ग्लेशियरों के पिघलने से बढ़ता संकट

देसम में दिनोदिन आ रहा बदलाव एक भीषण समस्या बन चुका है। ग्लोबल वार्मिंग ने इसमें अहम भूमिका निभाई है। नए शोध इस बात के प्रमाण हैं कि भले ही ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान पर रोक दिया जाए, इसके बावजूद दुनिया में तकरीबन दो लाख पंद्रह हजार ग्लेशियरों में से आधे से ज्यादा और उनके द्रव्यमान का एक-चौथाई हिस्सा इस सदी के अंत तक पिघल जाएगा। बीती सदी में समुद्र के जल स्तर में जो बढ़ोतरी हुई है, उसका एक-तिहाई हिस्सा ग्लेशियरों के पिघलने से आया है। दरअसल ग्लोबल वार्मिंग के चलते दुनियाभर के ग्लेशियर पिघल-पिघलकर टुकड़ों में बंटते चले गए। इसका कारण पर्वतीय इलाकों में तापमान में बढ़ोतरी की दर दोगुना होना है।

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चिंता यह कि ग्लेशियर पिघलने से बनी झीलों से आने वाली बाढ़ से भारत समेत समूची दुनिया के तकरीबन डेढ़ करोड़ लोगों के जीवन पर खतरा मंडराने लगा है। ब्रिटेन की न्यू कैसल यूनिवर्सिटी के शोध से इसका खुलासा हुआ है। नेचर कम्युनिकेशंस नामक जर्नल में प्रकाशित रिपोर्ट बताती है कि दुनिया के डेढ़ करोड़ लोगों में सबसे ज्यादा खतरा भारत के लोगों को है, जहां तीस लाख से ज्यादा लोगों का जीवन ग्लेशियर से आने वाली बाढ़ के कारण खतरे में है। इसके बाद पाकिस्तान का नम्बर है, जहां करीब 7000 से ज्यादा ग्लेशियर हिमालय, हिन्दूकुश और कराकोरम पर्वत शृंखलाओं में मौजूद हैं जहां की बीस लाख से भी ज्यादा आबादी पर यह खतरा मंडरा रहा है।

शोधकर्ताओं की टीम के प्रमुख केरोलिन टेलर की मानें तो उनकी टीम के शोधकर्ताओं ने पूरी दुनिया में 1089 ग्लेशियर झीलों की घाटी की पहचान की है। इन ग्लेशियरों की घाटियों के 50 किलोमीटर के दायरे में रहने वाले लोगों की तादाद शोधकतार्ओं ने 1.5 करोड़ आंकी है। यह आबादी भारत, पाकिस्तान, चीन और पेरू की है।

रिपोर्ट के मुताबिक उपग्रह द्वारा साल 2020 में किए गए अध्ययन में बताया गया है कि बीते 30 सालों में ग्लोबल वार्मिंग में 50 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है जिसके कारण दुनिया के ग्लेशियरों से बनी झीलें टुकड़ों में बंट गयीं। दरअसल, तापमान में बढ़ोतरी और जलवायु में बदलाव को रोकने की दिशा में जो भी अभी तक प्रयास किए गये हैं, उनका कोई कारगर परिणाम सामने नहीं आ सका है। याद रहे जीवाश्म ईंधन जलाने से मानव इतिहास में जितना उत्सर्जन हुआ है, उसका आधा बीते केवल 30 सालों में ही हुआ है। यदि 2015 में जारी वैश्विक तापमान बढ़ोतरी के 10 सालों के औसत पर नजर डालें तो पता चलता है कि औद्योगिक क्रांति से पूर्व की तुलना में तापमान में 0.87 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि दर्ज की गई थी जो 2020 में यानी केवल पांच साल में ही बढ़कर 1.09 डिग्री सेल्सियस हो गई। केवल पांच साल में इसमें 25 फीसदी की बढ़ोतरी हालात की गंभीरता की ओर इशारा करती है।

कानेंगी मेलन यूनिवर्सिटी और फेयरबैंक्स यूनिवर्सिटी के शोध के अनुसार यदि जलवायु परिवर्तन की दर इसी तरह बरकरार रही तो इस सदी के आखिर तक दुनिया के दो-तिहाई ग्लेशियरों का अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा। यदि दुनिया आने वाले दिनों में वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रखने में कामयाब रहती है उस हालत में भी आधे ग्लेशियर गायब हो जायेंगे। लेकिन हमारे पास क्षमता है कि हम ग्लेशियर के पिघलने की दर को सीमित कर उसके अंतर को कम कर सकते हैं।

हालांकि छोटे ग्लेशियरों के लिए तो काफी देर हो चुकी है और वह विलुप्ति की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं। समुद्र के जलस्तर में यदि 4.5 इंच की बढ़ोतरी होती है तो समूची दुनिया में तकरीबन एक करोड़ से अधिक लोग उच्च ज्वार रेखा से नीचे होंगे। तात्पर्य यह कि समुद्र तटीय क्षेत्रों में रहने वाले लोग इससे सर्वाधिक प्रभावित होंगे। दरअसल, जलवायु परिवर्तन के अलावा बढ़ती मानवीय गतिविधियां और जरूरत से ज्यादा दोहन भी ग्लेशियरों के पिघलने का एक बहुत बड़ा कारण है। ग्लेशियरों पर मंडराते संकट को नकारा नहीं जा सकता। यदि यह पिघल गए तो ऐसी स्थिति में सारे संसाधन खत्म हो जाएंगे और ऐसी आपदाओं में बेतहाशा बढ़ोतरी होगी।
धुर्जति मुखर्जी वरिष्ठ लेखक और स्वतंत्र टिप्पणीकार (यह लेखक के अपने विचार हैं)

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