Beekeeping: मैदानी खेतों से पहाड़ी बागानों तक पहुंच रखने वाले मौन पालकों का शहद अर्थशास्त्र है अजब 

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Ambala: बॉक्स चैक करते मधुमक्खी पालक।

मधुमक्खियों के 500 डिब्बों से 10 लाख की आय का दावा

अंबाला (सच कहूँ/संदीप सांतरे)। Beekeeping: हरियाणा में रबी सत्र के दौरान सरसों के पीले फूल केवल किसानों के लिए फसल की उम्मीद नहीं है, बल्कि यह पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश के मधुमक्खी पालकों के लिए आजीविका का मुख्य आधार भी है। अंबाला जिले के साढ़ौरा-शाहाबाद मार्ग पर स्थित गांव सिंबला के खेतों में इन दिनों एक अलग तरह की कृषि-गतिविधि देखी जा सकती है। यहां हिमाचल के रेणुका जी और नालागढ़ क्षेत्र से आए किसानों ने सैकड़ों की संख्या में मधुमक्खी की कॉलोनियां (बक्से) स्थापित की हैं। Ambala

यह प्रवास केवल शहद इकट्ठा करने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह दो राज्यों की कृषि अर्थव्यवस्था और पारिस्थितिकी संतुलन का एक बेहतरीन उदाहरण भी है। इस मीठी क्रांति के जमीनी नायक हिमाचल प्रदेश के रेणुका जी निवासी सुरेंद्र हैं। सुरेंद्र की कहानी कृषि में विविधीकरण की सफलता को दर्शाती है।

50 बॉक्स से पहुंचे 500 तक

सुरेंद्र बताते हैं कि उन्होंने महज 50 बक्सों से मधुमक्खी पालन की शुरूआत की थी। लगन और तकनीकी समझ के बल पर आज उनके पास 500 बक्से हैं। सुरेंद्र बताते हैं कि शहद उत्पादन, बक्सों का रख-रखाव और परिवहन का सारा खर्च निकालने के बाद वे सालाना करीब 10 लाख रुपये की शुद्ध आय अर्जित कर लेते हैं। यह आंकड़ा साबित करता है कि परंपरागत खेती के समानांतर यह व्यवसाय एक ठोस आर्थिक विकल्प बन चुका है।

नालागढ़ क्षेत्र के धर्मपाल, जिनके पास इस क्षेत्र का 30 वर्षों का अनुभव है, बताते हैं कि स्थान का चयन फूलों की उपलब्धता पर निर्भर करता है। वर्तमान में अंबाला के सिंबला क्षेत्र में सरसों और तौड़िया के फूल मधुमक्खियों के लिए भोजन का मुख्य स्रोत हैं। जैसे ही यहां फूलों का रस कम होगा, ये पालक अपनी कॉलोनियों के साथ रेवाड़ी का रुख करेंगे। रेवाड़ी क्षेत्र में सरसों की बंपर पैदावार और उच्च गुणवत्ता वाला मकरंद शहद बनने की प्रक्रिया को तेज कर देता है।

बाजार में औषधीय शहद की मांग | Ambala

सुरेंद्र के अनुसार सामान्य शहद की तुलना में विशिष्ट फूलों से बने शहद की मांग प्रीमियम श्रेणी में है। लीची, सफेदा, और जामुन के अलावा छिछड़ी और मल्टी-फ्लोरा शहद का बाजार भाव 2 हजार रुपये प्रति किलो तक है। विशेष रूप से नीम का शहद, जो अपने औषधीय गुणों के लिए जाना जाता है, 2 हजार रुपये से भी अधिक कीमत पर बिकता है।

कुदरत का तालमेल ऐसा कि शहद के साथ रख-रखाव भी फलता है

इस व्यवसाय का सबसे रोचक और गंभीर पहलू इसका दूसरा चरण है। मैदानी इलाकों में नवंबर से मार्च तक करीब 3-4 महीने ही शहद उत्पादन होता है। इसके बाद, जब गर्मी बढ़ती है, तो इन कॉलोनियों को वापस हिमाचल के ठंडे इलाकों में ले जाया जाता है। वहां सेब और लीची के बागानों में इन मधुमक्खियों की भूमिका बदल जाती है। वे वहां शहद बनाने के बजाय परागण करती हैं।

मधुमक्खियों के परागण से सेब और लीची की फसल में इजाफा होता है, जिसके बदले बागान मालिक मौन पालकों को तय राशि का भुगतान करते हैं। यह कृषि सहजीविता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। बता दें कि एक श्रमिक मधुमक्खी का जीवनकाल मात्र 40-45 दिन होता है, जबकि रानी मक्खी करीब डेढ़ साल तक जीवित रहकर कॉलोनी का नेतृत्व करती है। पालकों को साल के 9 महीने इन मक्खियों को जीवित रखने और पालने में कड़ा परिश्रम करना पड़ता है, तब जाकर सीजन में शहद मिलता है।

सरकार दे रही है सब्सिड़ी | Ambala

हरियाणा सरकार मधुमक्खी पालन के लिए 80 से 85 प्रतिशत तक सब्सिडी प्रदान कर रही है। इस योजना के तहत किसान अधिकतम 50 बॉक्स तक अनुदान प्राप्त कर सकते हैं। इसके अलावा सरकार द्वारा आवश्यक उपकरणों जैसे बाल्टी, कंघी, नेट और पैकिंग बोतलों पर भी 75 प्रतिशत तक सहायता दी जा रही है।

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