इंसानी मदद की आस में सिसक रहा पर्यावरण

World Earth Day

मानव समाज आज हर रोज विकास की नई गाथा लिख रहा है। हम उस अत्याधुनिक दुनिया में जी रहे हैं, जिसकी शायद आज से दो सौ वर्ष पूर्व किसी ने कल्पना भी न की होगी। आज हम पलक झपकते ही लगभग हर मनचाही चीज अपने लिये उपलब्ध करा लेते हैं, लेकिन हमारे इस विकास की कीमत हमारे पर्यावरण को चुकानी पड़ रही है।

इस विकास से सबसे ज्यादा विनाश हमारे पर्यावरण का ही हुआ है। पांच जून को विश्व पर्यावरण दिवस है। पर्यावरण के प्रति अपने कर्तव्य को समझने के लिये ही शायद यह एक दिन पर्यावरण के नाम लिखा गया। परंतु क्या आज तक हम पर्यावरण के प्रति अपने कर्तव्य को समझ पाये हैं? आखिर कब तक सिर्फ पर्यावरण हमारे जरुरतों की पूर्ति करता रहेगा? हम कब उसके प्रति जागरुक होंगे?

कहते हैं आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है। जब तक हमें आवश्यकता थी पर्यावरण ने हमारी जरुरतों को हर वक्त पुरा किया। परंतु आज पर्यावरण को हमारी आवश्यकता है। अगर हमें लंबे समय तक इसकी सेवा लेनी है तो हमें भी प्रकृति को कुछ देना होगा। कुछ नहीं, बस थोड़े प्रेम, थोड़ी सेवा, और थोड़े अपनत्व की जरुरत है आज हमारे पर्यावरण को।

हम अपनी इस भागदौड़ भरी जिन्दगी में कुछ छोटे-छोटे बदलाव कर के अपने पर्यावरण को बचा सकते हैं। हफ़्ते में एक दिन पैदल या साईकिल से चल सकते हैं, पोलिथिन बैग्स की जगह कपड़े के थैले का इस्तेमाल करें, तो मृदा संरक्षित हो सकती है। थोड़ी बिजली बचाकर हम ऊर्जा का संचयन कर सकते हैं, हर दिन कुछ बूंद पानी बचाकर हम आने वाली पीढ़ी को एक नया जीवन दे सकते हैं। ज्यादा कुछ नहीं, तो सालभर में दो-तीन पौधे लगाकर उसकी देखभाल करें, तो पूरे जीवन में एक आदमी कम से कम सौ पेड़ तो लगा ही सकता है।

इस प्रकार कुछ छोटे-छोटे बदलावों से हम प्रकृति को वह प्रेम दे सकते हैं, जिसकी उसे आज जरुरत है। परंतु ऐसा न हो कि यह सब सिर्फ एक पर्यावरण दिवस तक ही सीमित रह जाए। अकसर पर्यावरण के दिन लोग पर्यावरण के प्रति अपना प्रेम दिखाकर कर्तव्य की इतिश्री कर देते हैं, लेकिन सिर्फ एक दिन से कुछ नहीं होगा, हमें हर रोज उसकी सेवा करनी होगी, तभी बात बनेगी।

आज प्रकृति बदल रही है। उसके साथ की गई छेड़छाड़ की कीमत हमें चुकानी पड़ेगी। एक तरफ वनों की अंधाधुंध कटाई जारी है और दूसरी तरफ वायुमंडल में कार्बनडाइआक्साईड की मात्रा लगातार बढ़ती जा रही है।

भारत में अब सिर्फ 24.4 फीसदी ही वन बचे हैं। हमने बढ़ती जनसंख्या और औद्योगिक विकास की आड़ में वनों का लगभग सफाया कर दिया है, जिसके परिणाम हमारे सामने हैं। इससे वैश्विक तापमान में वृद्धि के संकेत मिले हैं। 21वीं शताब्दी में वैश्विक तापमान 1.4 डिग्री से बढ़कर 5.8 तक हो जायेगा। परिणाम स्वरुप ग्लोबल वार्मिंग का खतरा उत्पन्न हुआ है।

ब्रिटिश शासन में बंगाल स्मोग न्यूसंस एक्ट-1905, बोम्बे स्मोग न्यूसंस एक्ट-2012, आईपीसी-1860 जैसे सख्त कानून गंदगी फैलाने से रोकने के लिए बनाए गए थे। वहीं 1974 व 1980 में वन सुरक्षा एवं जल प्रदूषण रोकने के लिए संविधान में संशोधन किया गया। 1986 में हुए भोपाल गैस त्रासदी के बाद पर्यावरण संरक्षण कानून लाया गया, जबकि वर्तमान दौर में स्वच्छता अभियान के तहत भी सफाई और प्रदूषण मुक्त समाज पर जोर दिया जा रहा है। किंतु इतना सब कुछ होने के बाद भी स्थिति में सुधार होता नहीं दिख रहा है।

यह प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग का ही रौद्र रूप है, जिससे लगातार मौसम परिवर्तित हो रहा है, कहीं सूखा तो कहीं बाढ़ का भयंकर रूप दिख रहा है। न जाने ऐसे कितने ही प्रकृति के रोद्र रुप हमें और देखने को मिलें। तब हम क्या करेंगे?

अब भी वक्त है, हमें सम्भलना होगा, सोचना होगा कि आखिर किस दिशा में हम बढ़ रहे हैं? हमें अपनी जीवन शैली में थोड़ा बदलाव करना होगा। पर्यावरण ईश्वर द्वारा प्रदत एक अमूल्य उपहार है, जो संपूर्ण मानव समाज का महत्वपूर्ण और अभिन्न अंग है। हमें इसकी रक्षा करनी ही होगी। अगर आज भी हम नहीं चेते, तो वह दिन दूर नहीं जब हर रोज भूकंप और प्रलय झेलेंगे

-विवेकानंद वी ‘विमर्या’

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