Dasara in Haryana: प्रताप नगर, सच कहूं राजेंद्र कुमार। विजयदशमी पर जहां पूरा देश बुराई पर अच्छाई की जीत का उत्सव मनाता है। वहीं, यमुनानगर का एक परिवार ऐसा भी है, जिसके लिए यह दिन उत्सव नहीं, बल्कि भावनाओं का प्रतीक बन चुका है। दरअसल हम बात कर रहे हैं मनचंदा परिवार की, जो चार-पांच पीढ़ियों से रावण, मेघनाथ और कुंभकरण के पुतले दशहरा के मौके पर बनाते हैं।
पूरा परिवार मिलकर तैयार करता है पुतला: यमुनानगर का मनचंदा परिवार दशहरे के इस ऐतिहासिक पर्व का अहम हिस्सा रहा है। इनके बनाए 70 फीट ऊंचे पुतले हर साल यमुनानगर की रौनक बनते हैं। इन पुतलों को बिना किसी सपोर्ट के खड़ा किया जाता है, जो कि इनकी कला और तकनीक का अद्भुत उदाहरण है। इन्हें तैयार करने में करीब एक महीना लगता है, और पूरा परिवार मिलकर इसे तैयार करता है।
रावण दहन के बाद नहीं जलता मनचंदा परिवार का चूल्हा | Dasara in Haryana
रावण ‘गुरु’ हैं इनके लिए: मनचंदा परिवार की यह परंपरा सिर्फ एक पेशा नहीं, बल्कि एक आस्था और श्रद्धा है। मनचंदा परिवार रावण को अपना गुरु मानता है। उनका मानना है कि रावण विद्वान, शक्तिशाली और नीति के ज्ञाता थे, इसलिए दशहरे की रात जब रावण का दहन होता है, तो यह परिवार ऐसा महसूस करता है, जैसे कोई अपना खो गया हो।
दशहरे पर नहीं जलता चूल्हा: इसी भावना के चलते दशहरे की रात मनचंदा परिवार के घर की रसोई में चूल्हा नहीं जलती. दशकों से यह परंपरा चली आ रही है कि रावण दहन के बाद कोई खाना नहीं बनता और पूरा परिवार बिना खाए ही सो जाता है। यह उनके लिए श्रद्धांजलि का एक तरीका है।
रावण, मेघनाथ और कुंभकरण के पुतले बनकर लगभग तैयार
छठी पीढ़ी भी जुड़ रही है परंपरा से: वर्तमान में महेंद्र मनचंदा और उनके बेटे पंकज मनचंदा इस परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। अब छठी पीढ़ी के बच्चे भी इस कार्य में रुचि लेने लगे हैं और अपनी क्षमता अनुसार सहयोग कर रहे हैं। पुतलों के लिए डिजाइन किए गए कपड़े दर्जी से सिलवाए जाते हैं और उन्हें ढोल-नगाड़ों के साथ राजसी ठाठ से दशहरा ग्राउंड तक ले जाया जाता है। जहां विधिवत पूजा और प्राण-प्रतिष्ठा की जाती है।
मनचंदा का परिवार रावण का पुतला बनाने का काम करते हैं
“पेशा नहीं, हमारी श्रद्धा है”: इस बारे में महेंद्र मनचंदा का कहना है, “हमारे परिवार की ये परंपरा अब चार-पांच पीढ़ियों से चलती आ रही है। हम रावण, मेघनाथ और कुंभकरण के पुतले बनाते हैं और ये सिर्फ हमारा पेशा नहीं, हमारी श्रद्धा भी है. पुतले बनाने में करीब एक महीना लगता है और पूरा परिवार इसमें जुटा रहता है. खास बात यह है कि हमारे बनाए पुतले बिना किसी सपोर्ट के खड़े किए जाते हैं। उनके कपड़े भी दर्जी से खासतौर पर सिलवाए जाते हैं और जब ये तैयार हो जाते हैं, तो इन्हें ढोल-नगाड़ों के साथ राजसी अंदाज में दशहरा ग्राउंड तक ले जाया जाता है. वहां विधि विधान से पूजा कर इनमें प्राण-प्रतिष्ठा की जाती है।
यमुनानगर में 70 फीट का रावण का पुतला बनाया जा रहा है
बच्चे भी करते हैं सहयोग: वहीं, महेन्द्र के बेटे पंकज मनचंदा कहते हैं कि, “अब हमारी छठी पीढ़ी भी इस परंपरा से जुड़ रही है। बच्चे अपनी इच्छा से जितना कर सकते हैं, उतना सहयोग करते हैं. हम उन्हें कभी मजबूर नहीं करते, लेकिन वे खुद इस परंपरा को समझते हैं और सम्मान देते हैं। यह सिर्फ एक काम नहीं है, यह हमारी विरासत है, जिसे हम भावनाओं और श्रद्धा के साथ निभाते हैं। दशहरे की रौनक भले ही हमारे बनाए पुतलों से होती है, लेकिन उस रात हमारे घर की रसोई नहीं जलती, क्योंकि हमारे लिए रावण सिर्फ एक पात्र नहीं, बल्कि गुरु समान है।
बता दें कि मनचंदा परिवार की यह कहानी सिर्फ एक शिल्प की परंपरा नहीं है, बल्कि एक संवेदनशील सामाजिक और सांस्कृतिक विरासत भी है. दशहरे की रौनक उनके बिना अधूरी मानी जाती है, लेकिन उनके अपने घर में उसी रात सन्नाटा और श्रद्धा का माहौल रहता है।