परंपरागत खेती को छोड़कर सहारनपुर के किसानों ने शुरू की हाईड्रोफोनिक तकनीक से होने वाली खेती

सहारनपुर (सच कहूँ न्यूज)। गन्ने, चावल और गेहूं की परंपरागत तकनीक की खेती के लिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश का इलाका अपनी खास पहचान रखता है, लेकिन इससे न तो किसानों को उनकी उपज का लाभकारी मूल्य मिल पा रहा है और साथ ही रसायनों और कीटनाशकों के अंधाधुंध इस्तेमाल से जमीन की मिट्टी विषैली हो रही है। आज लोगों की पसंद प्राकृतिक एवं जैविक उत्पाद बन गए हैं। इस चुनौती से निपटने के लिए सहारनपुर के किसानों ने बड़ी पहल करते हुए पश्चिमी देशों में अपनाई जा रही हाईड्रोफोनिक फोनिक तकनीक से होने वाली खेती को अपना लिया है।

यह भी पढ़ें:– यूरिया की किल्लत से जूझ रहा अन्नदाता

इस युवा किसान की हो रही चर्चा

सहारनपुर के ब्लाक नांगल के गांव बड़हेड़ी कौली निवासी 23 वर्षीय युवा किसान और केवल 12वीं पास अनमोल चौधरी और उनके बड़े भाई विपिन चौधरी ने एक साल पहले हाईड्रोफोनिक तकनीक से बर्गर में इस्तेमाल होने वाले सलाद पत्ते की खेती की शुरूआत की है। उन्होंने आज संवाददाता को बताया कि वह सलाद पत्ते को सहारनपुर के चार-पांच और देहरादून के दो-तीन रेस्टोरेंट को सप्लाई करते हैं। जिससे उन्हें हर माह 40 से 50 हजार रुपए मिल जाते हैं। इससे घर का खर्च आराम से चलने लगा है।

उन्होंने बताया कि उनके इलाके में गन्ने की फसल ज्यादा होती है, लेकिन कीट नाशकों के इस्तेमाल से जमीन बर्बाद हो रही है और उनके क्षेत्र की बजाज चीनी मिल किसानों को गन्ना मूल्य का भुगतान भी नहीं कर रही है। उन्होंने यू-ट्यूब के जरिए इस नई तकनीक को जानने का काम किया।

उन्होंने सहारनपुर के उपनिदेशक कृषि डा. राकेश कुमार और इसी विभाग के संयुक्त निदेशक वीरेंद्र कुमार से मुलाकात की। दोनों ने उन्हें इस खेती को करने के लिए प्रोत्साहित किया और उनका मार्गदर्शन भी कर रहे हैं। उपनिदेशक कृषि ने बताया कि कम जमीन वाले किसानों के लिए यह खेती बेहद लाभकारी है। किसान इस तकनीक को अपनाकर खेती में अपनी आय को दोगुना कर सकते हैं जिसकी बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ लगातार कर रहे हैं।

डॉ. कुमार ने बताया कि पांच से छह इंच वाले पौधे पर प्रति वर्ष एक रूपया से भी कम खर्च आता है। परंपरागत से तकनीक से ये पौधे और फसलें उगाने की तुलना में हाईड्रोफोनिक तकनीक के कई लाभ हैं। प्रतिकूल जलवायु परिस्थितियों में उन क्षेत्रों में पौधे या फसलें उगाई जा सकती हैं जहां जमीन की कमी है अथवा मिट्टी उपजाऊ नहीं है। इस विधि में खनिज के घोल की कुछ बूंदे ही काफी होती हैं और पानी का इस्तेमाल भी परंपरागत खेती की तुलना में 20 फीसद ही होता है। खनिज घोल में जो पोषक तत्व मिले होते हैं उसमें फासफोरस, नाइट्रोजन, पोटास, जिंक, सल्फर, मेग्नीशियम, केल्शियम और आयरन मिले होते हैं।

टमाटर छोटे-छोटे आकार में गुच्छों में लगते हैं

डॉ. कुमार का कहना है कि शुरू में इसे लगाने में खर्च ज्यादा आता है लेकिन बाद में यह बेहद ही सस्ती पड़ती हैं। उन्होंने बताया कि उनका विभाग किसानों को जैविक एवं प्राकृतिक खेती के लिए प्रोत्साहित कर रहा है और यदि पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसान हाईड्रोफोनिक तकनीक को अपनाकर सब्जियां जैसे रंगीन शिमला मिर्च, चाइनीज खीरा, चैरी टमाटर, स्ट्राबेरी और अन्य पत्ते वाली सब्जियां उगाते हैं तो उन्हें कम लागत में ज्यादा लाभ मिलेगा। इस खेती के लिए पानी, पोषक तत्व और सूर्य का प्रकाश के लिए जरूरी है।

बढ़ते शहरीकरण, बढ़ती आबादी की वजह से फसल और पौधे के लिए जमीन की कमी होती जा रही है ऐसे में किसानों को पौधे या फसल उत्पादन के लिए हाईड्रोफोनिक तकनीक को अपनाना चाहिए। इन फसलों के लिए 15 से 30 डिग्री तापमान और 80 से 85 फीसद की आर्द्रता में आसानी से उगाया जा सकता है। कृषि उपनिदेशक के मुताबिक टमाटर छोटे-छोटे आकार में गुच्छों में लगते हैं। टमाटर की यह प्रजाति बेल वाली प्रजाति के नाम से जानी जाती है। इसमें छोटे-छोटे आकार के टमाटर लगते हैं।

अन्य अपडेट हासिल करने के लिए हमें Facebook और TwitterInstagramLinkedIn , YouTube  पर फॉलो करें।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here