डिजिटल क्रांति के युग में भी मिट्टी के दीयों की चमक बरकरार, कुम्हारों के लिए दीपावली बनी वरदान

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Sirsa News: डिजिटल क्रांति के युग में भी मिट्टी के दीयों की चमक बरकरार, कुम्हारों के लिए दीपावली बनी वरदान

सरसा (सच कहूँ/सुनील वर्मा)। Sirsa News: आधुनिकता और डिजिटल क्रांति के इस दौर में जहां हर तरफ पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध दिखाई देती है, वहीं भारत के तीज-त्योहार आज भी अपनी पारंपरिकता और मिट्टी की सौंधी खुशबू को संजोए हुए हैं। खासकर दीपावली, जो दीपोत्सव के रूप में जानी जाती है, इस त्योहार में मिट्टी के दीयों की चमक आज भी फीकी नहीं पड़ी है। बाजारों में रंग-बिरंगे, विभिन्न डिजाइनों वाले मिट्टी के दीये 5 से 50 रुपये की कीमत में सजे हुए हैं, जो लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं।

दीपावली का त्योहार कुम्हार (प्रजापत) समाज के लिए किसी वरदान से कम नहीं है। सरसा के शाह सतनाम जी चौक के नजदीक कुम्हारों के मोहल्ले में रहने वाले किशोरी लाल प्रजापत और दलबीर प्रजापत जैसे कारीगर दिन-रात मिट्टी को दीयों में ढालने में जुटे हैं। उनके बनाए दीये न केवल हरियाणा, बल्कि पंजाब, राजस्थान, दिल्ली और चंडीगढ़ जैसे शहरों में भी भेजे जा रहे हैं। किशोरी लाल व दलबीर बताते हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की स्वदेशी अपनाओ मुहिम ने मिट्टी के दीयों की मांग को और बढ़ाया है। आजकल गाय के गोबर से बने दीये भी खूब प्रचलन में हैं।

युवा पीढ़ी का मोहभंग, मेहनत ज्यादा मुनाफा कम | Sirsa News

हालांकि कुम्हारों के इस पारंपरिक पेशे से युवा पीढ़ी दूरी बनाती जा रही है। दस साल पहले सरसा के कुम्हार मोहल्ले में 150-200 परिवार इस काम से जुड़े थे, लेकिन अब यह संख्या घटकर 100 से भी कम रह गई है। दलबीर प्रजापत बताते हैं हमने अपनी पूरी जिंदगी इस काम में लगा दी, लेकिन ज्यादा तरक्की नहीं हुई। एक व्यक्ति दिनभर में ज्यादा से ज्यादा 2000 दीये बना सकता है, लेकिन मेहनत के हिसाब से आमदनी कम है। उनका बेटा बीएससी कर रहा है और इस काम में उसकी कोई रुचि नहीं है। किशोरी लाल के बेटे और बेटियां भी मजबूरी में कभी-कभार हाथ बंटाते हैं, लेकिन उनके पोते-पोतियां शिक्षा की ओर बढ़ रहे हैं।

मिट्टी की कमी बनी चुनौती

कुम्हारों के सामने सबसे बड़ी समस्या चिकनी मिट्टी की कमी है। किशोरी लाल बताते हैं पहले हम मेला ग्राउंड से मिट्टी लाकर दीये और घड़े बनाते थे, लेकिन अब दूर-दराज से मिट्टी मंगवानी पड़ती है, जिससे लागत बढ़ जाती है और बचत नहीं हो पाती। दीयों को पकाने के लिए भी लकड़ी व उपलों की आवश्यकता होती है वो भी अब आसानी से नहीं मिलते। किशोरी लाल प्रजापत की पत्नी बसंती और पुत्रवधू खुशबू इस काम में सहयोग करती हैं। जहां खुशबू दीयों को रंग-बिरंगी सजावट से और आकर्षक बनाती हैं, वहीं बसंती कच्चे दीयों को पकाने जैसे कामों में हाथ बंटाती हैं। Sirsa News

मिट्टी के दीयों की चमक अब भी कायम

भले ही आधुनिकता का रंग दीपावली पर चढ़ रहा हो, लेकिन मिट्टी के दीयों की मांग आज भी बरकरार है। कुम्हारों का कहना है कि दीपावली के मौके पर पूरा परिवार इस काम में जुट जाता है, फिर भी आॅर्डर पूरे करना मुश्किल हो जाता है। यह त्योहार न केवल उनके लिए आर्थिक अवसर लाता है, बल्कि भारतीय संस्कृति और परंपरा को जीवित रखने का माध्यम भी बन रहा है। मिट्टी के इन दीयों की रोशनी न सिर्फ घरों को, बल्कि कुम्हारों के जीवन को भी रोशन कर रही है।

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