अंबाला: सियासी शतरंज पर ‘वजीर कौन?’

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Ambala अंबाला: सियासी शतरंज पर ‘वजीर कौन?’

अंबाला सच कहूँ/संदीप सांतरे। राजनीति में सस्पेंस किसी थ्रिलर फिल्म से कम नहीं होता और इन दिनों अंबाला का सियासी मौसम कुछ ऐसा ही है। कड़कड़ाती ठंड के बीच शहर का राजनीतिक पारा सातवें आसमान पर था, लेकिन सोमवार को पंचकूला से आई एक खबर ने सब कुछ फ्रीज कर दिया। मेयर पद के आरक्षण पर फैसला लेने वाली उच्चस्तरीय बैठक के दूसरी बार स्थगित होते ही, अंबाला के उन नेताओं के चेहरों की रंगत उड़ गई है, जो महीनों से जीत का सेहरा बांधने के सपने संजो रहे थे। यह महज एक तारीख का बदलना नहीं है, बल्कि यह उन तमाम समीकरणों का बिखरना है, जो अंबाला के बड़े सियासी परिवारों ने ड्राइंग रूम में बैठकर तैयार किए थे।

अदालत की चौखट पर फंसा पेंच

कहानी में ट्विस्ट केवल आरक्षण का नहीं है। वार्ड बंदी में हुई कथित मनमानी और एडहॉक कमेटी में विपक्ष की अनदेखी ने मामले को पेचीदा बना दिया है। विपक्षी पार्षद फाइलों में कमियां ढूंढ़ रहे हैं और प्रशासन जवाब तैयार करने में जुटा है। फिलहाल, अंबाला की राजनीति पॉज मोड में है। दावेदार जनता के बीच जा तो रहे हैं, लेकिन उनकी जुबान पर वो यकीन नहीं है जो टिकट पक्की होने पर होता है। अब सबकी निगाहें पंचकूला के ड्रा पर टिकी हैं, कि कब वो लिफाफा खुलेगा जो बताएगा कि अंबाला का अगला सरताज किस वर्ग से होगा। तब तक, नेताओं की धड़कनें और जनता की कयासबाजियां, दोनों ही अनियंत्रित हैं।

अंबाला मेयर की कुर्सी महज एक पद नहीं, बल्कि रसूख का पर्याय

अंबाला मेयर की कुर्सी महज एक पद नहीं, बल्कि रसूख का पर्याय रही है। इस सीट का इतिहास गवाह है कि यहाँ साधारण नहीं, बल्कि रमेश मल और शक्तिरानी शर्मा जैसे वजनदार व्यक्तित्वों ने कमान संभाली है। जब शक्तिरानी शर्मा कालका की विधायक बनीं, तो उपचुनाव में शैलजा सचदेवा ने जिस अंदाज में मोर्चा संभाला, उसने साबित किया कि यहाँ की राजनीति में हर किसी की दाल नहीं गलती। अब जब नया कार्यकाल सामने है, तो शहर के पुराने चाणक्य इसी उधेड़बुन में हैं कि क्या इस बार भी बाजी उनके हाथ रहेगी, या आरक्षण का पासा खेल पलट देगा।

बंद कमरों में बीसी-बी का खौफ

सबसे ज्यादा रोचक और नेताओं के लिए डरावनी चर्चा पिछड़ा वर्ग-बी आरक्षण की है। शहर के चौक-चौराहों से लेकर पॉश कॉलोनियों तक, एक ही सवाल तैर रहा है कि अगर सीट आरक्षित हो गई, तो सामान्य वर्ग के उन महारथियों का क्या होगा, जिन्होंने होर्डिंग्स और बैनरों से शहर पाट रखा है? अंदरखाने की खबर यह भी है कि भाजपा और कांग्रेस, दोनों ही दलों के रणनीतिकार पसीने-पसीने हैं। कारण साफ है कि शक्तिरानी शर्मा या रमेश मल के कद का मुकाबला करने वाला कोई मजबूत चेहरा बीसी-बी वर्ग में फिलहाल किसी पार्टी के पास तैयार नहीं है। अगर आरक्षण का तीर चला, तो दोनों दलों को इंपोर्टेड उम्मीदवार या नए चेहरों के सहारे नैया पार लगानी होगी, जो किसी जुए से कम नहीं होगा।
कुछ यूं रहा है

अंबाला नगर निगम का इतिहास

अंबाला नगर निगम का इतिहास सियासी दांव-पेच और बदलावों की एक दिलचस्प दास्तां रहा है। साल 2013 में जब अंबाला शहर और छावनी को मिलाकर संयुक्त निगम बना। कांग्रेस और पूर्व केंद्रीय मंत्री विनोद शर्मा के रसूख के चलते रमेश मल पार्षदों द्वारा चुने गए पहले मेयर बने। मगर 2018 में पेंच तब फंसा जब सरकार ने निगम को भंग कर कैंट में परिषद और सिटी में निगम बनाने का फैसला लिया। लंबी कानूनी रस्साकशी के बाद हाईकोर्ट ने अंतत: इस प्रशासनिक विभाजन पर अपनी मुहर लगाई। इसके बाद 2020 का साल असली गेम चेंजर साबित हुआ। मेयर का चुनाव सीधे जनता के हाथों में आया और सदन में भाजपा का बहुमत होने के बावजूद, हरियाणा जनचेतना पार्टी की शक्तिरानी शर्मा ने अपनी व्यक्तिगत साख के दम पर मेयर पद जीता। 2024 में शक्तिरानी के कालका से भाजपा की विधायक बनने के बाद यह कुर्सी खाली हुई, जिसे 2025 के उपचुनाव में शैलजा संदीप सचदेवा ने संभाला। अंबाला की यह कुर्सी कभी पार्षदों के गणित, तो कभी जनता के सीधे फैसले से बदलती रही है।