जानें, कैसे इतिहासकार नन्दकिशोर शर्मा की शोध ने इतिहास के अनछूए रहस्यों से हटाया पर्दा

जैसलमेर (सच कहूँ न्यूज)। जाने-माने इतिहासकार एवं लोक संस्कृति मर्मज्ञ नन्दकिशोर शर्मा ने इतिहास विषयक अपने ताजातरीन शोध निष्कर्ष में देश-दुनिया के ऐतिहासिक कालक्रम की सदियों से चली आ रही कालगणनाओं को त्रुटिपूर्ण और भ्रामक बताते हुये दुनियां भर के इतिहासकारों के सामने चुनौती पेश की है। शर्मा ने बताया कि प्राचीनकालीन संवतों से लेकर हिजरी एवं ईस्वी सन तक की कालगणनाओं में जबरदस्त अंतर है और इस वजह से देश और दुनियां के समूचा इतिहास दुष्प्रभावित हुआ है। उन्होंने बताया कि मुगलों और अंग्रेजों से लेकर भारतीय लोकतंत्र के रहनुमाओं और नायकों तक ने इस कालगणना के साथ ऐसा घोर अन्याय किया है जिसे यदि समय रहते संशोधित और परिमार्जित कर सही स्वरूप नहीं दिया गया तो इतिहास, तिथियां, ज्योतिषीय गणनायें एवं पंचाग का गणित, शिक्षण-प्रशिक्षण, पाठ्यक्रम, गर्व और गौरव का अहसास कराने वाली शौर्य पराक्रम भरी गाथाओं का कालक्रम, राजवंशों का इतिहास और वह सब कुछ विकृत और भ्रामक ही बना रहेगा। इनके साथ ही सरकारी रिकार्ड, विभिन्न प्रदेशों और राज्यों के गजेटियर्स आदि सब कुछ कालगणना की विकृतियों से प्रभावित होंगे और सदियों तक इतिहास में झूठी तिथियां ही समाहित रहेंगी।

सुधार की दिशा में कोई नहीं उठाया कदम

शर्मा ने कई दशकों की अनवरत शोध, इतिहास के कई ग्रंथों को खंगालने तथा अभिलेखों, शिलालेखों और दुनिया भर के इतिहासकारों के शोध अध्ययन पर गहन चिंतन-मनन के बाद अपनी ताजा शोध में यह धमाकेदार निष्कर्ष दुनिया के सामने रखा है। इसमें उन्होंने स्पष्ट किया है कि भारत की परम्परागत सनातन संस्कृति, इतिहास और मौलिक परम्पराओं को नष्ट-भ्रष्ट एवं विकृत कर देने के लिए मुगलों और अंग्रेजों ने षडयंत्रपूर्वक यह काम किया है और आजादी के बाद भारतीय राजनेताओं ने भी इसमें हिस्सेदारी निभाई और विकृतियों तथा झूठे इतिहास को संरक्षण व प्रोत्साहन देते रहे तथा सुधार की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया।

इतिहासकारों ने भी आंखें मूंद कर रखी

यही नहीं तो भारतीय इतिहासकारों ने भी आंख मूंद कर उनके द्वारा चलाये गए कालक्रम की गणनाओं को ही हूबहू अंगीकार कर लिया और इस गलती पर लगातार पर्दा डालते रहे, जो आज तक भी जारी है। शर्मा ने बताया कि मुगलकाल में जब शक और हिजरी सन की कालगणना की गई तब उसमें शक और हिजरी का अंतर 500 वर्ष निर्धारित किया गया। इसी कारण भारत में चलने वाले परम्परागत प्रचलित संवत् बुरी तरह प्रभावित हुये। शक संवत का प्रचलन 522 हिजरी संवत 1 से हुआ था। शक और विक्रम में 135 वर्ष का अंतर था। जब मुगल बादशाह अकबर ने ‘दीने इलाही’ संवत चलाया तब यह कालगणना सर्वाधिक प्रभावित हुई और इसमें युधिष्ठिर संवत 122 वर्ष आगे चला गया तथा शक और विक्रम 22 वर्ष आगे-पीछे हो गये। वर्तमान में हिजरी संवत् 1442 में जब हम 500 वर्ष जोड़ते हैं तो 1942 शक संवत आता है। वि.सं. 1942 में 135 जोड़ते हैं तब 2077 आता है। इससे यह प्रमाणित होता है कि कालगणनाओं में हिजरी सन और ईस्वी सन के कारण अंतर आया है।

भारतीय अंकों के स्थान पर अंग्रेजी अंकों को स्वीकार किया

देश आजाद होने के बाद जब हमारी संविधान समिति ने विक्रम संवतकी सिफारिश की थी लेकिन नायकों ने विक्रम के स्थान पर ईस्वी सन को मान्यता दिलाई और पहले से प्रचलित भारतीय अंकों के स्थान पर अंग्रेजी अंकों को स्वीकार कर लिया। इससे हमारी समस्त पांडुलिपियां, अभिलेख, शिलालेख और इतिहास से जुड़े हुये तमाम दस्तावेजों में उल्लेखित तिथियां भ्रमित हो गई और शक संवत युधिष्ठिर संवम से 122 वर्ष आगे चला गया। वर्तमान में प्रचलित वि.सं. 2078 में जब हम 3044 युधिष्ठिर संवत् को जोड़ते हैं तो यह 5122 वर्ष हो जाता है। जबसे हिजरी सन में शक संवत 500 की कालगणना की गई तब शक संवत और युधिष्ठिर संवत का 122 वर्ष का अंतर हो गया।

कई दशकों से इतिहास और लोक संस्कृति का गहन किया अध्ययन

इस प्रकार जब हम 5122 में 122 घटाते है तो यह 5000 वर्ष आता है और यह युधिष्ठिर संवत लोकतंत्रीय भारत की 75वीं वर्षगांठ पर अपने 5000 वर्ष पूर्ण करता है, यह एक अनूठा संयोग है। कई दशकों से इतिहास और लोक संस्कृति के गहन अध्ययन एवं शोध में जुटे 84 वर्षीय इतिहासकार नन्दकिशोर शर्मा जैसलमेर के मरु सांस्कृतिक केन्द्र, संग्रहालय के संस्थापक संचालक हैं तथा इतिहास और लोक संस्कृति तथा परम्पराओं से जुड़े विषयों पर निरंतर लेखन में जुटे हुए हैं। इन विषयों पर उनकी अब तक 40 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जबकि कई ग्रंथ प्रकाशनाधीन हैं।

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