चकनाचूर होता विपक्षी एकता का सपना

Break Opposition Unity's Dream

लोकतंत्र में सत्ता पक्ष और विपक्ष की अपनी-अपनी जिम्मेदारियां होती हैं। लेकिन जब विपक्ष के पास संख्या बल का अभाव होता है तो वह घायल शेर की तरह से दिखाने का प्रयास करता है। इसी दिखावे के प्रयास में कई बार ऐसी चूक हो जाती है कि उसकी भरपाई नहीं की जा सकती। संसद में विपक्षी दल तेलगुदेशम पार्टी की ओर से लाए गए अविश्वास प्रस्ताव पर विपक्ष की जिस प्रकार से किरकिरी हुई, उसकी कसक विपक्षी राजनीतिक दलों को लम्बे समय तक रहेगी। लोकसभा में पर्याप्त संख्याबल न होने के बाबजूद अविश्वास प्रस्ताव को लाना किसी भी प्रकार से न्याय संगत नहीं कहा जा सकता। इस प्रस्ताव को भले ही तेलगुदेशम पार्टी की ओर से लाया गया, लेकिन इसके केन्द्र में कांग्रेस पार्टी के नेता ही दिखाई दिए। विरासती पृष्ठ भूमि के उपजे कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने अपने आपको देश के सामने एक परिपक्व राजनेता के रुप में प्रस्तुत करने का राजनीतिक खेल खेला। इसे राहुल गांधी का राजनीतिक अभिनय कहा जाए तो भी ठीक ही होगा, क्योंकि इससे पूर्व कई लोग राहुल गांधी को पप्पू जैसे संबोधन दे चुके हैं।

यह बात सही है कि अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में दोपहर में जब राहुल गांधी अपना वक्तव्य दे रहे थे, उस समय पूरे देश के विपक्षी दलों में एक आस बनती दिखाई दी कि राहुल गांधी अब परिपक्व राजनेता की श्रेणी में आ रहे हैं। समाचार चैनलों में चली बहस में भी राहुल गांधी के नए उदय को नए ढंग से प्रस्तुत किया जा रहा था, लेकिन जैसे ही समय निकलता गया राहुल गांधी की वास्तविकता देश के सामने आने लगी। राहुल गांधी ने अपने आपको एक बार फिर से पप्पू होने का प्रमाण दे दिया। पहली बात तो यह है कि राहुल गांधी जिस प्रकार से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से गले मिले, वह जबरदस्ती पूर्वक गले मिलना ही था, क्योंकि इसके लिए संसद उचित स्थान नहीं था।

सबसे बड़ी बात यह भी है कि राहुल गांधी सरकार पर आरोप लगाते समय यह भूल जाते हैं कि वर्तमान सरकार जनता द्वारा चुनी हुई सरकार है। यानी लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकार है, इसलिए राहुल गांधी को कम से कम लोकतंत्र का सम्मान तो करना ही चाहिए। राहुल गांधी वर्तमान में कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं, इसलिए उन्हें अपने पद की गरिमा का भी ध्यान रखना चाहिए। ऐसे आरोप लगाने से उन्हें बचना चाहिए, जिनका कोई आधार नहीं है। हम जानते हैं कि राहुल गांधी ने राफेल मुद्दे पर जो वक्तव्य दिया था, वह सार्वजनिक करने वाला नहीं था, क्योंकि रक्षा मामले बेहद संवेदनशील होते हैं, उन्हें उजागर करना भी ठीक नहीं होता, लेकिन राहुल गांधी ने ऐसा किया, जो ठीक नहीं था। अगर राहुल गांधी को संसदीय मयार्दाओं का ज्ञान नहीं है तो उन्हें पहले इनका अध्ययन करना चाहिए, नहीं तो वह नादानी में भविष्य में भी ऐसी ही गलती करते जाएंगे और कांग्रेस पार्टी की जो वर्तमान हालत है वह और खराब होती चली जाएगी।

कहा जाता है कि आज कांग्रेस के समक्ष जो अस्तित्व का संकट पैदा हुआ है, उसके लिए कांग्रेस के नेता ही जिम्मेदार हैं, और कोई नहीं। चार वर्ष पहले जिस केन्द्र सरकार का अंत हुआ, उसके कार्यकाल से जनता प्रताड़ित थी, घोटाले होना तो जैसे सरकार की नियति ही बन गई थी। संप्रग सरकार के कार्यकाल में हुए घोटाले के कई प्रकरण आज न्यायालय में विचारधीन हैं। कांग्रेस अगर स्वच्छ प्रशासन देने की बात करती है तो इसके प्रति फिलहाल जनता में विश्वास का भाव पैदा नहीं हो सकता। इसके लिए कांग्रेस को अपने आपको बदलना होगा और कांग्रेस का चाल, चरित्र और चेहरा बदल जाएगा, ऐसा अभी लगता नहीं है।

वास्तवविकता यह भी है कि जिस अविश्वास प्रस्ताव के माध्यम से विपक्ष सरकार को घेरने की योजना बना रहा था, उसमें किसी प्रकार का कोई वजन नहीं था, यह विपक्षी भी भलीभांति जानते थे। इतना ही नहीं उनको अपना संख्या बल भी पता था, फिर भी उन्होंने केवल अपनी राजनीति चमकाने के उद्देश्य से इस अविश्वास प्रस्ताव को रखा। बाद में क्या हुआ यह सभी को पता है। जितनी उम्मीद थी, उतना भी समर्थन इस प्रस्ताव को नहीं मिला और औंधे मुंह गिर गया। जबकि कांग्रेस पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी ने जोर देते हुए कहा था कि हमारे पास अविश्वास प्रस्ताव लाने के पर्याप्त कारण हैं और हमारे पास संख्या संख्या बल है। इसे कांग्रेस का सबसे बड़ा झूठ भी कहा जा सकता है। इससे ऐसा ही लगता है कि कांग्रेस नेता झूठ बोलकर देश की जनता को गुमराह करने का काम कर रहे हैं। राहुल गांधी ने भी राफेल मामले में संसद में झूठ बोला। कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी को ऐसे झूठ बोलने से बचना चाहिए।

इस अविश्वास प्रस्ताव के निर्णय के बाद राजग सरकार पर तो कोई असर नहीं पड़ा, लेकिन विपक्ष द्वारा जिस प्रकार से सत्ता की तड़प को उजागर करने वाली राजनीति की जा रही थी, उसको जरुर गहरा आघात पहुंचा है। अब यह तय सा लगने लगा है कि विपक्षी गठबंधन की जो कवायद देश में चल रही थी, उसमें दरार पड़ेगी। क्योंकि इससे कांग्रेस का वास्तविक आधार देश के सामने आ गया। वर्तमान में कांग्रेस की राजनीतिक शक्ति का आकलन किया जाए तो ऐसा ही लगता है कि कांग्रेस के पास उतनी भी ताकत नहीं है, जितनी चार वर्ष पूर्व थी। इसके पीछे तर्क यही दिया जा सकता है कि चार वर्ष पहले कांग्रेस के प्रति अच्छा रवैया रखने वाले कई सांसद थे, आज उन सांसदों की संख्या में कमी आई है।

हां, इतना अवश्य हो सकता है कि जिन राजनीतिक दलों को भाजपा का भय होगा या अपने भविष्य के प्रति संदेह होगा, वह जरुर इस मुहिम का हिस्सा बन सकता है, लेकिन यह एक बार फिर से प्रमाणित हो गया है कि देश में विपक्ष अभी मजबूत विकल्प नहीं बन सका है। सरकार मजबूत है, यह संसद ने भी बता दिया है और जनता भी बता रही है।
आज देश की वर्तमान राजनीतिक स्थिति का अध्ययन किया जाए तो यही दिखाई देता है कि कांग्रेस पार्टी को देश के कई क्षेत्रीय दल अपने स्तर का भी नहीं मान रहे हैं। यह सच भी है कि कई राज्यों में क्षेत्रीय दल आज कांग्रेस से ज्यादा प्रभाव रखते हैं। ऐसे में वह कांग्रेस को कितना महत्व देंगे, इसका पता चल ही जाता है। कांग्रेस की मजबूरी यह है कि वह कई राज्यों में अपने स्वयं की ताकत के सहारे चुनाव लड़ने की हिम्मत नहीं कर सकती, इसलिए उसे कई राज्यों में सहारे की आवश्यकता महसूस हो रही है। कर्नाटक में भी यही दिखाई दिया, कांग्रेस ने अपने से कम राजनीतिक प्रभाव रखने वाले दल को राज्य की सत्ता सौंप दी। इसी प्रकार के हालात उत्तरप्रदेश में बन रहे हैं, यहां अभी गठबंधन बना ही नहीं, दरार के संकेत मिलने लगे हैं।

सुरेश हिन्दुस्थानी

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