वृद्ध जीवन के उजालों का स्वागत करें

एक अक्टूबर को सम्पूर्ण विश्व में अंतरराष्ट्रीय वृद्ध दिवस मनाया जाता है। समाज और नई पीढ़ी को सही दिशा दिखाने और मार्गदर्शन के लिए वरिष्ठ नागरिकों के योगदान को सम्मान देने के लिए इस आयोजन का फैसला संयुक्त राष्ट्र ने 1990 में लिया था। इस दिन पर वरिष्ठ नागरिकों और बुजुर्गों का सम्मान किया जाता है। वरिष्ठों के हित के लिए चिन्तन भी होता है। प्रश्न है कि दुनिया में वृद्ध दिवस मनाने की आवश्यकता क्यों हुई?

क्यों वृद्धों की उपेक्षा एवं प्रताड़ना की स्थितियां बनी हुई है? चिन्तन का महत्वपूर्ण पक्ष है कि हम पतन के इस गलत प्रवाह को रोके। क्योंकि सोच के गलत प्रवाह ने न केवल वृद्धों का जीवन दुश्वार कर दिया है बल्कि आदमी-आदमी के बीच के भावात्मक फासलों को भी बढ़ा दिया है। वृद्ध अपने ही घर की दहलीज पर सहमा-सहमा खड़ा है, उसकी आंखों में भविष्य को लेकर भय है, असुरक्षा और दहशत है, दिल में अन्तहीन दर्द है। इन त्रासद एवं डरावनी स्थितियों से वृद्धों को मुक्ति दिलानी होगी। सुधार की संभावना हर समय है। हम पारिवारिक जीवन में वृद्धों को सम्मान दें, इसके लिये सही दिशा में चले, सही सोचें, सही करें। इसके लिये आज विचारक्रांति ही नहीं, बल्कि व्यक्तिक्रांति की जरूरत है।

आज का वृद्ध समाज-परिवार से कटा रहता है और सामान्यत: इस बात से सर्वाधिक दु:खी है कि जीवन का विशद अनुभव होने के बावजूद कोई उनकी राय न तो लेना चाहता है और न ही उनकी राय को महत्व देता है। समाज में अपनी एक तरह से अहमितय न समझे जाने के कारण हमारा वृद्ध समाज दु:खी, उपेक्षित एवं त्रासद जीवन जीने को विवश है। वृद्ध समाज को इस दु:ख और कष्ट से छुटकारा दिलाना आज की सबसे बड़ी जरुरत है। आज हम बुजुर्गों एवं वृद्धों के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह करने के साथ-साथ समाज में उनको उचित स्थान देने की कोशिश करें ताकि उम्र के उस पड़ाव पर जब उन्हे प्यार और देखभाल की सबसे ज्यादा जरूरत होती है तो वो जिंदगी का पूरा आनंद ले सके। वृद्धों को भी अपने स्वयं के प्रति जागरूक होना होगा, जैसाकि जेम्स गारफील्ड ने कहा भी है कि यदि वृद्धावस्था की झुर्रियां पड़ती है तो उन्हें हृदय पर मत पड़ने दो। कभी भी आत्मा को वृद्ध मत होने दो।

प्रश्न है कि आज हमारा वृद्ध समाज इतना कुंठित एवं उपेक्षित क्यों है? अपने को समाज में एक तरह से निष्प्रयोज्य समझे जाने के कारण वह सर्वाधिक दु:खी रहता है। वृद्ध समाज को इस दु:ख और संत्रास से छुटकारा दिलाने के लिये ठोस प्रयास किये जाने की बहुत आवश्यकता है। संयुक्त राष्ट्र ने विश्व में बुजुर्गों के प्रति हो रहे दुर्व्यवहार और अन्याय को समाप्त करने के लिए और लोगों में जागरूकता फैलाने के लिए अंतरराष्ट्रीय बुजुर्ग दिवस मनाने का निर्णय लिया। वृद्धों की समस्या पर संयुक्त राष्ट्र महासभा में सर्वप्रथम अर्जेंटीना ने विश्व का ध्यान आकर्षित किया था। तब से लेकर अब तक वृद्धों के संबंध में अनेक गोष्ठियां और अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन हो चुके हैं। वर्ष 1999 को अंतर्राष्ट्रीय बुजुर्ग-वर्ष के रूप में भी मनाया गया। इससे पूर्व 1982 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वृद्धावस्था को सुखी बनाइए जैसा नारा दिया और सबके लिए स्वास्थ्य का अभियान प्रारम्भ किया गया।

एक पेड़ जितना ज्यादा बड़ा होता है, वह उतना ही अधिक झुका हुआ होता है। यानि वह उतना ही विनम्र और दूसरों को फल देने वाला होता है, यही बात समाज के उस वर्ग के साथ भी लागू होती है, जिसे आज की तथाकथित युवा तथा उच्च शिक्षा प्राप्त पीढ़ी बूढ़ा कहकर वृद्धाश्रम में छोड़ देती है। वह लोग भूल जाते हैं कि अनुभव का कोई दूसरा विकल्प दुनिया में है ही नहीं। अनुभव के सहारे ही दुनिया भर में बुजुर्ग लोगों ने अपनी अलग दुनिया बना रखी है। जिस घर को बनाने में एक इंसान अपनी पूरी जिंदगी लगा देता है, वृद्ध होने के बाद उसे उसी घर में एक तुच्छ वस्तु समझ लिया जाता है।

बड़े बूढ़ों के साथ यह व्यवहार देखकर लगता है जैसे हमारे संस्कार ही मर गए हैं। बुजुर्गों के साथ होने वाले अन्याय के पीछे एक मुख्य वजह सामाजिक प्रतिष्ठा मानी जाती है। तथाकथित व्यक्तिवादी एवं सुविधावादी सोच ने समाज की संरचना को बदसूरत बना दिया है। सब जानते हैं कि आज हर इंसान समाज में खुद को बड़ा दिखाना चाहता है और दिखावे की आड़ में बुजुर्ग लोग उसे अपनी शान-शौकत एवं सुंदरता पर एक काला दाग दिखते हैं। बड़े घरों और अमीर लोगों की पार्टी में हाथ में छड़ी लिए और किसी के सहारे चलने वाले बूढ़ों को अधिक नहीं देखा जाता, क्योंकि वह इन बूढ़े लोगों को अपनी आलीशान पार्टी में शामिल करना तथाकथित शान के खिलाफ समझते हैं। यही रुढ़िवादी सोच उच्च वर्ग से मध्यम वर्ग की तरफ चली आती है। आज बन रहा समाज का सच डरावना एवं संवेदनहीन है।

वृद्धावस्था जीवन का अनिवार्य सत्य है। जो आज युवा है, वह कल बूढ़ा भी होगा ही, लेकिन समस्या की शुरूआत तब होती है, जब युवा पीढ़ी अपने बुजुर्गों को उपेक्षा की निगाह से देखने लगती है और उन्हें अपने बुढ़ापे और अकेलेपन से लड़ने के लिए असहाय छोड़ देती है। आज वृद्धों को अकेलापन, परिवार के सदस्यों द्वारा उपेक्षा, तिरस्कार, कटुक्तियां, घर से निकाले जाने का भय या एक छत की तलाश में इधर-उधर भटकने का गम हरदम सालता रहता। वृद्धों को लेकर जो गंभीर समस्याएं आज पैदा हुई हैं, वह अचानक ही नहीं हुई, बल्कि उपभोक्तावादी संस्कृति तथा महानगरीय अधुनातन बोध के तहत बदलते सामाजिक मूल्यों, नई पीढ़ी की सोच में परिवर्तन आने, महंगाई के बढ़ने और व्यक्ति के अपने बच्चों और पत्नी तक सीमित हो जाने की प्रवृत्ति के कारण बड़े-बूढ़ों के लिए अनेक समस्याएं आ खड़ी हुई हैं। इसीलिये सिसरो ने कामना करते हुए कहा था कि जैसे मैं वृद्धावस्था के कुछ गुणों को अपने अन्दर समाविष्ट रखने वाला युवक को चाहता हूं, उतनी ही प्रसन्नता मुझे युवाकाल के गुणों से युक्त वृद्ध को देखकर भी होती है, जो इस नियम का पालन करता है, शरीर से भले वृद्ध हो जाए, किन्तु दिमाग से कभी वृद्ध नहीं हो सकता। वृद्ध लोगों के लिये यह जरूरी है कि वे वार्धक्य को ओढ़े नहीं, बल्कि जीएं।

दरअसल, नई जीवनशैली और नए मूल्य बूढ़ों को समाज में कोई जगह नहीं देते, बल्कि उन्हें उनकी जगह से भी विस्थापित करते हैं। विकास की अबाध गति उन्हें असहाय छोड़ देती है और वे निसहाय से अपने अतीत के गलियारों में डोलने लगते हैं। आज का समाज सेवानिवृत्त होते ही उस व्यक्ति को नकार देता है, वह चाहे जितना ही साधनसंपन्न हो, उसकी पूछ कम हो जाती है और लोग उसे अभिवादन की सामान्य औपचारिकता प्रदान करने में भी कोताही करने लगते हैं। ऐसे में स्वार्थ का यह नंगा खेल स्वयं अपनों से होता देखकर वृद्धजनों को किन मानसिक आघातों से गुजरना पड़ता होगा, इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता।

वृद्धावस्था मानसिक व्यथा के साथ सिर्फ सहानुभूति की आशा जोहती रह जाती है। इसके पीछे मनोवैज्ञानिक परिस्थितियां काम करती हैं। वृद्धजन अव्यवस्था के बोझ और शारीरिक अक्षमता के दौर में अपने अकेलेपन से जूझना चाहते हैं पर इनकी सक्रियता का स्वागत समाज या परिवार नहीं करता और न करना चाहता है। बड़े शहरों में परिवार से उपेक्षित होने पर बूढ़े-बुजुर्गों को ओल्ड होम्स में शरण मिल भी जाती है, पर छोटे कस्बों और गांवों में तो ठुकराने, तरसाने, सताए जाने पर भी आजीवन घुट-घुट कर जीने की मजबूरी होती है। यद्यपि ह्यओल्ड होम्स की स्थिति भी ठीक नहीं है।

पहले जहां वृद्धाश्रम में सेवा-भाव प्रधान था, पर आज व्यावसायिकता की चोट में यहां अमीरों को ही प्रवेश मिल पा रहा है। ऐसे में मध्यमवर्गीय परिवार के वृद्धों के लिए जीवन का उत्तरार्द्ध पहाड़ बन जाता है। हमें समझना होगा कि अगर समाज के इस अनुभवी स्तंभ को यूं ही नजरअंदाज किया जाता रहा तो हम उस अनुभव से भी दूर हो जाएंगे, जो इन लोगों के पास है। वृद्ध दिवस मनाना तभी सार्थक होगा जब हम उन्हें परिवार में सम्मानजनक जीवन देंगे। उनके शुभ एवं मंगल की कामना करेंगे। ललित गर्ग

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