लंका में आर्थिक संकट की स्थिति कई वर्षों से बन रही थी, इसलिए महामारी या यूक्रेन युद्ध पर सारा दोष नहीं मढ़ा जा सकता है। ये दो बाहरी कारक हैं और निश्चित रूप से इनका असर भी रहा है, लेकिन ये सुविधाजनक राजनीतिक बहाने भी हैं। यह सही है कि महामारी के कारण पर्यटन से होने वाली कमाई लगभग शून्य हो गयी। अन्य देशों में कार्यरत श्रीलंकाई कामगारों का रोजगार छूटने से बाहर से भी पैसा आना बहुत कम हो गया है। ये कामगार अमूमन आठ अरब डॉलर सालाना भेजते थे। इन दो वजहों से अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान हुआ। रही सही कसर तेल की बढ़ती कीमतों ने पूरी कर दी, क्योंकि श्रीलंका पूरी तरह आयातित तेल पर निर्भर है, किंतु जो तबाही और अस्थिरता हम अभी देख रहे हैं, वह कई वर्षों से तैयार हो रही थी। बाहरी आर्थिक झटके इस कारण भारी साबित हुए, क्योंकि अर्थव्यवस्था के घरेलू आधार पहले से लगातार कमजोर होते जा रहे थे। यदि किसी अर्थव्यवस्था में कम और संभालने लायक वित्तीय घाटे की स्थिति नहीं है या समुचित मुद्रा भंडार नहीं है या मुद्रास्फीति नियंत्रण में नहीं है या कराधान ठीक नहीं है, तो थोड़ा सा आंतरिक या बाहरी झटका भी आर्थिक संकट की स्थिति पैदा कर सकता है। अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य में गिरावट मुख्य रूप से पॉपुलिस्ट आर्थिक नीतियों तथा खराब आर्थिक संकेतों के प्रति सबकी लापरवाही के कारण आयी है। उदाहरण के लिए, आम तौर पर वृद्धि के समय बड़े वित्तीय घाटे को यह कह कर नजरअंदाज कर दिया जाता है कि यह आर्थिक बढ़ोतरी के लिए जरूरी है। वित्तीय घाटे की ऐसी स्थिति खर्च बढ़ने या करों में कटौती से आती है। श्रीलंका पहला देश नहीं है, जो विदेशी बॉन्ड निवेशकों द्वारा मंझधार में छोड़ दिया गया हो। श्रीलंका के हालात अर्जेंटीना के विदेशी विनिमय संकट की तरह खराब हो सकते हैं। संप्रभु डॉलर बॉन्ड जारी करने की योजना बना रहे भारत के लिए यह स्थिति एक चेतावनी हो सकती है। जब आप किसी अन्य मुद्रा में उधार लेते हैं, तो आपके पास कर्ज से बाहर निकलने के लिए उससे मुकरने या उस मुद्रा को छापने की स्वतंत्रता नहीं होती। लोक-लुभावन नीतियों और वित्तीय अनुशासनहीनता का अंत अच्छा नहीं होता। वर्ष 1991 में भारत का संकट भी ऐसे ही कारकों का परिणाम था, जिनका असर 1990 के खाड़ी युद्ध और महंगे तेल से बेहद चिंताजनक हो गया तथा मुद्रा संकट पैदा हो गया।
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