई एक दिन में नहीं बढ़ी। मौलिक अधिकारों की बात संविधान में बड़े जोर शोर से की गई है। हम भारत के लोग से हमारे देश के संविधान की प्रस्तावना शुरू होती। फिर भी आजादी के इतने वर्षों बाद देश का युवा वर्ग हाशिए पर क्यों? क्यों आजादी के सात दशकों बाद भी गरीबी और बेरोजगारी की अवस्था जस की तस बनी हुई है? इसका जवाब कौन तलाशेगा? ऐसा तो है नहीं, कि देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था ने किसी दल की सरकार न देखी हो।

फिर बात चाहे भगवाधारी पार्टी भाजपा की हो। या हाथ के पंजे वाली कांग्रेस की। शासन तो सभी ने बारी- बारी से किया। फिर क्यों आज युवा रोजगार के लिए मौत को गले लगा रहा? इसका उत्तर इन दलों को ढूंढना होगा और देश की अवाम के सामने रखना होगा। अब बात सिर्फ युवाओं का जिक्र करके पीठ थपथपाने से नहीं बनने वाली। आज जब हम आर्थिक स्तर पर रसातल में जा रहे।

फिर सवाल यही हमारी व्यवस्था कुछ समय पहले तक अर्थव्यवस्था को लेकर हवाई किला बना रही थी। फिर आज वह धड़ाम क्यों हो रहा है? इसके साथ-साथ सवाल यह भी कि कहीं हमारे देश मे संसाधनों की कमी तो नहीं? या फिर हमारे नीति-नियंताओं की नियत में ही खोट है? प्रथम दृष्टया देखें तो पता यही चलेगा, खोट तो सियासत के शूरवीरों की नियत में ही है वरना संसाधनों की कमी तो है नहीं देश में। बस कमी मालूम पड़ती है तो व्यापक सोच और सुनियोजित तरीके से उसके उपयोग की। वरना कम संसाधनों में इज्ररायल, जापान, चीन और जर्मनी जैसे देश कहाँ से कहाँ आज पहुँच गए हैं।

दक्षिण एशिया की अर्थव्यवस्था पर केंद्रित रोजगार-विहीन विकास रिपोर्ट 2018 में कहा गया है कि भारत में हर साल 81 लाख नए रोजगार सृजित करने की नितांत आवश्यकता है और इतने रोजगार तभी पैदा होंगे। जब देश की विकास दर को 18 फीसद तक बढ़ाया जाए। ऐसे में अगर हाल- फिलहाल में देश की विकास दर 5 फीसदी से भी कम पर आ गई है।

इसे 18 फीसद तक पहुंचने में लम्बा वक्त लगेगा। वह भी तब जब देश में एक दल की पूर्ण बहुमत वाली सरकार हो। जो आर्थिक क्षेत्र में बगैर किसी दबाव के कड़े फैसले ले और उन्हें ईमानदारी से लागू कर सके। जो समय के अनुरूप होता नजर आता नहीं। पूर्ण बहुमत की सरकार के अपवाद भी हैं। कुछ राज्य ऐसे भी हैं। जहां पर पूरा एक दशक से अधिक समय बीत गए एक ही सरकार के सत्ता में रहने के। फिर भी न विकास दर काफी बढ़ी और न बेरोजगारी कम हुई। अलबत्ता बेरोजगारी का आलम भले बढ़ गया। कृषि प्रधान देश तो हम हैं, लेकिन कृषि की अहमियत को हम और हमारी व्यवस्था आजतक नहीं समझ पाई है। ऐसे में जिस दिन हम कृषि क्षेत्र में नवाचार को अपना लेंगे और देश मे खाली पड़ी जमीनों पर युवाओं को उन्नत खेती करने लायक माहौल दे पाएं। साथ ही साथ जनसंख्या नियंत्रण का कानून लागू हो जाएगा। बेरोजगारी जैसी समस्या स्वत: छूमंतर होने लगेंगी।
-महेश तिवारी

 

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