जेएनयू की राह पर एएमयू

AMU On The Path Of JNU

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में आतंकवादी मनन वानी की नमाज-ए-जनाजा को परिसर में ही गोपनीय ढंग से जिस तरह पढ़ने की नाकाम कोशिश की गई, उससे लगता है, कहीं न कहीं इसे जवाहरलाल नेहरू विवि की राह पर धकेले जाने का षड्यंत्र तो नहीं चल रहा ? हालांकि विवि प्रशासन ने तुरंत सक्रिय होकर इस गतिविधि पर अंकुश लगाने के साथ हरकत में शामिल तीन छात्रों को निलंबित कर दिया है। सेना के हाथों जम्मू-कश्मीर की सरहद हिंदवाड़ा पर मारा गया आतंकी मनन वानी इसी विवि का छात्र था और पीएचडी कर रहा था। जनवरी 2017 में उसने सोशल मीडिया साइट पर एके-47 राइफल के साथ अपनी तस्वीर डाली थी, इसके तुरंत बाद उसे विवि से निष्कासित कर दिया गया था। यह हिजबुल मुजाहिदीन संगठन का आतंकी बन गया था। इस घटना के बाद कश्मीर से दुर्भाग्यपूर्ण पहलू में यह सामने आया है कि वहां देशविरोधी नारे लगाने वाले छात्रों के पक्ष में माहौल बनाया जा रहा है। मांग की जा रही है कि यदि देशद्रोह का मुकदमा वापस नहीं लिया गया तो एएमयू में पढ़ने वाले 1200 कश्मीरी छात्र विवि छोड़ देंगे। शासन को अलगाववादियों की इस धमकी के दबाव में आने की जरूरत नहीं है।

विवि सांप्रदायिक बंटवारे से बचा रहे इस नाते यहां के प्रवक्ता प्राध्यापक शाफे किदवई और एएमयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष फैजुल हसन के निष्पक्ष व बाजिब दखल को दाद देनी होगी। जब विवि प्रशासन को इस हरकत की खबर लगी कि जम्मू-कश्मीर के रहने वाले कुछ छात्र केनेडी हॉल के पास एकत्रित होकर वानी की नमाज-ए-जनाजा पढ़ने की फिराक में हैं। इस पर विवि के सुरक्षाकर्मी व अन्य कर्मचारी मौके पर पहुंचे। फैजुल हसन भी पहुंच गए। इन लोगों ने कड़ा हस्तक्षेप करते हुए नमाज पढ़ने पर रोक लगा दी। फैजुल ने बेहिचक कहा कि एक आतंकवादी के जनाजे की नमाज पढ़ना स्वीकार नहीं है और न ही कश्मीरी छात्रों को इस परिसर में ऐसा करने दिया जाएगा। एएमयू के कर्मचारियों ने भी कुछ इसी तरह का दबाव बनाया। दोनों पक्षों में तीखी बहस भी हुई। किदवई ने भी हरकती छात्रों से कहा कि वे किसी भी राष्ट्रविरोधी गतिविधि को किसी भी सूरत में बर्दाश्त नहीं करेंगे। विवि प्रशासन के इस विरोध के चलते हरकती छात्रों को राष्ट्रविरोधी गतिविधि बंद करनी पड़ी। इस कार्यक्रम के टलने के बाद फैजुल हसन ने स्पष्ट किया कि वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की हिमायत करते हैं, लेकिन राष्ट्रद्रोह या आतंकवाद किसी भी हाल में सहन नहीं किया जाएगा।

दहशतगर्दों के समर्थन का कोई भी कार्यक्रम विवि परिसर में नहीं होने दिया जाएगा। इसी बीच अलीगढ़ से भाजपा सांसद सतीश गौतम ने नमाए-ए-जनाजा पढ़ने की कोशिश करने वाले छात्रों को एएमयू से निष्कासित करने की मांग की। साथ ही उन्होंने नमाज पढ़ने से रोकने वाले फैजुल किदवई और कर्मचारियों की भी सराहना की। इस घटना का एमएमयू छात्र संघ और कर्मचारियों के हस्तक्षेप से संतोषजनक पटाक्षेप हो गया। अन्यथा यह मामला भी जेएनयू और जादवपुर विवि की तरह सांप्रदायिक रूप ले सकता था। हालांकि कश्मीर में सांप्रदायिक उभार को हवा देकर एएमयू का सद्भाव बिगाड़ने की कोशिश हो रही है, जो कतई उचित नहीं है। अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर इन विवि में राष्ट्रविरोधी मानसिक कुरुपता कैसे और क्यों विकसित हो रही है ? इसके पीछे वे कौन से शड्यंत्रकारी तत्व हैं, जो मासूम छात्रों के जीवन से खिलवाड़ कर धर्म के नाम पर आतंक का पाठ पढ़ाकर आतंक के अनुयायी बना रहे हैं ? इस दुश्चक्र का शुरूआती पहलू जेएनयू में फरवरी 2016 में सामने आया था। यहां अफजल गुरू के समर्थन में नारे लगने के साथ देश तोड़ने के भी नारे लगाए गए थे। हालांकि बाद में जांच से पता चला कि ये आपत्तिजनक गतिविधियां इस विवि में पिछले चार साल से चल रही थीं। बाद में इसी मामले की हुंकार पश्चिम बंगाल के जादवपुर विवि में भरी गई।

देशद्रोह से जुड़े नारों को लगाते वक्त षड्यंत्रकारियों ने यह भ्रम फैलाने की कवायद की थी कि इसमें मुख्यधारा के विद्यार्थी भी शामिल हैं। क्योंकि इस समूह में शामिल जेएनयू छात्रसंघ के तत्कालीन अध्यक्ष कन्हैया कुमार को देशद्रोह के आरोप में दिल्ली पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था। हालांकि कन्हैया ने अपना मंतव्य स्पष्ट करते हुए कहा कि उसके रहते हुए कोई भी राष्ट्रविरोधी गतिविधि नहीं चली। उसकी संविधान में पूरी आस्था है और वह देश तोड़ने वाली ताकतों के खिलाफ है। लेकिन इस मामले में विडंबना यह रही कि जिस डेमोक्रेटिक स्टूडेंस यूनियन ने और उसके जिस नेता ने अफजल के समर्थन में नारे लगाने और देश के हजार टुकड़े करने की हुंकार भरी थी उसके विरुद्ध कोई कठोर कार्यवाही नहीं की गई।

इन विश्वविद्यालयों में प्रशासन और छात्रों को स्वायक्ता इसलिए दी गई है, जिससे वे कुछ मौलिक व रचनात्मक ज्ञान अर्जित करें और देश व दुनिया को मानवता का पाठ पढ़ाएं। शिक्षा के जो भी प्रतिष्ठान हैं, चरित्र निर्माण, सहिष्णुता, विवेकशीलता, वैचारिकता और सत्य के अनुसंधान के लिए हैं। यदि ये संस्थान सम्यक दायित्व बोध में असफल सिद्ध होते हैं तो कालांतर में ये अराजक तत्वों का सह-उत्पाद बनकर रह जाएंगे। धार्मिक कट्टरता और जातीय आरक्षण को लेकर देश में जैसे मतांतर पिछले दिनों देखने में आए हैं, वे भी शिक्षा की प्रसांगिकता पर सवाल खड़े करते हैं कि आखिर हम ऐसी कौनसी शिक्षा का पाठ पढ़ा रहे हैं, जिसके चलते छात्र धर्म और जाति के दायरे में ध्रुवीकृत हो रहे हैं।

कोई विवि यदि राष्ट्रविरोधी हरकतों के चलते चर्चा में आता है, तो वहां के शिक्षक व प्रशासक भी निंदा के दायरे में आते हैं। ऐसे में यह शक स्वाभाविक रूप में जहन में उभरता है कि क्या इनके स्वायत्ता से संबद्ध विधान, आधारभूत सरंचना, पाठ्य पुस्तकें और शोध प्रक्रिया जैसे बुनियादी तत्वों में कहीं कोई कमी है ? दरअसल जेएनय, एमएमयू, वणारस हिंदू विवि, जादवपुर विवि जैसे शीर्ष शिक्षा संस्थानों की आधारशीला रखते वक्त परिकल्पना यह की गई थी कि ये संस्थान विश्वस्तरीय वैज्ञानिक, अभियंता और चिकित्सक देंगे। लेकिन देखने में आया है कि आज तक इन विवि ने ऐसा कोई वैज्ञानिक या आविष्कारिक नहीं दिया, जिसके सिद्धांत अथवा अविष्कार को वैश्विक मान्यता या नोबेल पुरस्कार मिला हो ? क्या ऐसा वामपंथी वैचारिक जड़ता के कारण हुआ ? क्योंकि खासतौर से जेएनयू में तो परंपरा ही बन गईं है कि वामपंथी विद्धानों की इस संस्थान में नियुक्ति हो, छात्रों में इसी एकमात्र विचारधारा को वे प्रोत्साहित करें, जिससे देश में वर्ग संघर्श उत्पन्न हो।

बहुलतावादी वैचारिक सोच का समावेश न होने पाए। अब परिदृश्य बदल रहा है, इसलिए इस वामपंथी चौखट को तोड़ना होगा। गांधी ने भारतीय भौगोलिक परिवेश और मानसिकता के अनुसार ज्ञानार्जन की बात कही थी, उस गांधी दर्शन का प्रवेश इन परिसरों में जरूरी हो गया है। लोहिया ने समानता का भाव पैदा करने वाली शिक्षा को अंगीकार किया था। इसी तरह दक्षिणपंथी दीनदयाल उपध्याय ने अंत्योदय की बात कही है। क्यों नहीं अब विभिन्न अकादमिक पदों पर विचार भिन्नता से जुड़े अध्यापकों की भर्ती हो ? यदि ऐसा होता है तो एकपक्षीय विचारों की जड़ता टूटेगी। नए विचार संपन्न संवादों के संप्रेषण से समावेशी सोच विकसित होगी। जब हम देश की अखंडता बनाए रखने की दृष्टि से विविधता में एकता का नारा देते हैं तो फिर शिक्षा में वैचारिक एकरूपता क्यों ? जेएनयू में शायद वाम विचारधारा को महत्व इसलिए दिया जाता रहा है, जिससे दूसरे प्रकार की वैचारिकता से चुनौती मिले ही नहीं ? अब जेएनयू की तरह अन्य विश्वविद्यालयों में दक्षिणपंथी की उपस्थिति दर्ज हो रही है, तो वामपंथी धर्मनिरपेक्षता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बहाने बचने की कोशिश में हैं। किंतु धर्मनिरपेक्षता को केवल मुस्लिम तुष्टिकरण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को पाकिस्तान जिंदाबाद के नारों से मुक्त होना होगा। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भी संविधान के दायरे में नए सिरे से परिभाषित करने की जरूरत है।

क्योंकि आर्थिक उदारवाद के इस कठिन दौर में जिस तरह का भूमंडलीकरण उभरा है, उसके तईं सांस्कृतिक मूल्य और परिदृश्य भी तेजी से बदल रहे हैं। ऐसे में छात्रों की स्वतंत्रता कब स्वछंदता का रूप ले लेती है, यह रेखांकित करना मुश्किल हो जाता है। इन संस्थानों से निकले छात्र ही, कल देश के नेतृत्वकर्ता होंगे ? इस नाते इनके क्या उत्तरदायित्व बनते हैं, यह गंभीरता से सोचने की जरूरत है। अंतत: देश में समरसता और समृद्धि समावेशी उदारता से ही पनपेगी, इसलिए बहुलतावादी सोच को अंगीकार करना अनिवार्य हो गया है। प्रमोद भार्गव

 

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