गाजियाबाद (सच कहूं/रविंद्र सिंह)। दुनिया के बेताज बादशाह के खिताब से नवाजे गए, किसान मसीहा बाबा चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत आज अगर जिंदा होते तो किसानों को और उनकी लड़ाई को ओर आगे तक लेकर जाते और शायद किसान की इतनी दुर्दशा भी नहीं हो रही होती। गांव और किसान, खुशहाली की ओर बढ़ रहे होते। आज बाबा टिकैत को और उनके संघर्ष को याद करते हुए किसानों को अपनी ताकत दोबारा बनानी होगी।फिर से संगठित होना होगा, वरना मंडी-फंडी, बिचौलिए और सरकारी तंत्र के शोषण के मकड़जाल से बाहर आना बहुत ही मुश्किल है। उनकी पुण्य तिथि के अवसर पर उनके द्वारा बनाए किसान संगठन का स्वरूप किसानों के वृहद हितार्थ सच्चे मायने में अराजनैतिक रखने हेतु इसे पारिवारिक सोच से बाहर निकालकर सभी धर्म, जातियों के लोगों को पूर्ववत इसमें शामिल करने की जरूरत है। देश के किसानों ने अपने मसीहा बाबा टिकैत की पुण्य तिथि मनाई, जल जंगल,जमीन बचाओ और पर्यावरण संरक्षण का संकल्प लिया।
मजदूर और किसानो के सच्चे मसीहा कहे जाने वाले बाबा चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैत का जन्म मुजफ्फरनगर जिले के सिसौली गाँव में एक मध्यम वर्गीय जाट परिवार में हुआ था। बाबा महेंद्र सिंह टिकैत बालियान खाप के चौधरी थे। 1980 के दशक में किसान प्रशासन में फैले भ्रष्टाचार और प्रशासन द्वारा किसानों के शोषण से इतने परेशान और दुखी हो गए कि किसानों ने बाबा टिकैत से सरकार के खिलाफ आंदोलन किए जाने और उसको अगवानी करने का अनुरोध किया। साल 1986 में कृषि कार्यों में प्रयोग होने वाली बिजली की दरें बढ़ाए जाने और ट्रांसफार्मर ना मिलने के खिलाफ तब जिले मुजफ्फरनगर के शामली में किसानों का एक
बड़ा आंदोलन हुआ जिसकी अगुवाई चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत ने की जिसमे मार्च 1987 में प्रशासन और राजनितिक लापरवाही से संघर्ष हुआ जिसमें दो किसानो और पीएसी के एक जवान की मौत हो गयी थी। किसानों के इस आंदोलन ने बाबा टिकैत को राष्ट्रीय किसान नेता की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया था। गौरतलब है कि जनवरी 1987 में जब बिजली दरों में प्रति हार्स पावर बीस रुपये की बढ़ोत्तरी की गई, तव बाबा टिकैत के नेतृत्व में भारी संख्या में किसानों ने शामली के करमूखेडी बिजलीघर को घेर लिया था। आठ दिनों तक उनको घेरेबंदी चलती रही थी और घेरा तब टूटा जब तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरबहादुर सिंह ने फैसला वापस लेने का एलान कर दिया था। वर्ष 1988 में भी उन्होंने मेरठ कमिश्नरी में कई दिनों तक प्रदर्शन किया था। इसके बाद बाबा टिकैत की अगुवाई में आन्दोलन इस कदर मजबूत हुआ कि प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरबहादुर सिंह को खुद सिसौली गांव में पहुंच कर पंचायत को संबोधित करते हुए किसानो की मांगो को मानने को मजबूर होना पड़ा था। इस आन्दोलन के बाद बावा टिकैत की छवि मजबूत हुई और देशभर में घूम-घूम कर उन्होंने किसानो के हक के लिए आवाज उठाना शुरू कर दिया।

बाबा टिकैत ने खाप व्यवस्था को समझा और ‘जाति’ से अलग हटकर सभी बिरादरी के किसानों के लिए काम करना शुरू किया। किसानो में उनकी लोकप्रियता बढती जा रही थी। इसी क्रम में उन्होंने 17 अक्टूबर 1986 को किसानों के हितों की रक्षा के लिए एक गैर राजनीतिक संगठन ‘भारतीय किसान यूनियन’ (अराजनैतिक) की स्थापना कर दी। हालांकि बाद में किसी ने यूनियन के ‘अराजनैतिक’ का ‘अ’ चुरा लिया! और अब वह ‘राजनीतिक’ और ‘परिवारिक’ यूनियन हो गई है। जिसके
चलते बाबा टिकैत के नेतृत्व में बने किसानों के संघर्ष और त्याग से बने इस संगठन की धार और प्रभाव भी कम हो गया है। बाबा टिकैत का एक किस्सा ‘अडियल जाट’ के नाम से बहुत प्रसिद्ध है। उस समय उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार थी। बात साल 2008 की हैं। मुजफ्फरनगर में सिसौली गांव को पूरे भारत के जाटों की ताकत का गढ़ माना जाने लगा था। हुआ यह कि बघरा विधानसभा से विधायक और राज्यसभा के पूर्व सांसद हरेन्द्र मलिक के पुत्र विधायक पंकज मलिक ने अधिकारी की बदसलूकी से नाराज होकर उस अधिकारी के साथ मारपीट कर दी थी। मायावती सरकार ने पंकज मलिक और उनके चार साथियों पर कई संगीन धारायें लगाकर उसके तीन साथियों को गिरफ्तार कर लिया गया था। इस मामले को लेकर मुजफ्फरनगर के सर छोटूराम जाट डिग्री कालेज के मैदान में पंचायत रखी गई। जिसमें मुख्य रूप से राष्ट्रीय लोकदल के राष्ट्रीय अध्यक्ष चौधरी अजित सिंह, महेंद्र सिंह टिकैत, लोकप्रिय विधायक रहे हरेन्द्र मलिक और तमाम जाट नेता एक मंच पर देखे गए थे। मेरी समझ के अनुसार वह आखिरी मौका था जब तमाम राजनीतिक दलों के जाट नेताओं को एक मंच पर एक साथ देखा गया था। अपनी एक विशेष शैली में बात करने वाले बाबा टिकैत ने तमाम नेताओं के बोलने के बाद कहा कि ‘भाई वह मायावती सुन ले और सरकार भी सुन ले, टैम देख कर ठीक दस मिनट में म्हारे बालकों को यहां म्हारे धोरे ला दो नहीं तो ग्यारहवीं मिनट में हम सारे जेल तोड़ के खुद ले आवेंगे’।
प्रशासन ने तुरंत फैसला लेते हुए पंकज के तीनों साथियों को रिहा किया था, ये थी बाबा टिकैत की ताकत। यूं ही उन्हें दुनिया के बेताज बादशाह के खिताब नहीं नवाजा गया था,उनमें ये काबिलियत भी थी।पश्चिम उत्तर प्रदेश के तमाम राजनीतिक दल बाबा के आगे पीछे घूमते थे। बीमारी की अवस्था में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री ने उन्हें सरकारी खर्च पर दिल्ली में इलाज कराने को कहा तो वो ठहाके लगाकर हंस पड़े और प्रधानमंत्री से कहा कि उनकी हालत ठीक नहीं है और पता नहीं कब क्या हो जाए। लेकिन उन्होंने कहा कि अगर केंद्र उनके जीते जी सरकार किसानों की भलाई के लिए कुछ ठोस कर दे तो इस आखिरी समय में वह राहत महसूस कर सकेंगे और उन्हें दिल से धन्यवाद देंगे। ऐसे भाव और विचार थे। महात्मा टिकैत के। 15 मई 2011 को 76 वर्ष की उम्र में बीमारी के कारण बाबा महेंद्र सिंह टिकैत की म्रत्यु हो गयी और किसानो की लड़ाई लड़ने वाला ये योद्धा हमेशा के लिए शांत हो गया। आज मैं बाबा की पुण्यतिथि पर उनको हृदय से भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं और बड़े अफसोस के साथ कहना चाहता हूँ कि अपने जीवन भर किसानो के हक की लड़ाई लड़ने वाले बाबा टिकैत के जाने के बाद सरकारों ने भी किसानो से मुंह मोड़ लिया। देश के किसान अब आस लगाए हुए बैठे है कि जल्द कोई महात्मा टिकैत सरीखे कोई नए अड़ियल बाबा का उदय होगा और सरकारें फिर से देश के किसान और मजदूर की सुध लेंगी। आज भी देश का किसान और मजदूर बाबा टिकैत जैसे अड़ियल नेता की बाट जोह रहा है। हालांकि उनके दोनों पुत्र चौधरी नरेश टिकैत और चौधरी राकेश टिकैत उनके दिखाए मार्ग पर चलने की कोशिश में निरंतर प्रयासरत है।लेकिन कितने सफल हो रहे है यह तो देश का मजदूर और किसान ही बेहतर बता सकता है।