वोटर की निराशा

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वोटर क्यों उदासीन है?

भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। चुनाव लोकतंत्र की आत्मा है। (Voter) वोटर की जागरुकता से ही सफल चुनाव संभव है। जब वोटर अपनी बुद्धि से वोट का प्रयोग और देश व राज्य की कमान सही हाथों में सौंपने का मन बनाएगा, फिर ही वोट की सार्थकता का आभास होगा। केंद्र व राज्य सरकार वोट का प्रयोग के लिए अरबों रुपये जागरुकता अभियानों पर खर्च करती है, फिर भी वोटरों में उत्साह नहीं बढ़ पा रहा।

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पंजाब में बुधवार को जालंधर लोकसभा हलके के उपचुनाव हुए, जिसमें केवल 54 प्रतिशत वोटरों (Voter) ने अपने वोट के अधिकार का प्रयोग किया। उधर, कर्नाटक में 70 प्रतिशत मतदान के साथ वोटरों ने बढ़-चढ़कर प्रदर्शन किया। फिर भी 30 प्रतिशत वोटरों का वोट डालने में दिलचस्पी न लेना चिंताजनक है। जब 100 प्रतिशत वोटर अपने अधिकार को समझेंगे फिर ही देश का विकास होगा। प्रत्येक नागरिक का विवेक और लोकतंत्र का सीधा संंबंध जनशक्ति से जुड़ा हुआ है। भले ही केंद्र व राज्य सरकार ने वोटरों को जागरूक करने के लिए कई प्रयास भी किए, निशक्तजनों के लिए अलग पोलिंग बूथ भी बनाए, बूथों की गिनती भी बढ़ाई, वृद्धों को बूथों तक व्हीलचेयर से पहुंचाने के लिए अलग से टीमें भी गठित की, इन सब प्रयासों के बावजूद भी वोटर क्यों उदासीन है?

दरअसल, कम वोट पोल के पीछे क्या कारण, राजनीतिक दलों व सरकारों को मंथन करने की आवश्यकता है। वास्तव में कम वोट पड़ने के पीछे एक बड़ा कारण राजनीति में आ रही गिरावट भी है। सभी दलों के नेता भ्रष्टचार में लिप्त हैं और अधिकतर पर अपराधिक मामले भी दर्ज हैं, इन्हीं कारणों के चलते जनता में वोट डालने के प्रति उत्साह नहीं बढ़ पा रहा। इसके साथ ही राजनेताओं में जनसेवा व जनसम्मान की भावना भी खत्म होती जा रही है। अधिकतर नेता चुनाव जीतकर अपने हलके का दौरा तक नहीं करते, बुनियादी समस्याओं की तरफ ध्यान देना तो दूर। वह चुनाव जीतकर यह भूल जाते हैं कि अब उनकी ड्यूटी क्या है।

कई ऐसे भी हैं चुनाव जीतने के बाद चुनावों में हुए खर्चों को पूरा करने की रणनीति बनाने लगते हैं। मौजूदा हालात यह बने हुए हैं कि जनता का राजनीति से भरोसा उठता जा रहा है। स्वार्थ की राजनीति बढ़-फूल रही है। कई सांसद ऐसे हैं जो हर बार अनुपस्थित ही रहते हैं और कई ऐसे भी हैं जो संसद में पूरे कार्यकाल के दौरान अपने क्षेत्र के मुद्दों को बिना उठाए ही वापिस आ जाते हैं। यह राजनीति का दुर्भाग्य है कि ऐसे नेताओं को ही पार्टियां बार-बार टिकट थमा देती हैं और वे फिर जीतकर जनता को लावारिस हालत में छोड़ देते हैं। यह आवश्यक है कि सभी राजनीतिक दलों के नेताओं को जनता से संवाद करने की आदत डालने होगी, उनकी समस्याओं का निवारण करना होगा, फिर ही लोगों में वोट डालने के प्रति तत्परता बढ़ेगी।