किसका डंडा किसकी लाठी?

एक विचाराधीन कैदी कोलकाता की जेल में सड़ रहा है और उसे 32 साल बाद निर्दोष घोषित किया जाता है। तमिलनाडू में कर्फ्यू के दौरान 15 मिनट के लिए अपनी मोबाइल फोन की दुकान को खोलने के लिए एक पिता और पुत्र को गिरफ्तार किया जाता है और प्रताड़ित किया जाता है। देश की राजधानी दिल्ली में एक किशोरी के साथ बलात्कार होता है। ये दर्दनाक घटनाएं हर दिन देखने सुनने को मिलती है और पुलिस बिना किसी भय के लोगों को प्रताड़ित करती है और एक खून के प्यासे कातिल की तरह व्यवहार करती है और राज्य इस पर चुप्पी बनाए रखता है। पिछले सप्ताह प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय रक्षा विश्वविद्यालय के समारोह में इस कटु सच्चाई को रेखांकित किया और व्यापक पुलिस सुधारों की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने कहा कि पुलिस के बारे में एक नकारात्मक धारणा है कि लोग पुलिस से दूर रहें जबकि मूल मंत्र यह होना चाहिए कि समाज को उकसाने के विरुद्ध उसे कठोर होना चाहिए और समाज के प्रति नरम होना चाहिए। बदलाव के लिए उनका यह आह्वान स्वागत योग्य है किंतु यह एक दिवास्वप्न की तरह है क्योकि अनेक नेता पहले भी अनेक बार ऐसी बातें कह चुके हैं और पुलिस सुधार के लिए अनेक आयोगों का गठन किया गया है किंतु परिणाम ढाक के तीन पात ही हैं।
इसका कारण यह है कि अंग्रेजी हुकूमत के समय से ही पुलिस जानती है कि लोगों के विरुद्ध किस तरह डंडे का प्रयोग किया जाए क्योंकि यह पुलिस अधिनियम 1861 के अधीन शासित होती है जिसने उसे नकारात्मक भूमिका दी गयी है अर्थात प्रशासन की सुरक्षा करना। यह कहना निरर्थक है कि राज्य का प्रभाव कम हो गया है क्योंकि पुलिस एक राज्य सूची का विषय है जिसके अंतर्गत राज्य सरकारें अक्सर पाठ्यक्रमेत्तर कार्यों जिनमें राजनीतिक दृष्टि से संवेदनशील मामलों की दिशा तय करना जैसा शामिल है, के लिए अक्सर पुलिस पर निर्भर रहती है क्योंकि पुलिस में तैनाती और स्थानांतरण का नियंत्रण राज्य के नेताओं के पास होता है इसलिए पुलिस अपनी शक्तियों का दुरूपयोग और कुप्रयोग करती है। हैरानी की बात यह है कि वदीर्वाले तर्क और जवाबदेही को नजरंदाज करते हैं। एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के शब्दों में, पुलिस बल में समझौते आम बात हो गयी है क्योंकि महत्वहीन पदों पर स्थानांतरण, पदावनति और निलंबन की धमकी के कारण अधिकतर पुलिसवाले अक्सर अपने राजनीतिक माई-बाप का कहना मानते हैं जिसके चलते वे सत्तारूढ दल के पक्षपातपूर्ण एजेंडा के साधन के रूप में प्रयोग किए जाते हैं और नागरिकों के विरुद्ध कार्य करते हैं। पुलिस आयोग की रिपोर्ट इस संबंध में सब कुछ बता देती है। रिपोर्ट में कहा गया है कि 60 प्रतिशत गिरफ्तारियां अनावश्यक हैं, 30 प्रतिशत मौतें अवांछित हैं और पुलिस की कार्यवाही के चलते जेलों का 43.2 प्रतिशत खर्चा होता है। उनका मानना है कि वर्दी लोगों को धमकाने का लाइसेंस और शक्ति देती है और अपने आप में कानून है। इसलिए पुलिस अधिक शक्तिशाली बन गयी है और कम जवाबदेह हो गयी है। लोकतंत्र की पूर्वापेक्षा नियंत्रण और संतुलन के सिद्धान्तों को छोड़ दिया गया है। आप किसी से छुटकाना पाना चाहते हैं तो आप पुलिस वाले अत्याचारी को बुला सकते हैं। बलात्कार से लेकर अदालत के बाहर समझौतों, फर्जी मुठभेड़, प्रताड़ना के कारण मौत, इन सब कार्यों को बहुत ही चालाकी से किया जाता है और इससे लोगों की रूह कांप जाती है और फिर भी हम स्वयं को एक सभ्य समाज कहते हैं।
प्रकाश सिंह मामले में पुलिस सुधार के लिए उच्चतम न्यायालय की 2006 के दिशा निदेर्शों को रद्दी की टोकरी में डालकर भुला दिया गया है। कानून और व्यवस्था की अपेक्षाओं के संबंध में राजनीतिक कीमत भी चुकानी पड़ती है। लालू की राजद और अखिलेश की समाजवादी पार्टी के बारे में लोगों में धारणा है कि ये अराजकता फैलाते हैं जबकि योगी ने कानून तोड़ने वालों के विरुद्ध पुलिस को खुली छूट दे रखी है और उसे पार्टी के स्थानीय नेताओं के प्रभाव से दूर रखा है और हालिया चुनावों में उनके इस रूख से उन्हें लाभ मिला है। क्या पुलिस को उससे अधिक दोष दिया जाता है जितना कि वह दोषी है? क्या मुख्य दोषी राजनेता हैं? सच्चाई इसके बीच की है। दोनों अपने-अपने हितों को आगे बढ़ाने के लिए मिलकर कार्य करते हैं जिससे व्यवस्था में विकृति आती है। फलत: राजनीति का अपराधीकरण अपराध के राजनीतिकरण और राजनीतिक अपराधियों के रूप में सामने आया है और फलत: दोनों में विकृतियां आयी। उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि जब कोई पार्टी सत्ता में आती है तो पुलिस सत्तारूढ पार्टी का पक्ष लेती है। जब नई पार्टी सत्ता में आती है तो वह उन अधिकारियों के विरुद्ध कार्यवाही करती है। आपको ध्यान होगा कि छत्तीसगढ में एक आईपीएस अधिकारी के विरुद्ध आय से अधिक संपत्ति का मामला दर्ज किया गया क्योंकि उसने मुख्यमंत्री बघेल के उस आदेश की अवहेलना की जिसके अंतर्गत उनसे कहा गया था कि पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह के विरुद्ध हवाला का मामला दर्ज किया जाए। इससे पूर्व उत्तर प्रदेश के एक निवासी को चेन्नई से इसलिए गिरफ्तार किया गया कि उसने केन्द्र के कोरोना प्रबंधन के विरुद्ध अपमानजनक टिप्पणी की थी।
मुंबई के पूर्व पुलिस आयुक्त सिंह ने राज्य के पूर्व गृह मंत्री देशमुख पर आरोप लगाया है कि उन्होंने उनसे कहा कि वे बार, रेस्टारेंट आदि से 100 करोड़ रूपए की उगाही करे। मंत्री बदलने के साथ पुलिस विभाग में व्यापक पैमाने पर स्थानांतरण होते हैं। बिहार के जेल इस बात के लिए कुख्यात हैं कि अपराधी अपराध कर आत्मसमर्पण करने आ जाते हैं क्योंकि उनकी पुलिस के साथ सांठगांठ होती है जो जेल में उन्हें संरक्षण देते हैं। राजनेता, अपराधी और पुलिस की सांठगांठ से मुक्ति के क्या उपाय हैं? आज नागरिक नेतागणों से जवाबदेही और उत्तरदायित्व की मांग कर रहे हैं इसलिए आवश्यक है कि हम अपनी प्राथमिकताओं को सही निर्धारित करें। इसके साथ ही एक आधुनिक पुलिस की आवश्यकता है जिसमें पुलिसकर्मी अधिक पेशेवर हों, अधिक प्रेरित हों, सुसज्जित हों और उसे अद्यतन प्रौद्योगिकी उपलब्ध करायी जाए। स्पष्ट है कि जब तक राजनीति में बदलाव नहंी आता पुलिस बल का आधुनिकीकरण नहंी किया जाएगा। वह तब तक प्रशिक्षित जनशक्ति नहीं बन सकती जो अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी का उपयोग करने में सक्षम न हो और जिसका दृष्टिकोण मानवीय हो जिससे लोगों का उसमें विश्वास बना रहे।
पुलिस नेतृत्व में संख्या की बजाय गुणवत्ता पर ध्यान दिया जाना चाहिए। किसी थाने में अपराधों को रोकने और अपराधों का पता लगाने के लिए 25 अर्ध शिक्षित पुलिसकर्मियों के बजाय छह पढे-लिखे उपनिरीक्षक बेहतर हैं। सक्षम अधिकारियों की कठिन क्षेत्रों में नियुक्ति की जानी चाहिए और उन्हें कम से कम तीन वर्ष का एक निश्चित कार्यकाल दिया जाना चाहिए ताकि वे स्थिति में सुधार ला सकें। इसके साथ ही पुलिस को उपलब्ध कराए गए हथियारों की गुणवत्ता में सुधार हो और उन्हें अधिक मोबिलिटी दी जाए। संख्या के बजाय पुलिसकर्मियों को मानवीय सोच के अनुसार कार्य करना चाहिए। एक अधिकारी जो यह समझता है कि युवा लोगों के साथ कैसी बात की जाए और विरोध प्रदर्शन के दौरान किस तरह वार्ता की जा सकती है। पुलिस की संचालनात्मक कमान में एक व्यापक बदलाव की आवश्यकता है। केवल बात करने से काम नहीं चलेगा। केन्द्र और राज्य सरकारों को सुर्खियों से परे सोचना होगा। कुल मिलाकर जब सर पर पड़ती है तो विकल्प आसान नहंी रहते हैं। कठिन समय मे कठिन कदम उठाने पड़ते हैं। अन्यथा हमें एक बंदूकप्रिय राष्ट्र के लिए तैयार रहना चाहिए। किसका डंडा और किसकी लाठी?

-पूनम आई कौशिश
वरिष्ठ लेखिका व स्वतंत्र टिप्पणीकार

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