देश विडंबनाओं के साथ भरा पड़ा है, खास कर राजनीति में जो कहा जाता है वह होता नहीं है, जो असलियत है वह बताई नहीं जाती। कालेधन की वापसी का दावा करने वाली राजनीतिक पार्टियां खुद ही काले धन पर पल रही हों तो आम आदमी का भौंच्चका रह जाना स्वाभाविक है। एक खुलासे के अनुसार राजनीतिक पार्टियों को 711 करोड़ का चंदा ‘अज्ञात स्त्रोतों’ से प्राप्त हुआ है।
कानून की भाषा में यह कालाधन है जो कि दंडनीय है। इस राशि में सबसे बड़ा हिस्सा 532 करोड़ भाजपा के हिस्से आया है जो कांगे्रस सहित कई अन्य पार्टियों के कुल चंदे से 9 गुणा अधिक है। ऐसे हालातों में देश से बाहर रखा कालाधन वापिस लाने व देश के अंदर कालेधन का खात्मा करना असंभव है। दरअसल पैसा राजनीति में सबसे बड़ी बुराई बन गया है।
चंदा तकनीकी तौर पर रिश्वत का ही एक रूप हो गया है, जो धनवान राजनीतिक पार्टियों को चुनावों के समय जो दान दिया जाता है, सरकारें बनने पर पूंजीपतियों द्वारा वह कई गुणा अधिक वसूल किया जाता है। जब तक चंदा राजनीति का अंग बना रहेगा तब तक सुधार की गुजांईश बहुत कम है। सभी राजनेता यह बात सार्वजनिक तौर स्वीकार कर चुके हैं कि वह सिर्फ रूपयों की कमी के कारण ही हार गए।
जब पार्टियां ‘पेशेवर चुनाव रणनीतिकारों’ को 500-700 करोड़ रूपये फीस के तौर पर देंगी तो लड़ाई विचारों की नहीं पैसों की होगी। एक प्रसिद्ध रणनीतिकार की तरफ से केन्द्र से लेकर राज्यों तक मुंह मांगी फीस देने वाली पार्टियों की सरकार बनाने की चर्चा है।
चंदा एकत्रित करने की स्वीकृति के साथ-साथ चुनाव कमीशन की ओर से खर्च की सीमा तय करना व नामाकंन के समय उम्मीदवार द्वारा उसकी अपनी चल-अचल सम्पति के विवरण जारी करने के नियम बेअसर हो रहे हैं। बहुत से नेता चुनाव लड़ने की हिम्मत नहीं करते चूंकि उनके पास धन नहीं है।
पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिन्द्र सिंह ने तो यहां तक कह दिया था कि राजनीति राजनीतिक घरानों के वश की ही बात रह गई है। राजनीतिक पार्टियों के पास आया कालाधन चुनाव प्रबंध के साथ-साथ शासन-प्रशासन में भी भ्रष्टाचार पैदा करता है। पैसे की अधिकता लोकतंत्र को बौना करती है। राजनीतिक पार्टियों को चंदा एकत्रित करने पर राष्टÑीय बहस होनी चाहिए ताकि धन किसी भी पार्टी की ताकत न बने।
Hindi News से जुडे अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook और Twitter पर फॉलो करें।