लुटेरों की बढ़ रही दहशत

Looted

कभी महिलाएं बाजारों व भीड़भाड़ वाली जगहों पर सोने के जेवर पहनने से गुरेज करती थी, लेकिन अब घर के बाहर या गली में बैठी महिलाओं के लिए जेवरात पहनना मुश्किल हो गया है। झपटमार इतने शातिर हो गए हैं कि पलक झपकते ही गहने उतार कर फुर्र हो जाते हैं। कोई व्यक्ति यदि पैदल चलते हुए मोबाइल फोन सुन रहा है तब पीछे से अज्ञात व्यक्ति आते हैं और मोबाइल फोन छीनकर फरार हो जाते हैं। आज के समय में ये हालात आम बने हुए हैं। हैरानी की बात तो यह है कि सिवलियन के साथ ऐसी लूटपाट कभी विदेशी हमलावरों के द्वारा की जाती थी। खैबर दर्रा लांघकर विदेशी हमलावर गांव-शहरों में लूटपाट करते थे। वे शाही खजाना लूटने के साथ ही आम लोगों से जेवर लूटते थे।

आज स्वतंत्र देश के पास बेहद विशाल व आधुनिक सुरक्षित तंत्र है। आंतरिक व बाहरी सुरक्षा के लिए अलग-अलग व्यवस्थाएं हैं, लेकिन आंतरिक हालात चिंताजनक है। रोजाना हो रही बैंक डकैतियां, एटीएम व पेट्रोल पंप पर लूटपाट, राहगीरों को लूटना इत्यादि घटनाएं पुलिस प्रबंधों में कमी व लापरवाही रवैये को दर्शाती है। नि:संदेह देश ने तकनीक व आर्थिक रूप से विकास किया है, भौतिक विकास हो रहा है लेकिन सामाजिक तौर पर मनुष्य अकेला व असुरक्षित महसूस कर रहा है। घरों में अकेले रह रहे बुजुर्गों की हत्याएं करने की भी अनगिनत घटनाएं घट चुकी हैं। दरअसल, इन घटनाओं को व्यक्तिगत व सामाजिक मुद्दे कहकर अनदेखा नहीं किया जा सकता।

यह भी आवश्यक है कि कानून व्यवस्था में कमियों और लूटपाट व हत्याओं की घटनाओं के पीछे सामाजिक व आर्थिक पहलूओं पर भी विचार किया जाना चाहिए। यह भी सच है कि बेरोजगारी व नशाखोरी ने भी युवाओं को लूटपाट का एक कारण है। बेरोजगारी व नशाखोरी जैसी समस्याओं से भी निपटना होगा। भटक रहे युवाओं को सरकारें स्वै-रोजगार के लिए उत्साहित करें व रोजगार के अवसर पैदा किए जाएं। पुलिस प्रबंध निष्पक्ष व स्वतंत्र हों। ज्यादातर पुलिस पर यही आरोप लगते हैं कि रिश्वत लेने के कारण दोषियों के खिलाफ उचित कार्रवाई नहीं हो पाती, यह भी कारण है कि अपराध बढ़ते जा रहे हैं। युवाओं को अपराधिक दुनिया की दलदल से बाहर निकालने के लिए शिक्षा नीतियों व कार्यप्रणाली को मजबूत किया जाना चाहिए।

शिक्षा केवल किताबी ज्ञान होकर यह सदाचार व नैतिक मूल्यों को बढ़ावा देने वाली बने। इसी तरह मनोरंजन में गिरावट भी अपराध को कहीं न कहीं बढ़ावा दे रहे हैं। फिल्मों, सीरियलों में हिंसा के दृश्य व कहानियां इस तरह पेश की जाती हैं कि अपराधी नए-नए आइडिया लेकर अपराध को अंजाम देते हैं। कई बाल अपराधियों ने भी यह स्वीकार किया है कि उन्होंने किसी फिल्म व सीरियल विशेष की नकल कर अपराध करना सीखा है। भले ही कानून व्यवस्था केवल पुलिस तक सीमित नजर आती है लेकिन वास्तविक्ता यह है कि इसके सामाजिक, मानसिक, आर्थिक व सांस्कृतिक पहलूओं पर गौर किए बिना इस समस्या का समाधान संभव नहीं। भौतिक विकास वास्तविक व सजीव विकास का रूप नहीं ले सकता।

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