
India-Russia-China: अनु सैनी। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हाल ही में भारत, चीन और दर्जनों अन्य देशों पर भारी आयात शुल्क (टैरिफ) लागू कर दिए हैं। सतही तौर पर देखें तो यह कदम केवल व्यापारिक नीतियों का हिस्सा प्रतीत होता है—मानो वाशिंगटन अपने घरेलू उद्योगों की रक्षा करने के लिए विदेशी सामान को महंगा बनाना चाहता हो। लेकिन गहराई में झांकें तो तस्वीर अलग है। इस फैसले के पीछे वैश्विक सत्ता-संतुलन में हो रहे बड़े बदलाव की चिंता छिपी है। अमेरिका जानता है कि 21वीं सदी में भारत और चीन जैसे विशाल व उभरते राष्ट्र, अगर रूस जैसे सैन्य और ऊर्जा महाशक्ति के साथ मिलकर एक नए राजनीतिक-आर्थिक ढांचे की नींव रखते हैं, तो दुनिया पर दशकों से कायम उसका दबदबा डगमगा सकता है।
अमेरिका का दोस्त या दुश्मन: किसिंजर की चेतावनी और आज की सच्चाई | India-Russia-China
अमेरिकी कूटनीति के दिग्गज हेनरी किसिंजर ने 1970 के दशक में एक तीखा लेकिन सटीक अवलोकन किया था—”अमेरिका का दुश्मन होना खतरनाक हो सकता है, लेकिन उसका दोस्त होना और भी घातक है।” इस कथन का अर्थ यह है कि अमेरिका अपने हितों के लिए किसी भी हद तक जा सकता है, चाहे वह अपने विरोधियों पर प्रतिबंध लगाना हो या अपने करीबी साझेदारों पर आर्थिक दबाव बनाना। आज ट्रंप का रवैया इस कथन की प्रासंगिकता को और स्पष्ट कर देता है। भारत, जो वर्षों से अमेरिका का “रणनीतिक साझेदार” माना जाता रहा है, अब उसी के टैरिफ के निशाने पर है। यह संदेश साफ है—अमेरिका के लिए रिश्तों से ज्यादा मायने उसके राष्ट्रीय हित रखते हैं।
वर्ल्ड ऑर्डर की पृष्ठभूमि: कैसे बना अमेरिकी एकाधिकार
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दुनिया में शक्ति-संतुलन दो बड़े ध्रुवों में बंट गया—अमेरिका के नेतृत्व वाला पूंजीवादी खेमाऔर सोवियत संघ के नेतृत्व वाला साम्यवादी गुट। दोनों के बीच दशकों तक शीत युद्ध चला। 1991 में सोवियत संघ के विघटन के साथ अमेरिका एकमात्र वैश्विक महाशक्ति बन गया। इस “एकध्रुवीय” व्यवस्था में उसने न केवल राजनीतिक मामलों में, बल्कि वैश्विक व्यापार, वित्तीय संस्थाओं और तकनीकी विकास के क्षेत्र में भी निर्णायक नियंत्रण स्थापित किया। डॉलर को अंतरराष्ट्रीय व्यापार की मुख्य मुद्रा बनाकर अमेरिका ने आर्थिक प्रभुत्व को पुख्ता किया। लेकिन नई सदी में उभरती अर्थव्यवस्थाओं ने इस एकाधिकार को धीरे-धीरे चुनौती देना शुरू कर दिया।
भारत और चीन का आर्थिक उदय भारत की उपलब्धियां
सन् 2000 के बाद भारत ने आर्थिक सुधारों और सेवाक्षेत्र में तेजी के दम पर जबरदस्त प्रगति की। डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में GDP विकास दर कई वर्षों तक 8% के आसपास रही। IT, फार्मास्युटिकल, ऑटोमोबाइल और कृषि जैसे क्षेत्रों में भारत ने वैश्विक पहचान बनाई। आज भारत 4 ट्रिलियन डॉलर GDP के साथ दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, और अगले कुछ वर्षों में जापान को पीछे छोड़ तीसरे स्थान पर पहुंचने की संभावना है। जनसंख्या के लि हाज से यह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, और इसकी युवा आबादी इसे लंबे समय तक आर्थिक ऊर्जा देती रहेगी।
चीन की छलांग
चीन का सफर और भी तेज़ रहा। 2001 में विश्व व्यापार संगठन (WTO) में शामिल होने के बाद चीन “दुनिया की फैक्ट्री” बन गया। कम लागत में उत्पादन, विशाल श्रमबल और आक्रामक निर्यात नीति के कारण उसने वैश्विक बाजार में अपना दबदबा स्थापित कर लिया। 2024 तक चीन का वैश्विक निर्यात में हिस्सा 14% तक पहुंच चुका है। साथ ही, 5G, 6G, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और सेमीकंडक्टर निर्माण में भी वह अग्रणी बन गया है। 18.3 ट्रिलियन डॉलर की GDP के साथ चीन अब अमेरिकी अर्थव्यवस्था के करीब पहुंच रहा है—और यह अमेरिका के लिए सबसे बड़ा रणनीतिक खतरा है।
रूस की वापसी और बहुध्रुवीयता का उभार
सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस आर्थिक अस्थिरता और राजनीतिक अनिश्चितता से जूझता रहा, लेकिन व्लादिमीर पुतिन के नेतृत्व में उसने खुद को पुनर्गठित किया। ऊर्जा संसाधनों के भंडार, सैन्य ताकत और राष्ट्रीय गौरव को आधार बनाकर रूस ने वैश्विक मंच पर वापसी की। रूसी राष्ट्रवाद ने घरेलू राजनीति को स्थिरता दी।
BRICS और SCO जैसे बहुपक्षीय मंचों के जरिए उसने भारत और चीन के साथ आर्थिक-सुरक्षा सहयोग बढ़ाया।
गैर-डॉलर व्यापार और वैकल्पिक भुगतान प्रणालियों को बढ़ावा देकर उसने अमेरिकी वित्तीय प्रभुत्व को चुनौती देना शुरू किया।
BRICS और SCO: पश्चिमी वर्चस्व को सीधी चुनौती
BRICS (ब्राजील, रूस, भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका और हाल के नए सदस्य) अब वैश्विक अर्थव्यवस्था का लगभग 26% हिस्सा रखते हैं, जो G7 के बराबर हो रहा है। इन देशों के बीच व्यापार में डॉलर के बजाय स्थानीय मुद्राओं का इस्तेमाल बढ़ रहा है।
भारत और चीन, रूस से 80% से ज्यादा कच्चा तेल खरीदते हैं, जिससे अमेरिकी प्रतिबंधों की प्रभावशीलता कम हो रही है। वहीं, शंघाई सहयोग संगठन (SCO) का विस्तार एशिया में अमेरिकी प्रभाव को लगातार घटा रहा है। भारत, चीन के साथ सीमा विवाद और रणनीतिक प्रतिस्पर्धा के बावजूद, अपनी विदेश नीति में संतुलन बनाए हुए है—न पूरी तरह अमेरिका के साथ, न पूरी तरह रूस-चीन के खेमे में।
ट्रंप के टैरिफ: असली कारण क्या हैं?
आधिकारिक वजहें
ट्रंप प्रशासन के अनुसार भारत पर टैरिफ लगाने के पीछे दो मुख्य वजहें हैं:-
1. रूस से भारत का बढ़ता तेल आयात।
2. अमेरिकी उत्पादों पर भारत द्वारा लगाए गए ऊंचे शुल्क।
छिपी हुई वजह
लेकिन असल में यह केवल व्यापारिक मुद्दा नहीं है। वाशिंगटन को डर है कि भारत और चीन, रूस के साथ मिलकर वैश्विक वित्तीय और व्यापारिक संस्थाओं से अमेरिका को दरकिनार कर देंगे। यह परिदृश्य अमेरिकी वैश्विक नेतृत्व के लिए दीर्घकालिक खतरा है। इसलिए टैरिफ का उद्देश्य आर्थिक दबाव बनाना जितना है, उतना ही यह भू-राजनीतिक संकेत भी है—”हम पर ज्यादा निर्भर मत बनो, वरना कीमत चुकानी होगी।”
टैरिफ का भारत पर प्रभाव
अमेरिका भारत के लिए एक बड़ा निर्यात बाजार है। 50% तक टैरिफ बढ़ने से टेक्सटाइल, ज्वेलरी, ऑटो पार्ट्स, सी-फूड और इंजीनियरिंग गुड्स जैसे सेक्टर प्रभावित होंगे। अनुमान है कि इससे भारत की GDP में 0.2% से 0.6% तक की गिरावट आ सकती है। निर्यात घटने से उत्पादन धीमा होगा, और इससे लाखों नौकरियों पर दबाव बढ़ सकता है। कुछ अमेरिकी कंपनियां भी भारतीय सप्लायर्स से ऑर्डर घटा सकती हैं, जिससे द्विपक्षीय व्यापार पर नकारात्मक असर होगा।]
विशेषज्ञों की राय
पूर्व केंद्रीय मंत्री जयंत सिन्हा का कहना है कि पिछले एक सदी में यह सहमति बनी थी कि वैश्विक व्यापार सबके लिए लाभकारी है। लेकिन ट्रंप का “सब कुछ खुद बनाना” मॉडल इस व्यवस्था को तोड़ रहा है। यह न केवल वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला को नुकसान पहुंचाएगा, बल्कि अंततः अमेरिका को भी महंगा पड़ेगा।
जेएनयू के अंतरराष्ट्रीय संबंधों के विशेषज्ञ अरविंद येलेरी मानते हैं कि भारत अब अमेरिकी प्रभुत्व को चुनौती देने वाली नीतियों को खुलकर अपनाने लगा है। BRICS और SCO में भारत की सक्रिय भागीदारी से स्पष्ट है कि वह बहुध्रुवीय दुनिया का हिस्सा बनने की तैयारी में है।
अमेरिका-भारत संबंधों का भविष्य
तनाव के बावजूद भारत और अमेरिका को एक-दूसरे की जरूरत है। भारत को तकनीक, निवेश और रक्षा सहयोग में अमेरिका महत्वपूर्ण लगता है, जबकि अमेरिका के लिए भारत एशिया में चीन के प्रभाव का संतुलन है। लेकिन अब भारत पहले जैसा “झुकने वाला” साझेदार नहीं रहा। आर्थिक मजबूती और विविध वैश्विक साझेदारियों ने उसे अधिक आत्मविश्वासी और स्वायत्त बना दिया है।
बदलते समीकरण: नई वैश्विक व्यवस्था की दस्तक
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सात साल बाद चीन जा रहे हैं, वहीं पुतिन भी भारत आने वाले हैं। यह स्पष्ट संकेत है कि भारत सभी बड़े देशों से रिश्ते संतुलित रखने की नीति पर चल रहा है। नई वैश्विक व्यवस्था में देशों के बीच सहयोग के स्वरूप तेजी से बदल रहे हैं—जहां एक समय अमेरिका अकेला “नियामक” था, वहां अब कई केंद्र उभर रहे हैं।
ट्रंप का असली डर
ट्रंप के टैरिफ असल में एक बदलते वर्ल्ड ऑर्डर के खिलाफ अमेरिकी प्रतिक्रिया हैं। भारत-चीन-रूस के बीच बढ़ता सहयोग और BRICS-SCO जैसे मंचों का विस्तार पहली बार अमेरिकी प्रभुत्व को गंभीर चुनौती दे रहा है। आज भारत जैसे देश न केवल अपनी विदेश नीति में स्वतंत्र हैं, बल्कि वैश्विक शक्ति-संतुलन के निर्माण में भी सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं—और यही वह बदलाव है जो ट्रंप और वाशिंगटन के रणनीतिकारों के लिए सबसे बड़ी चिंता है।