ऐसे में मुफ्त शिक्षा कैसे दे पाएंगे?

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हरियाणा के रेवाड़ी की एक छात्रा ने शिक्षा व्यवस्था और सरकारी स्कूलों के साथ सरकारों की कलई खोल कर रख दी है। 1937 के राष्ट्रीय शिक्षा सम्मेलन में ही महात्मा गांधी ने मुफ्त शिक्षा की परिकल्पना रखी थी।

1966 में कोठारी आयोग ने पड़ोस स्कूल की कल्पना प्रस्तुत की। 1968 में बनी देश की पहली शिक्षा नीति ने भी इसका समर्थन किया। इसके बाद भी देश में अगर सरकारी स्कूल सभी की जद तक नहीं पहुंच सका हैं, और देश में छ: वर्ष से चौदह वर्ष तक के बच्चों के लिए मुफ्त और सरकारी शिक्षा को लेकर किस बात की ढपली पीटी जाती है?

अगर ऐसे में हरियाणा की उस छात्रा के भूख हड़ताल के निहितार्थ अर्थ को देखे, तो सच्चाई पानी की तरह साफ होती हैं, कि सरकारी स्कूलों की देश में वास्तविक स्थिति क्या है। वर्तमान दौर में देश के भीतर जहाँ सरकारी स्कूलों को अपने-अपने तर्क पर राज्य सरकारे बंद कर रही हैं, इससे सरकारों का लक्ष्य सब पढ़े- सब बढ़े कैसे पूर्ण होंगे?

यह देश के समक्ष विडंबना नहीं तो क्या है कि हमारे यहां गरीबीयत की लक्ष्मण रेखा 26 और 32 रुपये में तय की जाती है। फिर पूर्ण साक्षरता का मिशन कैसे प्राप्त हो सकता है? मध्यप्रदेश में जहां लगभग 13 हजार सरकारी स्कूलों को क्लोजर एन्ड मर्ज के नाम पर बंद करने की सरकारी साजिश चल रही है, वहीं राजस्थान में भी 17 हजार के करीब स्कूलों को बंद करने की कोशिश हो रही है,

यही स्थिति देश के अन्य हिस्सों की है। ऐसे में सरकार के तर्क पर गौर करें कि इन स्कूलों में बच्चे नहीं पहुंच रहे। तो यह उचित नहीं लगता। ऐसे में समझ आता है कि कहीं छुटभैयों की पहुंच के कारण शिक्षा के बाजारीकरण पर सरकारें, तो नहीं उतारू हो गई हैं, इन दोनों बात में फर्क देखना होगा, क्योंकि जिस देश के एक चौथाई बच्चे चार से चौदह वर्ष के बीच हैं, फिर यह समझ से परे है कि बच्चे कैसे इन स्कूलों तक नहीं पहुंच रहे?

एक तथ्य यह भी हो सकता है कि सरकारी स्कूलों की अधोसंरचना और खामियों से उबकर जनता ने अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों से दूर रखना उचित समझा हो। तो ऐसे में सरकारों को सरकारी स्कूलों की मूलभूत सुविधाओं में बढ़ोत्तरी करनी चाहिए, न कि सरकारी स्कूलों को बंद करना समस्या की संजीवनी हो सकती है। दुनिया के प्रसिद्ध दर्शनिक प्लूटो मानते थे कि स्कूलों को कभी निजी हाथों में नहीं जाने देना चाहिए।

फिर जिस हिसाब से देश में शिक्षा प्रणाली गर्त में जाती दिख रही है, वह बताती है कि भारतीय शिक्षा प्रणाली को सिंगापुर और फिनलैंड के नजदीक भटकने में वर्षों लगेंगे। यहां तक कि मालदीव और श्रीलंका जैसे देश हमसे बेहतर स्थिति में है। भारत में सरकारी स्कूलों की दुर्दशा का एक मुख्य कारण निजी स्कूलों को बढ़ावा देना भी है,

जिसके कारण गरीब बच्चे शिक्षा से दूर रह जाते हैं। हमारे देश की साक्षरता वर्तमान में लगभग 75 फीसद है, तो उसका कारण सरकार की सरकारी स्कूलों की अनदेखी के साथ निजी स्कूलों को बढ़ावा देना है। फिनलैंड, नार्वे, अजरबैजान ऐसे देश हैं, जो 100 प्रतिशत साक्षर हैं। यह देश के सामने विडंबना है कि हम अजरबैजान जैसे देश की बराबरी साक्षरता के मामले में नहीं कर पा रहे हैं,

फिर अन्य विकसित देशों के समक्ष खड़े होने की हम सोच ही नहीं सकते। इन तथ्यों को आधार मानें, तो शिक्षा को लेकर हमारे देश की नीति में ही झोल मालूम होता हैं। शिक्षा किसी देश का विकसित अवस्था प्राप्त होने की जननी होती है। अगर देश के बच्चों को अच्छी शिक्षा नहीं मिलती, फिर वे देश के विकास और देश की समृद्धि के वाहक सही से नहीं बन सकते।

देश में एक ओर 83 करोड़ के आस-पास जनसंख्या गांवों में रहती है और देश की कुल आमदनी का 58 फीसद हिस्से के हकदार अगर गिने-चुने व्यक्तियों के हाथ में हैं, फिर सरकार को नि:शुल्क शिक्षण पर जोर देना चाहिए, क्योंकि अगर देश मे गरीबी की लकीर सरकारी आंकड़े में 30-32 रुपये में अमीर हो जाती है, ऐसे में निजी स्कूलों में 4-5 सौ रुपये की फीस अभिवावक नहीं अदा कर सकते। देश में पूर्ण साक्षरता की बात हमारी रहनुमाई व्यवस्था करती है। उसको प्राप्त करना निजी स्कूलों की मनमानी और सरकारी स्कूलों की अन्देखी में नहीं किया जा सकता।

-महेश तिवारी

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