क्यों नहीं पुलिस सुधारों की फिक्र

Editorial
           प्रकाश सिंह

देश भर में पुलिस द्वारा आम नागरिक से ज्यादती (Misbehavior) की खबरें आए दिन चर्चा का विषय बनती है, लेकिन पुलिस की कार्यशैली व प्रशासनिक सुधारों की किसी को फिक्र नहीं है। ताजा मामला केरल में एक दलित किशोर को उसके माता-पिता (Parents) की कब्र खोदे जाने से रोकने का है, इतना ही नहीं कब्र खोद रहे युवा का पुलिस पर दर्द भरा तंज ‘कि पहले मार दिया अब दफना तो लेने दो’ केरल के मुख्यमंत्री (Chief Minister) पिनाराई विजयन को पूरा मामला जांचने पर मजबूर कर गया है।

कब्र की खुदाई कर रहे युवक के माता-पिता अंबिली एवं राजन को एक मकान खाली करने के लिए पुलिस ने खाना खाने का भी वक्त नहीं दिया जिसके चलते अंबलि व राजन ने पेट्रोल छिड़क लिया जो बाद में जलकर मर गए। पुलिस द्वारा पहले पीड़ित परिवार को खाना खाने का भी वक्त न देना, उसके बाद घटित घटनाक्रम में जान गंवा देने पर अंबिली व राजन की कब्र खुदने से रोकने का प्रयास पुलिस की असंवेदनशीलता का बेहद घिनौना रूप है।

आए दिन पुलिस ज्यादती रोकने या निष्पक्ष जांच करने के लिए आमजन को जनप्रतिनिधियों, न्यायलयों के चक्कर काटने पड़ते हैं। पिछले वर्ष अगस्त 2020 में दक्षिण भारत के ही शांताकुलम कस्बे में पुलिस पर आरोप लगा कि उन्होंने पोनराज जयराज एवं अनके पुत्र वेक्ंिस जयराज को अवैध हिरासत (Custody) में इतना पीटा कि अगले दिन उसकी मौत हो गई। देश में पुलिस ज्यादती का सबसे वीभत्स (Loathsome) मामला 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग कांड के नाम से दर्ज है, जिसमें करीब 400 लोग मारे गए एवं 1500 से ज्यादा लोग घायल हुए थे, उस दौर में शासक भले ही अंग्रेज था लेकिन उस वक्त का पुलिस प्रबंध आज भी ज्यों का त्यों बना हुआ है।

बिहार का भागलपुर कांड, पंजाब, कश्मीर, उत्तर पूर्व भारत में आतंकवाद के विरुद्ध कार्रवाई की आड़ में पुलिस ज्यादती की सैकड़ों दास्ताने हैं, जिनमें से बहुत सी तो बाहर भी नहीं आ सकी हैं। कभी किसी राजनेता के इशारे पर, कभी दंगा प्रदर्शन रोकने के नाम पर, कभी किसी पर पुलिस अधिकारी (Police Officer) से उलझने के नाम पर, कभी अपने ही गुनाह छुपाने के लिए पुलिस ने बार-बार भारत के लोकतांत्रिक चेहरे पर थूका है।

अफसोस इस बात का है कि आज भी उपनिवेशवादी (Colonialist) सोच का पुलिस तंत्र दुनिया के सबसे विशाल लोकतंत्र में बचाकर रखा है, जिसे कि आजादी की पहली सुबह के वक्त से ही बदला जाना चाहिए था। केन्द्र सरकार ने पुलिस सुधारों के लिए कई लुंजपुंज प्रयास किए भी हैं, जिनमें पुलिस शिकायत प्राधिकरण का गठन भी एक है। अफसोस पुलिस प्राधिकरण की शक्तियां राज्य सरकारों को सिफारिश तक ही सीमिति हैं, जिन पर भी राज्य सरकारें ढंग से अमल नहीं कर पाई हैं।

देश के महज 17 राज्यों ने ही अपने यहां पुलिस अधिनियम के अन्तर्गत पुलिस शिकायत प्राधिकरण का गठन किया है बल्कि राज्य इसे कार्यकारी प्रशासन के हवाले कर संतुष्ट हैं। पुलिस शिकायत प्राधिकरण का गठन अवैध हिरासत, पुलिस द्वारा उत्पीड़न, पीड़ितों के मामले की धीमी जांच या निष्पक्ष जांच (Fair investigation) न करने जैसे पुलिस कृत्यों के खिलाफ किया गया है, लेकिन इसका आम देशवासी को कोई खास लाभ नहीं हो रहा।

इसके अलावा मानव अधिकार आयोग है जो पुलिस ज्यादतियों पर कुछ कार्रवाई करता है, लेकिन मानव अधिकार आयोग की शक्तियां भी दण्डात्मक (Punitive) न होकर सिफारिशी हैं जिन्हें कभी पुलिस प्रशासन तो कभी राज्य सरकार अनदेखा करते रहते हैं। देश में पुलिस को राजनीतिक दबावों से मुक्त किए जाने, पुलिस प्रशासन में भ्रष्टाचार के अंत, मानवीय पुलिसिंग की दिशा में आमूल-चूल बदलावों की आवश्यकता है। पुलिस में सुधारों (Reforms) को जब तक लटकाया जाएगा, पुलिस द्वारा उत्पीड़न का अंतहीन सिलसिला चलता रहेगा।

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