वैश्विक कोरोना महामारी भारत में ही नहीं बल्कि अनेक देशों में बड़ी समस्या बनी हुई है। हमारे देश में बेशक मामलों में बड़ी गिरावट आई है परंतु जिस तरह लोग मास्क पहनने में कोताही बरतने लगे हैं वह काफी चिंताजनक है। दूसरी लहर में काफी लोगों की मृत्यु हुई थी तभी लोगों ने धड़ाधड़ मास्क पहने, हाथों में सेनेटाइज भी किया और दूरी भी रखी परंतु मामले कम होते देखते ही लोग अचानक कोताही बरतना शुरु कर देते हैं। इस को स्वास्थ्य संस्कृति नहीं कहा जा सकता और ना ही आधुनिक होने का सबूत है। वास्तव में हमारे देश में लापरवाही वाली मानसिकता है सिर्फ मुसीबत देखकर ही सावधानी बरती जाती है ज्यों ही मुसीबत थोड़ी सी कम हो नहीं कि लापरवाही का आलम शुरू हो जाता है।
वास्तव में स्वास्थ्य संबंधी एक संस्कृति का निर्माण होना लाजमी है। कोरोना से पूर्व भी अनेक बीमारियां स्पर्श और मास्क न होने के कारण फैलती आई हैं। टीबी की बमारी मिसाल है। परिवार में किसी एक सदस्य को टीबी होने पर पता न होने के कारण दूसरे सदस्य भी बीमारी के शिकार हो जाते थे पता लगने पर मरीज और उसको संभालने वाले सदस्यों के लिए मास्क पहनना जरुरी है। सार्वजनिक स्थानों पर भी अनजान टीबी का मरीज सम्पर्क में आकर भी बीमारी फैला देता है। बेशक कल को कोरोना खत्म हो जाये फिर भी हमें मास्क संबंधी जागरुक रहना चाहिए। देश के अस्पतालों में मरीजों के साथ आने वाले करोड़ों लोग बिना मास्क से आते रहे हैं।
यह कल्चर बनना चाहिए है कि अस्पताल में जाने वाला प्रत्येक व्यक्ति मास्क पहनकर जाए। मास्क की जरुरत कोरोना काल के बाद भी रहेगी। मास्क किसी मजबूरी का नाम नहीं बल्कि स्वास्थ्य प्रति जागरुकता की निशानी है। मास्क लगाने के लिए जुर्माने जैसे शब्द महज एशियाई देशों में ही सुने जाते हैं। यूरोप और विकासशील देशों के लोग हिदायतों को दिल से अपनाते हैं। सरकारों को मास्क संबंधी जागरूकता के लिए और काम करना चाहिए, महज सख्ती नहीं। डेरा सच्चा सौदा ने इस दिशा में बेमिसाल कदम उठाया है। पूज्य गुरु संत डॉ. गुरमीत राम रहीम सिंह जी इन्सां की पावन पे्ररणाओं पर चलते साध-संगत लाखों लोगों को मास्क पहनने के लिए जागरुक कर रही है और जरूरतमंदों को मास्क बांट भी रही है। यही मुहिम प्रेरणा का स्त्रोत है, जिससे तंदरुस्ती यकीनी बनेगी।
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