पिछले दो सप्ताह में सदैव आपके साथ, आपके लिए नारा तार-तार हो गया है। यह प्रकरण तमिलनाडू के संथाकुलम का है जहां पर एक पिता और पुत्र ने कर्फ्यू के दौरान अपनी मोबाइल की दुकान को 15 मिनट के लिए खोला था। उन्हें गिरफ्तार किया गया और पुलिस द्वारा उन पर अत्याचार किया गया। उनके गुप्तांगों पर चोट पहुंचाई गयी और इस पिटाई के कारण उनकी मौत हो गयी। पुलिसवालों ने इस मामले को छिपाने का प्रयास किया किंतु मद्रास उच्च न्यायालय ने इस मामले में हस्तक्षेप करते हुए सीबीआई-सीडीआई जांच का आदेश दिया जिसके चलते राज्य पुलिस रक्षक नहीं कातिल बन गयी। इस घटना पर पूरे देश में आक्रोश फैला। न्यायालयों को अनेक लोगों पर पुलिस द्वारा अत्याचार की शिकायतें और सबूत प्राप्त हो रहे हैं। वस्तुत: जयराज और पेनिक्स की हिरासत में निर्मम हत्या इस कटु सच्चाई को दर्शाता है कि पुलिस सर्वशक्तिमान बन गयी है और वह बिना किसी भय के लोगों पर अत्याचार कर रही है। एक ऐसा वातावरण बन गया है जहां पर पुलिसकर्मी एक खूनी कातिल की तरह व्यवहार करते हैं और राज्य मौन बना बैठा रहता है।
किसी भी मोहल्ले, जिले, सड़क या राज्य में चले जाओ, स्थिति यही है। चाहे छोटा-मोटा अपराध हो या बड़ा अपराध पुलिस की निर्ममता सभी जगह देखने को मिलती है। यदि आप किसी से छुटकारा पाना चाहते हैं तो आप पुलिस वाले कातिल को बुला सकते हो। बहू को जलाने की घटना हो या सड़क पर मारपीट न्यायालय से बाहर मामलों का निपटान, फर्जी मुठभेड, अत्याचार से मौतें, पुलिस इन सब कामों को बखूबी अंजाम देती है और इन घटनाओं को देखकर लोग थर-थर कांपने लगते हैं। इस संबंध में दो घटनाएं उल्लेखनीय हैं। यह संयोग नहीं है कि कोरोना महामारी के दौरान पुलिस उत्पीड़न की शिकायतें प्राप्त हुई हैं बल्कि यह महामारी कानून के नियम को नजरंदाज करने के लिए पुलिस के लिए एक बहाना बन गया। प्रवासी मजदूरों, दुकानदारों, पटरी दुकानदारों, आदि की पिटाई और उनको गाली देना आम बात हो गयी है। कर्फ्यू के दौरान सड़क पर लोगों की कान पकडकर परेड कराना भी आम देखने को मिला। यदि कोई शिकायकर्ता प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने जाता है और यदि यह शिकायत किसी पैसे वाले या शक्तिशाली व्यक्ति के विरुद्ध है तो थानेदार इसे दर्ज करने से इंकार कर देता है या उससे पैसे मांगता है और धमकाकर उसे भगा देता है।
बिहार और उत्तर प्रदेश में विशेषकर महिला शिकायतकतार्ओं के साथ दुर्व्यहवार किया जाता है और यदि शिकायत भ्रष्ट पुलिसकर्मी के विरुद्ध है तो भगवान ही शिकायकर्ता को बचा सकता है। इसकी जांच कौन करेगा, सबूत इकट्ठे कौन करेगा, कोई भी पुलिसकर्मी अपने सहयोगी के विरुद्ध ऐसा नहीं करेगा फलत: शिकायतकर्ता के पास मीडिया के पास जाने, उच्च अधिकारियों को लिखने के सिवाय कोई विकल्प नहीं बचता है। हमारे राजनेताओं के बारे में कम कहा जाए तो अच्छा है क्योंकि वे जानते हैं कि क्या हो रहा है। अनेक पुलिस आयोगों का गठन किया गया और उन्होंने आठ रिपोर्टें प्रस्तुत की किंतु उन्हें रद्दी की टोकरी में डालकर भुला दिया गया और इसका मुख्य कारण यह है कि पुलिस पर किसका नियंत्रण होगा -राज्य सरकार का या एक स्वतंत्र निकाय का। सत्तालोलुप नेता इस प्रश्न का ईमानदारी से उत्तर नहीं दे सकते है और उनसे ईमानदार उत्तर की अपेक्षा करना हमारी बेवकूफी होगी। अनुभव बताता है कि गत वर्षों में पुलिस ने अपनी शक्तियों का खुलेआम दुरूपयोग किया है। पुलिसवालों को सत्तारूढ माई-बाप का संरक्षण प्राप्त होता है इसलिए वे निर्भय होकर ऐसे कामों को अंजाम देते हैं और ये राजनीतिक माई-बाप पुलिस का उपयोग अपने प्रतिद्वंदियों, व्यवसाइयों और आम लोगों के विरुद्ध अपने एजेंडे को पूरा करने के लिए करते हैं। प्रश्न यह भी उठता है कि क्या पुलिसवालों को उससे अधिक दोष दिया जाता है जितना कि वे दोषी हैं। क्या मुख्य दोषी राजनेता हैं?
सच्चाई दोनों के बीच की है। दोनों पक्ष अपने हितों के लिए मिलकर कार्य करते हैं। जिसके चलते पुलिस का राजनीतिकरण हो चुका है और उनकी नियुक्ति और स्थानांतरण की शक्ति का दुरूपयोग किया गया है। राजनेता ऐसे पुलिस नेतृत्व को नियुक्त करता है जो उनका आज्ञापालक हो, मुख्यमंत्री पुलिसकर्मियों को अपनी बात मनवाने के लिए स्थानांतरण को डंडे के रूप में प्रयोग करते हैं। खाकी वाला और मंत्री एक दूसरे के साथ मिलकर कार्य करते हैं और जनता तथा कानून के शासन की कोई परवाह नहीं करते हैं जिसके चलते राजनीति का अपराधीकरण हुआ और फिर अपराध और राजनीतिक अपराधियों का राजनीतिकरण हुआ। फलत: राजनीतिक व्यवस्था और पुलिस को भारी नुकसान पहुंचा है। पुलिसवाले अक्सर बहाना बनाते हैं कि ऊपर से आदेश आया था और कानून और व्यवस्था बनाने के नाम पर आतंक फैलाते हैं। पुलिस तंत्र में क्या गंभीर खामियां आ गयी हैं? देश में विभिन्न राज्यों में पुलिस बल द्वारा मुठभेड़ आम बात हो गयी है। जनता द्वारा इस अवैध कृत्य की स्वीकृति से न्यायिक प्रणाली पर भी प्रश्न चिह्न लगा है। जब तक न्यायिक प्रक्रिया को तेजी से पटरी पर नहीं लाया जाता तब तक जनता का दबाव इस असभ्य कृत्य को बढावा देता रहेगा।
आज स्थिति यह है कि हताश पुलिस अधिकारी अपशब्दों का प्रयोग करते हैं और उसके कनिष्ठ तथा निचले रैंक के अधिकारी अपने बॉस को खुश करने के लिए स्थिति को और उलझाते हैं। अपने अधिकारियों का विश्वास जीतने के लिए वे अपराध में भागीदार बन जाते हैं। जो ऐसा नहीं करता उसे अपमानित किया जाता है या उसकी दंडात्मक तैनाती की जाती है। उत्तर प्रदेश में डीएसपी का औसत कार्यकाल तीन माह है और पंजाब में भी ऐसी स्थिति है। पुलिस अपनी दादागिरी तथा थर्ड डिग्री टार्चर के लिए कुख्यात है। वरिष्ठ अधिकारी इसे अंग्रेजी हुकूमत की परंपरा मानते हैं। पुलिस अधिकारी हिरासत में अपराधियों के टूटे हाथ पांव की फोटो प्रदर्शित करते हैं और मजिस्ट्रेट के समक्ष इसका कारण शौचालय में फिसलना बताते हैं। यह अपराधिक तत्वों के लिए न्यायेत्तर सजा है। प्रत्येक राज्य में कुछ ऐसे वरिष्ठ पुलिस अधिकारी हैं जो इस तरह की न्यायेत्तर परंपरा का समर्थन करते हैं। एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के शब्दों में समझौता अपवाद की बजाय विनियमित कवायद बन गयी है जिससे भ्रष्टाचार को बढावा मिला है। समस्या यह है कि हफ्ता और चाय पानी को पुलिसकर्मी का अधिकार माना जाता है। हाल ही में दिल्ली पुलिस के एक डीसीपी पर आरोप लगाया गया कि उसने करोडों रूपए की संपत्ति अर्जित की है। उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक ने खुलासा किया है कि नाभा जेल से कैदियों के भागने की घटना में एक महानिरीक्षक के विरुद्ध जांच चल रही है। फिर इस समस्या का समाधान क्या है? सरकार को यह स्पष्ट करना होगा कि किसी भी परिस्थिति में पुलिस अत्याचार नहीं सहा जाएगा।
पुलिस के कदाचार की शिकायतों की स्वतंत्र जांच के लिए एक प्रणाली बनानी होगी क्योंकि पुलिस के विरुद्ध जांच की कोई स्वतंत्र और प्रभावी प्रणाली नहीं है। इसके लिए केन्द्र और राज्य सरकारों को स्वतंत्र जांच करवानी होगी और प्रकाश सिंह मामले में उच्चतम न्यायालय के आदेश का पालन करना होगा जिसमें पुलिस शिकायत प्राधिकरण की स्थापना के लिए आदेश दिया गया है ताकि पुलिस के विरुद्ध शिकायतों की स्वतंत्र जांच की जा सके तथा ऐसे निकायों को पर्याप्त संसाधन और स्वतंत्रता देनी होगी ताकि जनता का उसमें विश्वास बना रहे। इसके साथ ही सरकार को अच्छे पुलिस व्यवहार के लिए प्रोत्साहन देना चाहिए। केन्द्र को राष्ट्रीय और राज्य मानव अधिकार आयोगों की क्षमता बढ़ानी होगी और एक ऐसी संस्कृति पैदा करनी होगी जिसमें मानव अधिकारों और पेशेवर आचराण के लिए पुरस्कार दिया जाए। पुलिस को भी जनता का हितैषी बनने के लिए बदलाव लाना होगा। पुलिस का उद्देश्य कानून का शासन स्थापित करना है। कानून और व्यवस्था को दो अलग विभागों में विभाजित किया जाना चाहिए और प्रत्येक के लिए अलग पुलिस बल होना चाहिए। हरमन गोल्डस्टीन ने कहा है लोकतंत्र की शक्ति और उसमें लोगों द्वारा जीवन की गुणवत्ता का निर्धारण पुलिस द्वारा अपने कर्तव्यों के निर्वहन द्वारा किया जाता है। क्या आम आदमी पुलिस वाले कातिलों के हाथों लोहे की सलाखों के पीछे सड़ते रहेंगे? समय आ गया है कि इस बात पर विचार किया जाए: किसका डंडा, किसकी लाठी और किसकी भैंस?
पूनम आई कौशिश
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