Digital Screen: स्वतंत्रता दिवस पर जब हम अपने तिरंगे को सलामी देते हुए आजादी के मायनों को याद करते हैं, तो क्यों न हम एक और आजादी का संकल्प लें अपने बच्चों को डिजिटल स्क्रीन की गिरफ्त से मुक्त करने का। आज का सच यह है कि हमारे बच्चे जितना समय किताबों, खेलों और दोस्तों के साथ बिताते हैं, उससे कहीं अधिक वक्त मोबाइल, टैबलेट और लैपटॉप की स्क्रीन के सामने गुजार रहे हैं। यूनिसेफ की 2024 की रिपोर्ट बताती है कि भारत में 10 से 14 साल के 62 प्रतिशत बच्चे सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं। यह आंकड़ा इस खतरे की गंभीरता का संकेत देता है। वहीं, विश्व स्वास्थ्य संगठन का मानना है कि 5 से 17 वर्ष के बच्चों का स्क्रीन टाइम एक घंटे से अधिक नहीं होना चाहिए, लेकिन हकीकत इससे उलट है। Digital Screen
ऑस्ट्रेलिया ने 2024 में 16 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए सोशल मीडिया प्रतिबंधित करने की दिशा में कदम बढ़ाया है। चीन में पहले से ही बच्चों के लिए टिकटॉक जैसे ऐप्स पर समय सीमा तय है। इन प्रयासों के पीछे एक ही सोच है बचपन का असली स्वाद अनुभवों, खेल, दोस्ती, प्रकृति और परिवार के साथ बिताए पलों में है, न कि अंतहीन स्क्रॉलिंग में। स्क्रीन का असर केवल आंखों की रोशनी तक सीमित नहीं है। यह बच्चों के शरीर, नींद, मानसिक स्वास्थ्य और आत्मविश्वास पर गहरा असर डालता है। लंबे समय तक स्क्रीन देखने से मोटापे का खतरा बढ़ता है, नींद की गुणवत्ता घटती है और बच्चों में मनोवैज्ञानिक बदलाव आते हैं।
सोशल मीडिया पर लगातार सक्रिय रहने से वे लाइक्स और फॉलोअर्स की दौड़ में फंस जाते हैं, जिससे उनकी आत्म-छवि और मानसिक संतुलन पर नकारात्मक असर पड़ता है। धीरे-धीरे खेल के मैदान, दोस्तों की हंसी और परिवार की गर्माहट स्क्रीन की ठंडी चमक में गुम हो जाती है। ऐसे में सवाल उठता है- क्या नौ, दस या बारह साल के बच्चों को सच में सोशल मीडिया अकाउंट की जरूरत है? क्या हम उन्हें यह नहीं सिखा सकते कि डिजिटल दुनिया का हिस्सा होना जीवन का सबसे अहम लक्ष्य नहीं है? यदि हम मानते हैं कि बचपन उनका सबसे बड़ा खजाना है, तो हमें यह भी मानना होगा कि उन्हें डिजिटल लत से बचाना हमारी जिम्मेदारी है। यह जिम्मेदारी केवल माता-पिता की नहीं, बल्कि पूरे समाज की है।
भारत में अभी तक बच्चों के सोशल मीडिया उपयोग को लेकर कोई ठोस नीति नहीं है, जबकि कई देशों में इस दिशा में कानून बनाए जा चुके हैं। हमारे यहां भी सरकार को न्यूनतम उम्र सीमा, समय सीमा और बच्चों के लिए सुरक्षित डिजिटल प्लेटफॉर्म तैयार करने जैसे स्पष्ट नियम लागू करने चाहिए। साथ ही, माता-पिता और शिक्षकों के लिए डिजिटल जागरूकता प्रशिक्षण आवश्यक है, ताकि वे बच्चों को समझदारी से डिजिटल डिटॉक्स की ओर ले जा सकें। लेकिन कानून से पहले बदलाव की शुरूआत घर से होनी चाहिए। बच्चों को गैजेट्स के विकल्प देने होंगे किताबें, कहानियां, खेल और रचनात्मक गतिविधियां। Digital Screen
जब वे देखेंगे कि असली मजा स्क्रीन से बाहर है, तो वे खुद डिजिटल दुनिया में डूबने से बचेंगे। इसके लिए जरूरी है कि हम बड़े भी अपना स्क्रीन टाइम घटाएं, क्योंकि बच्चे वही सीखते हैं जो वे देखते हैं। इस संदर्भ में डेरा सच्चा सौदा द्वारा 8 नवंबर 2022 में डिजिटल फास्टिंग मुहिम चलाई गई है। जिसमें प्रतिदिन 2 घंटें परिवार के सदस्य मोबाइल फोन व इंटरनेट से दूर रहकर एक साथ समय बिताएंगे। इस मुहिम के बहुत ही सार्थक परिणाम भी मिले हैं। उसके बाद ही विदेशों में इस समस्या की ओर ध्यान गया है। Digital Screen
इस स्वतंत्रता दिवस पर आइए हम एक नई मुहिम शुरू करें—बच्चों को सोशल मीडिया की गिरफ्त से आजाद कराने की। यह केवल एक हैशटैग नहीं, बल्कि एक वादा हो कि हम उन्हें बचपन की असली खुशियां लौटाएंगे। यह एक सतत प्रयास होगा, वैसा ही जैसा आजादी हासिल करने के लिए वर्षों तक हुआ संघर्ष था। आजादी का असली मतलब है अपने जीवन और विचारों पर नियंत्रण। अगर हमारे बच्चे दिन-रात सोशल मीडिया के एल्गोरिदम और नोटिफिकेशंस के गुलाम बन जाएं, तो यह कैसी आजादी? इसलिए, इस बार तिरंगे को सलामी देते हुए यह संकल्प भी लें कि हम अपने बच्चों को वह स्वतंत्रता देंगे जिसमें वे बिना किसी फिल्टर के हंस सकें, बिना किसी लाइक के खुश रह सकें और बिना किसी स्क्रीन के दुनिया को खोज सकें। यही उनके जीवन की सबसे सुंदर आजादी होगी और यही हमारी सबसे बड़ी जिम्मेदारी।
(यह लेखक के अपने विचार हैं)- सोनम लववंशी