दिल्ली हाईकोर्ट ने फरवरी 2020 में देश की राजधानी को हिला देने वाले दंगे स्पष्ट रूप से पल भर में नहीं हुए और वीडियो फुटेज में मौजूद प्रदर्शनकारियों का आचरण, जिसे अभियोजन पक्ष द्वारा रिकॉर्ड में रखा गया है, स्पष्ट रूप से चित्रित करता है। यह सरकार के कामकाज को अस्त-व्यस्त करने के साथ-साथ शहर में लोगों के सामान्य जीवन को बाधित करने के लिए सोचा-समझा प्रयास था। कोर्ट ने कहा कि सीसीटीवी कैमरों को व्यवस्थित रूप से काटना और नष्ट करना भी शहर में कानून-व्यवस्था को बिगाड़ने के लिए एक पूर्व नियोजित साजिश और पूर्व-नियोजित साजिश के अस्तित्व की पुष्टि करता है। दरअसल राजनीति व दंगाकारियों का एक ऐसा गठबंधन बन चुका है जो एक छोटी सी घटना को चिंगारी से ज्वाला बना देता है।
दंगों के पीछे साजिश इस बात से स्पष्ट है कि दंगों से पूर्व कुछ राजनीतिक दलों ने भड़काऊ ब्यान दिए थे। कई नेताओं के द्वारा कानून हाथ में लेने जैसे चेतावनी भरे शब्द भी सोशल मीडिया में फैलाए गए थे लेकिन दुख इस बात का है कि दंगों की असली जड़ राजनेता पुलिस की कार्रवाई से बच जाते हैं या पुलिस खुद ही उनका बचाव करने की हर संभव कोशिश करती है। गत दिवस दिल्ली की एक अदालत ने दंगों की सही जांच न होने पर पुलिस को भी फटकार लगाई थी, इससे पूर्व सन् 1984 में हुए दंगों में भी पुलिस की भूमिका शर्मनाक रही। उस वक्त भी पुलिस पर दंगाकारियों को रोकने की बजाय दंगाकारियों की मदद करने के आरोप लगते रहे। 1984 दंगों के आरोपियों को सजा दिलवाने के लिए तीन दशकों का समय लग गया। आज भी पीड़ित न्याय के लिए कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं। बहुत हैरानी है कि देश की राजधानी जहां सुरक्षा के पूरे प्रबंध रहते हैं, वहां पुलिस के पहरे में आम लोगों की हत्या कर दी जाती है।
यह इस देश की राजनीति में एक अचूक हथियार बन चुका है कि अपनी नाकामी पर पर्दा डालने व सत्ता के गठजोड़ को कायम करने के लिए सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता का मुद्दा उछाल दिया जाता है। जैसे जैसे जातिवादी राजनीति कमजोर हुई, वैसे वैसे तुष्टिकरण का हथियार असरहीन होता गया। अत: तुष्टिकरण की राजनीति के भरोसे सत्ता का सपना देखने वाले अस्थिरता और फसाद को हवा देने में सक्रिय हो रहे हैं। खैर देश में दंगों के इतिहास में जितना भीतर जाएंगे, उतने ही गहरे जवाब मिलेंगे। सांप्रदायिक दंगे देश पर कलंक हैं। दंगाकारी तो केवल सामने होते हैं, असली दोषी और ताकतें पर्दे के पीछे होती हैं जिन्होंने लाशों के ढेर से अपने हित साधने होते हैं। राजनेताओं को चाहिए कि वे अपनी अंर्तआत्मा की आवाज भी सुनें और दंगे भड़काने की बजाय सद्भावना कायम करें।
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