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आप खाटी के कलाकार हो, लेकिन आपकी पहचान मुख्यता हॉस्य कलाकार के रूप में होती है?
जो भी कुछ हूं, दर्शकों के प्यार और स्नेह से हूं। लेकिन फिर भी मैं खुद को आज भी अभिनय का छात्र मानता हूं। इस अभिनय की यात्रा में हमें जो भी किरदार मिलता है, मैं उनको ईमानदारी से निभाने की हर संभव कोशिश करता हूं। मेरी विचारधारा से दर्शकों का मनोरंजन होता है, इसलिए मैं अभिनय को हास्य या किसी अन्य श्रेणी में रखने में विश्वास नहीं करता। मैं कहीं भी जाता हूं तो लोग मुझे देखकर हंस पड़ते हैं। मेरा चेहरा ही हंसाने वाला दिखता है। तो बताओ मैं क्या करूं।
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हास्य एक कला है, पर अब इस कला में फूहड़ता भरती जा रही है?
दुख होता आज के हास्य कलाकारों को ऐसा करते देखकर। हास्य एक अलग विधा है, इसमें अब ग्लैमर का तड़का लग चुका है। इसी कारण हास्य के मायने बदल गए हैं। इसमें नंगता, फूहड़ता, अश्लीलता, गाली-गलौच व अपशब्दों का बेलगाम प्रयोग होने लगा है। इससे इस विधा का बहुत ज्यादा नुकसान हो रहा है। लेकिन दर्शक आज भी एकाध दशक पुराने हमारे जैसों को भी पसंद करते हैं। इसी कारण हमारी जर्नी आज भी अनवरत जारी है। आपने देखा होगा, जबरदस्ती हंसाने की कोशिश करने वाले कलाकार बहुत जल्द गायब भी होते जा रहे हैं।
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सामाजिक बदलावों के लिए एक कलाकार अपनी किस तरह की भूमिका निभा सकता है?
देखिए, कलाकार अब एक मजदूर की तरह हो गया है। जैसा उसे कहा जाता है, वैसा उसे करना पड़ता है। आदेश नहीं मानने पर लाइन में लगे दूसरे लोगों को मौका दे दिया जाता है। एक समय था जब दूरदर्शन के कार्यक्रमों के माध्यम से ही समाज में अभूतपूर्व बदलाव देखने को मिलता था। सिनेमाई युग तेजी से बदल रहा है। दर्शकों का मिजाज और टेस्ट भी बदल रहा है। यही कारण है कि कलाकार के भीतर बसने वाली कलाकारी को खत्म करने की साजिश हो रही है। सच कहूं तो आज कलाकार मुकम्मल इज्जत का भी मोहताज हो गया है।
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सिनेमा को आपने शून्य से शिखर आते देखा है?
हंसते हुए…! साढ़े सात रुपये लीटर पेट्रोल था जब मैं मोटरसाइकिल चलाता था। मुझे याद है मेरे दादा की तनख्वाह हुआ करती थी कोई तीन रुपये। दादी बताती थीं कि दो आने में एक तोला सोना आ जाता था। हम कहते भी थे कि क्यों नहीं रख लिया आपने दो आना। तो दादी कहती थीं कि उस समय तुम्हारे दादा की नौ-नौ बहने थीं, उनकी शादी करनी थी। खाना था, पीना था, फिर भी एक जिंदगी अलग थी वो। कल को मेरा बेटा पूछेगा कि पापा जब आपको पता था कि दोआने रुपये तोला सोना था तो आपने क्यों नहीं खरीदकर रख लिया, इतना सस्ता था। जब सबकुछ बदल गया तो भला सिनेमा पीछे क्यों रहे।
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फिल्मों का परिदृश्य बहुत बदल गया है क्या वजह देखते हैं?
जब शत्रुघ्न सिन्हा और अमिताभ बच्चन स्ट्रगल करते थे, तब कोई पिक्चर धड़ाधड़ नहीं बनती थी। तीन-चार साल में एक फिल्म बनती थी। फिर धीरे-धीरे छोटी फिल्मों का दौर आया। लोग कहने लगे कि मेरे पास अच्छी स्क्रिप्ट है, मुझे अच्छे एक्टर चाहिए। उस दौर को आए तीन-चार साल हुए हैं। डाकू की फिल्म चल गई तो डाकू बन गए, प्यार की फिल्म चल गई तो बना ले बेटा धड़ल्ले से। एक समय में पूर्व जन्म की कहानियों पर खूब फिल्में बनीं थी। लेकिन अब वह दौर खत्म हो चुका है। सिनेमाई पर्दा पूरी तरह से बदल चुका है। मौजूदा समय की फिल्मों में इन्टीमेंट सीन देखने वालों की तादाद बढ़ गई है। तो उसी तरह की फिल्में बनने लगी हैं। कुल मिलाकर फिल्मों का निर्माण दर्शकों की च्वाइस पर किया जाने लगा है।
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आपने कई फिल्मों का निर्देशन भी किया है?
मैं दिल्ली के एनएसडी से पासआउट हूं। यहां से मैंने अभियन के साथ-साथ निर्देशन का भी प्रशिक्षण प्राप्त किया है। इसलिए अभिनेता होते हैं तो सिर्फ अभिनय ही करना होता है, डायरेक्शन में आते हैं तो हर चीज देखनी पड़ती है। कॉस्ट्यूम, एक्टर्स की डेट, कैमरा वगैरहा-वगैरहा सब कुछ आपको ही देखना होता है। डायरेक्शन अभिनय से बिल्कुल अलग क्षेत्र है। इसमें प्रोत्साहित भी होना पड़ता है या हतोत्साहित भी? फिल्म अच्छी नहीं होती है तो दर्शकों की गालियां भी खानी पड़ती हैं।
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आज की फिल्में जनसरोकारी नहीं रही, सभी प्रोफेशनल हो गई हैं?
कलाकार भी अब प्रफेशनली काम करते हैं। कलाकार जनप्रचार जैसे मुद्दे यानी पोलियो आदि के विज्ञापन के भी पैसे लेते हैं। पैसे के चाह में बड़े कलाकार नशों का भी विज्ञापन करते हैं, जो सरासर गलत है। मैं दावे के साथ कह सकता हंू कि अब लोगों के भीतर जनसरोकार का जज्बा रहा ही नहीं। सबों के लिए पैसा ही माई-बाप हो गया है। एक जिंदगी मिली है और इसमें चंद पल मिले हैं। ऊपर वाले ने आपको ऐसी योनि में पैदा किया है जिसमें आप सोच सकते हैं, देख सकते हैं। इसे गवाना नहीं चाहिए, जितना हो सके दूसरों की मदद करनी चाहिए। क्योंकि कलाकार ही समाज का आईना होता है।
-रमेश ठाकुर