आखिर 52 साल के बाद देश को राष्ट्रीय लोकपाल मिला है जिसमें चार न्यायिक व गैर -न्यायिक सदस्यों की नियुक्ति हो गई है। इस निर्णय से प्रधानमंत्री व पूर्व प्रधानमंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले में जांच हो सकेगी। नि:संदेह यह एक बहुत बड़ा निर्णय है लेकिन जिस प्रकार इसका कानून पास होने के बाद पांच सालों तक लटकाया गया उससे यही लगता है कि हमारी सरकारें भ्रष्टाचार मिटाने के लिए गंभीर नहीं। सन 2011 में सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे ने लोकपाल की मांग करते हुए दिल्ली के जंतर-मंतर में धरना लगाकर उस समय की यूपीए सरकार को हिला दिया था। यूपीए सरकार के कार्यकाल में 2013 में लोकपाल बिल पास हो गया और तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने बिल को मंजूरी भी दे दी। इसके बावजूद पांच सालों तक लोकपाल का पद खाली रहना निराशाजनक बात है। विशेषकर जब देश में भ्रष्टाचार एक बड़ी समस्या बन चुका हो। यह भी बहुत निर्लज्जता वाली बात है कि सुप्रीम कोर्ट में सरकार ने लोकपाल की नियुक्ति में देरी का कारण बुनियादी ढांचें की कमी को बताया। सुप्रीम कोर्ट ने इस देरी के लिए कई बार सरकार को फटकार लगाई।
यदि अदालत ने सख्त रवैया नहीं अपनाया होता तब लोकपाल की नियुक्ति करना मुश्किल था। राजनैतिक दबाव में मुकदमें कमजोर किए जाते हैं। चुनाव जीतने के लिए गुप्त समझौते कर मामले रफा-दफा हो रहे हैं। विजीलैंस/सीबीआई जैसी जांच एजेंसियों के प्रमुख और अन्य उच्च अधिकारी खुद अदालतों के चक्कर काट रहे हैं। लोकपाल बनाना एक दुरूस्त निर्णय है लेकिन जमीनी स्तर पर भ्रष्टाचार के विरुद्ध पहले से कार्य कर रही जांच एजेंसियों की कार्यशैली को कायम रखना एक बड़ी चुनौती है। आम आदमी भ्रष्ट पटवारियों, तहसीलदारों, क्लर्कों से दुखी है, जहां उनकी पुकार सुनने वाला कोई नहीं।
ऐसे मामलों में आम लोगों की सुनवाई नहीं होती। प्रधानमंत्री के पद का अपना महत्व है लेकिन निम्न स्तर पर भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए बनाई कई एजेंसियों को भी दरुस्त करना होगा। भ्रष्टाचार मानवता के खिलाफ अपराध है उसका दोषी भले ही प्रधानमंत्री हो या किसी सरकारी कार्यालय का क्लर्क। भ्रष्टाचार मिटाने के लिए लोकपाल की सफलता के लिए जरूरी यही है कि लोकपाल को निष्पक्षता बनाने के लिए राजनैतिक दबाव से मुक्त रखना होगा। लोकपाल की नियुक्ति पहले ही विवादों में घिर गई है। विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को नियुक्ति वाली समिति में केवल स्पैशल इनवाईटी सदस्य के तौर पर बुलाया गया था जिसे खड़गे ने नकार दिया। विपक्ष की राय लोकतंत्र में अहम होती है, जब सीबीआई और चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं में नियुक्तियों के लिए विपक्ष का सदस्य जरूरी है तब लोकपाल की नियुक्ति में इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
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